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हिटलर और मोदीः साम्यताएं महज संयोग हैं क्या?

मानव का स्वभाव है कि वह किसी चीज को किसी परिप्रेक्ष्य में रखकर ही पहचान सकता है, उसे पूरी तरह समझ सकता है। अब तो सापेक्षता विज्ञान की भी स्वीकृत धारणा है। कोई चीज किसी संदर्भ में ही मोटी-पतली या अच्छी-बुरी होती है। अगर इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा जाये तो तुलना और उदाहरण बुद्धि द्वारा विकसित बौद्धिक उपकरण हैं- इससे ही विकास की धारा का, इतिहास की दिशा का पता चलता है। वस्तुतः बिना दूरी लिए हम किसी भी वस्तु को पूर्ण रूप से नहीं देख सकते हैं और वर्तमान से दूरी लेने का एक ही तरीका है कि उसे अतीत से जोड़कर देखा जाए। इतिहास में एक परम्परा रही है कि किसी भी व्यक्तित्व को समझने के लिए ‘उसी जैसा’ व्यक्ति इतिहास की गर्त में खंघाला जाता है, इतिहास के विद्यार्थियों के पास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब वह किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को समझने के लिए अतीत की धारा में आगे-पीछे होते हंै। कभी किसी को ‘कश्मीर का अकबर’ तो कभी किसी को ‘भारत का नेपोलियन’ कह कर उसे आंकता है। अभी हाल में ही भारत में तमाम लोगों ने अन्ना हजारे को गांधी के सापेक्ष करके अतीत को खंघाला। खैर अभी हाल में राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को हिटलर कह कर हमें फिर से अतीत की धारा में पीछे जाने के लिए विवश किया है। पूरी भारतीय राजनीति में हिटलर (जर्मनी का) फिर से चर्चा में है- आखिर कौन है ये हिटलर? नरेन्द्र मोदी से उसका क्या रिश्ता है? मोदी जिस संघ परिवार में खेल-कूद कर बड़े हुए हैं क्या उसकी विचारधारा से हिटलर जुड़ा हुआ है? ये सारे सवाल आज राजनैतिक विश्लेषकों और मीडिया द्वारा उछाले जा रहे हैं।

मानव का स्वभाव है कि वह किसी चीज को किसी परिप्रेक्ष्य में रखकर ही पहचान सकता है, उसे पूरी तरह समझ सकता है। अब तो सापेक्षता विज्ञान की भी स्वीकृत धारणा है। कोई चीज किसी संदर्भ में ही मोटी-पतली या अच्छी-बुरी होती है। अगर इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा जाये तो तुलना और उदाहरण बुद्धि द्वारा विकसित बौद्धिक उपकरण हैं- इससे ही विकास की धारा का, इतिहास की दिशा का पता चलता है। वस्तुतः बिना दूरी लिए हम किसी भी वस्तु को पूर्ण रूप से नहीं देख सकते हैं और वर्तमान से दूरी लेने का एक ही तरीका है कि उसे अतीत से जोड़कर देखा जाए। इतिहास में एक परम्परा रही है कि किसी भी व्यक्तित्व को समझने के लिए ‘उसी जैसा’ व्यक्ति इतिहास की गर्त में खंघाला जाता है, इतिहास के विद्यार्थियों के पास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब वह किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को समझने के लिए अतीत की धारा में आगे-पीछे होते हंै। कभी किसी को ‘कश्मीर का अकबर’ तो कभी किसी को ‘भारत का नेपोलियन’ कह कर उसे आंकता है। अभी हाल में ही भारत में तमाम लोगों ने अन्ना हजारे को गांधी के सापेक्ष करके अतीत को खंघाला। खैर अभी हाल में राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को हिटलर कह कर हमें फिर से अतीत की धारा में पीछे जाने के लिए विवश किया है। पूरी भारतीय राजनीति में हिटलर (जर्मनी का) फिर से चर्चा में है- आखिर कौन है ये हिटलर? नरेन्द्र मोदी से उसका क्या रिश्ता है? मोदी जिस संघ परिवार में खेल-कूद कर बड़े हुए हैं क्या उसकी विचारधारा से हिटलर जुड़ा हुआ है? ये सारे सवाल आज राजनैतिक विश्लेषकों और मीडिया द्वारा उछाले जा रहे हैं।

हमें नरेन्द्र मोदी को समझने के लिए अतीत की धारा में लौटाना होगा- ऑस्ट्रिया के एक छोटे से शहर ब्रानों में, जहाँ 20 अप्रैल 1889 को हिटलर ने एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लिया, एक सैनिक के तौर पर हिटलर ने अपना जीवन शुरू किया परन्तु बड़ी तेजी के साथ परिस्थितियाँ बदलती गयी और अपनी जालसाजी और कुटिलता के चलते हिटलर जर्मनी का फ्यूहरर (प्रधान नेता) बन बैठा। इसी क्रम में हिटलर ने राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रम दल (नात्सीदल) के अध्यक्ष डेक्सलर को भी अपने रास्ते से हटा दिया। इसी क्रम में यदि मोदी को देखा जाए तो हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए भाजपा के संस्थापक सदस्यों को ही अपने रास्ते से हटा दिया। लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेता जो भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग’ थे को भी नहीं बक्शा। इस क्रम में जसवंत सिंह, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी, लाल जी टंडन जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी संघ परिवार के साथ मिलकर अपने रास्ते से लगभग हटा ही दिया है। ये नेता आज अपनी सीटों से बेदखल होकर अपनी स्वयं की जीत-हार में ही परेशान हैं।
    
हिटलर ने तात्कालीन जर्मनी के आर्थिक हालात का बड़ी चतुराई के साथ लाभ उठाया था। 1929 में आयी महा आर्थिक मंदी ने जर्मनी की व्यवस्था को चैपट कर दिया था। उस समय जर्मनी की सड़कों पर बड़ी संख्या में बेरोजगार गले में तख्ती लटकाये- ‘मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ’ दिखायी देने लगे थे। पूँजीपतियों को भय सताने लगा था कि कहीं जर्मनी में साम्यवादी क्रान्ति न हो जाये। आज भारत भी आर्थिक उदारीकरण के नाम पर लूट-खसोट की नीतियों से पीडि़त है। अर्थव्यवस्था के हालात ठीक नहीं हैं, वस्तुतः इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब फासिस्ट संगठन अपना प्रभाव बढ़ाते हैं तो पूंजीपति वर्ग उनके साथ जुड़ जाता है। आज जब नरेन्द्र मोदी अम्बानी और आडानी के पैसों से उड़नखटोले में उड़ कर विकास का जुमला उछाल रहे हैं तो अनायास ही हिटलर के साथ जर्मनी के पूंजीपतियों के सम्बन्धों की यादें ताजा नहीं हो रही हैं। यहाँ जर्मनी के इतिहास के पन्नों को पलटना बेहद उपयोगी होगा क्योंकि प्रश्न हिटलर और जर्मनी के पूंजीपतियों के सम्बंधों अथवा मोदी और अम्बानी के सम्बंधों का नहीं है बल्कि इसका है कि इन सम्बन्धों के चलते मनुष्यता को कैसे-कैसे दुख झेलने पड़ते हैं।
    
हिटलर के पतन के बाद न्यूरेमबर्ग में नाजियों के खिलाफ मुकदमा चला, जिसमें बाल्थर फंक नामक का एक व्यक्ति भी था जो जर्मनी के प्रसिद्ध आर्थिक अखबार ‘बर्लिनर वोरसेन जेतुंग’ का सम्पादक था और पूंजीपतियों और हिटलर के बीच का महत्वपूर्ण कड़ी भी। उसने कई रहस्यों को उजागर किया जिससे हिटलर और पूंजीपतियों का संबंध उजागर हुआ। हिटलर ने कोयला खानों के मालिकों से पैसे वसूलने के लिए ‘सर ट्रेजरी’ नाम से एक फण्ड भी बनाया था। फंक ने एक लम्बी लिस्ट बतायी जिसमें कॉर्टन आई.जी. फाखेन, वान स्निजलर, अगस्त दिहन, जैसे उद्योगपति थे जो हिटलर को अपने स्वार्थों के लिए चंदा देते थे। आज भारत में खास कर के गुजरात में मोदी ने अडानी को 1 रू0 प्रति वर्गफुट से हिसाब से जमीने दी हैं, से साफ जाहिर है कि आडानी और अम्बानी मोदी को किस लिए पैसे दे रहे हैं? क्यों भारत के दो-तिहाई पूंजीपति मोदी को बतौर प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं?
    
हिटलर ने अपना प्रचार करवाने के लिए एक पोस्टर जारी किया था- जिसमें सिर्फ हिटलर का एक फोटो था। यानि नाजीवादी पार्टी के अन्य नेताओं ने हिटलर के समक्ष समर्पण कर दिया था। भारत के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम हैं जब एक व्यक्ति ने पूरी पार्टी को हाइजैक कर लिया हो- तभी तो आज ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा उछाला जा रहा है। भारत के इतिहास में कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बनने के लिए शायद ही इतना उतावला या हड़बड़ी में रहा हो। आज संसदीय गरिमा को ताक पर रखकर ‘प्रेसीडेन्सियल फोबिया’ से ग्रसित मोदी ‘प्रधानमंत्री का चुनाव’ लड़ रहे हैं।
    
मोदी अपनी छवि बनाने के लिए प्रतिदिन 25 हजार डाॅलर खर्च करते हैं। सोशल साइटों, फेसबुक, ट्यूटर, यू-ट्यूब पर हजारों की संख्या में पेशेवर लोग बैठाए गए हैं जो मोदी के भाषणों और वीडियो को अपलोड करते हैं। उनकी रैलियों को लाईव कवर करने के लिए टीवी चैनलों को अपना ओवी वैन नहीं भेजना पड़ता, उनकी पीआर एजेंसी खुद लाईव कवरेज चैनलों के दफ्तरों तक पहुंचाती है। यह तरीका कोई नया नहीं है जर्मनी में हिटलर भी ठीक इसी तरीके से अपना प्रचार करता था। उसने चार लाख रेडियो सेट बांटे थे जिस पर उसका भाषण सुनना अनिवार्य था। आज मोदी जिस तरह से ‘विकास-विकास’ रट रहे हैं, वह एक पुराना हथियार है। अपने चुनाव प्रचार में हिटलर ने भी एक पोस्टर जारी करवाया था- जिस पर लिखा हुआ था- ‘आपकी फॉक्सवागन’। इसके जरिये यह एहसास करवाने की कोशिश की गयी कि अब आम मजदूर भी कार खरीद सकता है। आज भारत के 16वीं लोक सभा के चुनाव में भाजपा मध्यवर्ग को कुछ ऐसे ही सपने दिखा रही है।
    
भाषा का भ्रमजाल ऐसा होता है कि बहुत सारी चीजों पर लोग धूल डालने में सफल हो जाते हैं। यदि हम हिटलर के भाषणों को सुनें तो पाएंगे कि उसने कुछ शब्द ईजाद किए थे जिसका वह बखूबी प्रयोग करता था। यहूदियों की हत्या और गैस चैम्बरों में दम घोट कर मारने वाली प्रक्रिया के लिए क्रमशः वह ‘अन्तिम समाधान’ और ‘इवैक्युएशन’ शब्द का प्रयोग करता था। आज मोदी भी अपने ‘राजधर्म’ की असफलता और गुजरात दंगे को ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कह कर अपने ‘खूनी दाग’ को छुपा लेते हैं। ठीक हिटलर की तरह वह भी अपने विरोधियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते नजर आते हैं।
खैर मोदी और हिटलर की इस बहस को आगे ले जाने के लिए हमें आर0 एस0 एस0 और नाजीवाद के संबंधों और विचार धारा को देखना होगा। जैसा कि हिटलर ने नाजी पार्टी को मजबूत करने के लिए एस0 एस0 नाम का एक सशक्त सैनिक दल बनाया जो भूरी रंग की कमीज पहनते थे। यह मात्र संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि मोदी जिस संगठन में खेल-कूद कर बड़े हुए हैं उसका नाम भी आर0 ‘एस0 एस0’ है। इनका पहनावा भी इन्हीं लोगों से प्रेरित है। संघियों के लिए गीता मानी जाने वाली पुस्तक ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ में गोलवलकर ने राष्ट्र को परिभाषित भी हिटलर की तरह ही किया है। गोलवलकर ने राष्ट्र की परिभाषा में इसके पांच तत्वों को बताया है- भौगोलिक (देश), नस्वी (नस्ल) धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति), भाषायी (भाषा), इसमें से एक भी तत्व हटा दिया जाए तो राष्ट्र समाप्त हो जाता है। आज जब भी मोदी राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता की बात करते हैं तो वह धर्म को नहीं भूलते हैं, तभी तो खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी कहते हैं। वस्तुतः नाजियों के लिए भी धर्म और नस्ल राष्ट्र के प्रमुख नियामक अंग होते थे। इसी आधार पर वे राष्ट्रीयता की जमीन तैयार करते थे। आज मोदी भी खुले मंचों से भारत को हिन्दुओं के लिए सुरक्षित जगह बनाने की गारंटी देते नजर आते हैं। नाजियों द्वारा राष्ट्र के लिए ‘वोल्क’ शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसका अर्थ था- ‘धार्मिक-रक्त संबंधी एकता वाला जनसमूह’। ठीक इसी तर्ज पर संघ के लोगों ने ‘रेस’ की अवधारणा गढ़ी है।

वस्तुतः इतिहास वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव-कृतियों का लेखा-जोखा सुरक्षित है। उसमें हिटलर के भी सारे कारनामे दर्ज हैं और जब-जब ऐसी परिस्थितियां बनेंगी तब-तब वर्तमान को इसी प्रयोगशाला में समझा जायेगा और मौजूदा दौर के हिटलर को पहचाना जायेगा ताकि हम अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को बचा सकें।

अनिल यादव
मो0- 09454292339
110/46,हरिनाथ बैनर्जी स्ट्रीट, लाटूश रोड,
नया गांव, ईस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश                                
      

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