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उत्तराखंड

उत्तराखंड को आपदाओं से बचाने के लिए उसके विकास मॉडल पर पुनर्विचार ज़रूरी है

देश के नीति नियंता यदि समग्र हिमालय तथा हिमालयी लोगों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय नियोजन की नीतियां बनाते तो उत्तराखण्ड में गत वर्ष 16-17 जून को आयी आपदा उतनी विनाशकारी कदापि नहीं होती। हम यह भलीभांति जानते हैं कि हिमालय न केवल देश की जलवायु का नियमन करता है, बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रहरी भी है। यह देश के संपूर्ण उत्तरी तथा पूर्वी सीमाओं का रक्षक भी है। लेकिन खेद का विषय है कि हमारे राष्ट्रीय नीति-निर्धारकों को इसकी तरफ देखने-समझने और कुछ करने की चिंता कतई नहीं है। शायद उनको यह आवश्यक नहीं लगता कि हम एक राष्ट्र के रूप में हिमालय तथा हिमालयी लोगों को ध्यान में रखते हुए देश के नियोजन की नीतियां तैयार करें। यदि ऐसा किया गया तो निश्चय ही हिमालय तथा हिमालयी लोगों को राष्ट्रीय नियोजन नीति का केन्द्र बनाये जाने के दूरगामी परिणाम सामने आयेंगे।

देश के नीति नियंता यदि समग्र हिमालय तथा हिमालयी लोगों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय नियोजन की नीतियां बनाते तो उत्तराखण्ड में गत वर्ष 16-17 जून को आयी आपदा उतनी विनाशकारी कदापि नहीं होती। हम यह भलीभांति जानते हैं कि हिमालय न केवल देश की जलवायु का नियमन करता है, बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रहरी भी है। यह देश के संपूर्ण उत्तरी तथा पूर्वी सीमाओं का रक्षक भी है। लेकिन खेद का विषय है कि हमारे राष्ट्रीय नीति-निर्धारकों को इसकी तरफ देखने-समझने और कुछ करने की चिंता कतई नहीं है। शायद उनको यह आवश्यक नहीं लगता कि हम एक राष्ट्र के रूप में हिमालय तथा हिमालयी लोगों को ध्यान में रखते हुए देश के नियोजन की नीतियां तैयार करें। यदि ऐसा किया गया तो निश्चय ही हिमालय तथा हिमालयी लोगों को राष्ट्रीय नियोजन नीति का केन्द्र बनाये जाने के दूरगामी परिणाम सामने आयेंगे।

जहां तक उत्तराखण्ड का प्रश्न है, इस पहाड़ी प्रदेश की किस्मत भी ऐसी है कि पृथक राज्य बनने के बावजूद यह न बदली जा सकी है और न इसके आसानी से बदलने की कोई उम्मीद ही है। विगत वर्ष की तरह प्राकृतिक आपदाओं से जूझते रहना तो इसकी नियति ही बन गयी है। हर साल बाढ़-भूस्खलन आते हैं और भारी तबाही होती है। यदा-कदा यहां की धरती को भूकंप भी हिला जाते हैं। हाँ, पिछले वर्ष आई उस आपदा की मात्रा और दायरा अवश्य थोड़ा बड़ा था। चार धाम में भारी संख्या में लोगों के मरने और आपदा में फँसने से उसका प्रचार दुनिया भर में हो गया। इसीलिए केन्द्र और प्रदेश सरकारों ने खुल कर आर्थिक मदद दी। यहाँ तक कि विदेशों तक से भी मदद आयी। अनेक स्वयंसेवी संगठन और संस्थायें भी वहाँ राहत कार्यों में निःस्वार्थ भाव से जुटी रहीं। मगर, जहाँ से योजनावद्ध रूप से वास्तविक राहत एवं  भावी संकटों से बचाव के कार्य होने थे, वह सरकारी मशीनरी क्या इतनी सक्षम, ईमानदार और संवेदनशील होने का सबूत अपनी कार्य-कुशलता से देने को तैयार थी? ताकि दुखियों के आँसू पोछे जा सकें? मगर जो दिखाई-सुनाई दिया उससे तो ऐसा विश्वास नहीं हो पाया। मुख्यमंत्री से पटवारी तक सभी स्तरों पर बेईमानों, चोरों और कफनखोरों का ही बोलबाला रहा। राज्य को भरपूर मदद मिलने के बावजूद केदार घाटी, उत्तरकाशी व पिथौरागढ़ के दूर दराज के गाँवों में लोग भूख से बेहाल रहे और अब भी उन्हें मदद की दरकार है, जबकि कुछ लोग राहत सामग्री की बन्दर-बाँट में लगे रहे।

घोर आपदा के उस विकट समय में भी एक तरफ पुरातन काल से ही प्रचलित उत्तराखण्ड की अतिथि सत्कार, सहृदयता, सेवाभाव, परमार्थ और संकट के समय उठ खड़ा होने की स्वाभाविक प्रवृति साफ देखी गयी। तो वहीं दूसरी ओर पंजाब से भेजी गयी राहत में से चोरी कर जमा किये एक हजार से अधिक ऱाशन के बोरों का लक्सर में मंत्री के रिश्तेदार के गोदाम से बरामद होना, अल्मोड़ा के एक भाजपा विधायक द्वारा दिल्ली से भेजी गई राहत सामग्री अपने पार्टी कार्यकर्ताओं व समर्थकों को वितरित करना, उत्तरकाशी में एक अधिकारी के निजी वाहन में आपदा राहत की सामग्री भरकर ले जाना और चमोली के एक प्रधान द्वारा आपदा राहत सामग्री को अपने रिश्तेदार के घर भेजना उनकी आसुरी वृत्ति के परिचायक बने। संकट की घड़ी में देवदूत बनकर मदद को सामने आने वाले लोग प्रशंसा के पात्र होते हैं। समाज को अच्छी राह पर ले जाने वाले ऐसे प्रेरक लोग भले ही आज संख्या में कम हैं, परन्तु इसी से उनके कार्य तथा योगदान का महत्व और भी बढ़ जाता है।

उत्तराखंड में गत वर्ष व्यापक पैमाने पर आयी उस भयानक प्राकृतिक आपदा के बाद आज भी वहाँ की स्थिति काफी बदतर है। उस दुर्घटना में लगभग दो हजार से अधिक लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और हजारों परिवार बेघर हो गये। उत्तराखंड को इस त्रासदी में जान-माल के साथ-साथ हजारों करोड़ रुपयों की हानि झेलनी पड़ी, जिसकी पूर्ति हेतु केंद्र सरकार ने लगभग 12 हजार करोड़ रुपये का अनुदान राज्य सरकार को देने का आश्वासन दिया है। जिसमें से उत्तराखण्ड सरकार को हाल ही में 7 हजार 300 करोड़ रुपयों का पैकज दिया गया है। इसके साथ ही यहां यह भी देखा जाना जरूरी है कि राज्य के मुख्यमंत्री, आपदा प्रबंधन मंत्री और नौकरशाहों ने अभी तक इस दिशा में क्या और कितना काम किया है। उस विनाशलीला को हुए लगभग नौ माह बीत चुके हैं परंतु आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में पुनर्स्थापना या पुनर्संरचना से सम्बंधित कार्य मात्र 20-30 फीसदी ही हुआ है। आज भी वहाँ खाद्यान्न, सड़क, संचार, चिकित्सा, शिक्षा, आवास आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव बना हुआ है।

प्रदेश के सम्मुख आपदा पीड़ितों के पुनर्वास का मामला एक गंभीर चुनौती है। जिन गाँवों अथवा परिवारों को पुनर्वासित किया जाना है, उनकी वास्तविक पहचान तथा संख्या के निर्धारण में गड़बड़ी नहीं होगी, इसके पक्के इंतजाम ही अभी तक नहीं हो पाये तो फिर भला पुनर्वास जैसा दुरूह कार्य कैसे हो पायेगा? हालांकि इस बीच उत्तराखण्ड सरकार ने राज्य भर में बुरी तरह प्रभावित 320 गांव नये सिरे से बसाने और पुनर्स्थापित करने हेतु चिह्नित किये है, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि चिह्नीकरण से आगे इस दिशा में अभी तक कोई सकारात्मक कार्यवाही नहीं की गयी है। गत वर्ष की उस प्राकृतिक त्रासदी के कारण उत्तराखंड के चारों धामों की यात्राओं के अलावा पूरे उत्तराखण्ड का ग्रीष्म कालीन पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। एक अनुमान के अनुसार पिछले वर्ष यात्रा सीजन-2013 में राज्य को करीब 1,200 करोड़ रुपयों का सीधा नुकसान झेलना पड़ा था। अलबत्ता राज्य सरकार का दावा है कि वह इस वर्ष चार धाम यात्रा के लिए पूरी तरह से तैयार है। गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, बदरीनाथ और केदारनाथ धाम के कपाट 2 से 5 मई तक खुल जायेंगे और तीर्थयात्री यहां की यात्रा सुगमतापूर्वक कर सकेंगे।

इसी बीच एक सामाजिक कार्यकर्ता और छुयाल पोर्टल के संपादक जय प्रकाश बिष्ट ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर अनुरोध किया है कि न्यायालय राज्य और केंद्र सरकार से पूछे कि आपदा पीड़ितों के लिए उन्होंने अभी तक क्या-क्या ठोस कार्य किये हैं। याचिका के जरिये यह भी मांग की गयी है कि सरकार इस बात का हिसाब भी जनता को मुहैया कराये कि उसने किस-किस मद में कितना पैसा व्यय किया है।

मात्र अपनी स्वार्थ-पूर्ति तक सीमित भाजपा, कांग्रेस तथा अन्य राजनैतिक दलों के नेताओं से कोई उम्मीद करना स्वयं को छलने जैसा होगा। इन दलों को संचालित करने वाले ठेकेदार प्रजाति के लोग तो यहां प्रतिवर्ष बरसने वाली प्राकृतिक आपदाओं से खुश हुआ करते हैं। वे बाहर से भले ही शोकाकुल होने का स्वाँग रचते रहे हों, मगर सच यह है कि राहत के नाम पर आने वाली विशाल ‘मेगा राशि’ में वे अपना हिस्सा शुरू से ही तलाशने लगते हैं। आपदा के बाद उन्हें फिर से बांध, पन-बिजली योजनायें, सड़कें, पुल, मकान आदि-आदि बनाने के ढेर सारे ठेके जो मिलते हैं। हिमालय के दर्द से उन्हें कोई सरोकार नहीं। जन-सरोकारों से जुड़े मुठ्ठी भर लोग ही इन हालातों से परेशान होते हैं और भरसक इन्हें बदलने की कोशिश भी करते हैं। वे अपने मकसद में कितना और किस स्तर तक कामयाबी हासिल कर पाते हैं, यह समय ही बतायेगा।

यह तो है तस्वीर का एक पहलू, परंतु जिस सवाल को हल करना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए था, हमारे चिंतन के दायरे से बाहर होने के कारण उसे हम अभी से भूलने लगे हैं। और शायद बहुत जल्दी पूरी तरह भूल भी जायेंगे कि क्या विकास के इसी मॉडल को हम आगे भी चलाते रहेंगे? क्या तथाकथित धार्मिक पर्यटन इसी तरह अनियंत्रित, अनियोजित, असुरक्षित बना रहेगा? क्या यहाँ सड़कें, बांध, पन-बिजली योजनायें तथा अन्य परियोजनायें इसी तरह बगैर सोचे-समझे निर्बाध गति से बनती रहेंगी और आगे चल कर विनाश का सबब बनती रहेंगी? क्या ऐसी आपदाओं के बाद पहाड़ों से पलायन तेज नहीं होगा? और क्या सीमान्त क्षेत्र में स्थानीय जनसंख्या का घनत्व बढ़ाये जाने की अपेक्षा हम उसे गलत नियोजन से लगातार जनशून्य ही करते रहेंगे? क्या हम इन समस्याओं का समाधान जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय जनता के अधिकार और पूरी तरह स्वावलम्बी स्थानीय स्वशासन के रूप में नहीं ढूँढेंगे? ऐसे ही अनेक सवालों से हमें लगातार जूझते रहना है।

फिलवक्त तो हमें यह विचार अवश्य करना चाहिये कि क्या वह समय अब भी नहीं आया कि हम एक राष्ट्र के रूप में समग्र हिमालय तथा हिमालयी लोगों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय नियोजन की नीतियां बनायें? यहाँ यह निश्चयात्मक रूप से कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब हिमालय तथा हिमालयी लोगों को राष्ट्रीय नियोजन नीति का केन्द्र बनाये जाने के दूरगामी परिणाम पूरे देश के सामने आयेंगे।

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लेखक श्याम सिंह रावत से संपर्क उनके मो. 9410517799 या ईमेल [email protected] पर किया जा सकता है।

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