चलिए मान लेते है कि कानपुर की घटना में पूरी ग़लती सपा विधायक और एसएसपी की थी, फिर भी डॉक्टरो का इमर्जेंसी और ICU की सर्विसेज़ बंद कर देना कही से भी सही नहीं ठहराया जा सकता है। कानपुर मेडिकल कालेज के अस्पतालों में जूनियर डॉक्टरों के द्वारा मारपीट के मामले कोई नए नहीं है। ज़रा पता तो करिये कि पिछले दस सालों में अकेले हैलट हॉस्पिटल में कितनी बार जूनियर डॉक्टरों की तीमारदारों से मारपीट के बाद हड़ताले हुई है। हर बार तो सपा विधायक और एसएसपी नहीं थे वहाँ पर। फिर क्यों डॉक्टर लोग हमेशा ऐसा करते आये हैं?
कानपुर मेडिकल कॉलेज के जूनियर डॉक्टरों की हड़तालों का उत्तर प्रदेश के ही अन्य मेडिकल कॉलेजों BHU और KGMU से तुलना कर लीजिये तो तस्वीर साफ हो जायेगी। वैसे भी पिछले दो दशकों में इस प्रोफेशन ने अपनी क्रेडिबिलिटी को बहुत ही बुरी तरह धक्का पहुचाया है। जांचो, दवाओ पर कमीशन और परसेंटेज लेना किसी से छुपा नहीं है, जो डॉक्टर सरकारी अस्पतालो में ढूढे नहीं मिलते वही ऊँची फीस पर मंहगे प्राइवेट अस्पतालो में तुरंत हाजिर हो जाते है। IMA के कानपुर चैप्टर की अध्यक्ष और मेडिसिन डिपार्टमेंट मेडिकल कालेज, कानपुर की हेड को मैंने खुद मधुराज हॉस्पिटल के ICU में पांच मिनट आने के लिए 2000 रुपये लेते हुए देखा है।
डॉक्टरों के लिए बने प्रोफेशनल कोड ऑफ़ कंडक्ट की कसौटी पर अगर डॉक्टरों को कसा जाये तो उंगलियो में गिनने भर के लिए डाक्टर मिलेगे जो उनका पालन करते होंगे। खैर इन सब के बावजूद इस मामले में पुलिसिया रवैया बेहद ही बर्बर और आपत्तिजनक रहा है। सरकार को चाहिए कि इस पर एक न्यायिक जाँच करवाये और किसी भी तरह डाक्टरों की हड़ताल को ख़त्म करवाये। क्योंकि इस पूरे मामले में यदि सबसे ज्यादा प्रताड़ित कोई हो रहा है तो वो है आम नागरिक। शायद डॉक्टरों के पास भी उनसे ज्यादा सॉफ्ट टारगेट कोई दूसरा नहीं है। डॉक्टरों ने आम लोगों की जान को अपनी मांगें मनवाने का हथियार बना रखा है, जितनी ज्यादा जाने जायेंगी, सरकार पर उतना ही दबाव बढ़ेगा।
लेखक सुमित कुमार से संपर्क उनके ईमेल [email protected] पर किया जा सकता है।