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बनारस

बनारस, धर्म निरपेक्षता और वामपंथ

बनारस से भाजपा प्रत्याशी के रूप में नरेन्द्र मोदी के चुनाव लड़ने की बात के सामने आते ही धर्म निरपेक्ष बौद्धिकों के द्वारा प्रतिरोध का उठना स्वाभाविक था। नरेन्द्र मोदी का बनारस से चुनाव लड़ने के पीछे भाजपा का मकसद अयोध्या के बाद बनारस को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकीकरण की प्रक्रिया को तेज करना, हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण तथा देश में सांप्रदायिकता की राजनीति को आगे बढ़ाना था। उसी वक्त से ही धर्म निरपेक्ष व प्रगतिशील समाज के बीच इस विचार का जोर पकड़ना शुरू हो गया कि मोदी को शिकस्त देने के लिए उनके खिलाफ धर्म निरपेक्ष दलों को एकजुट होकर लड़ना चाहिए।

बनारस से भाजपा प्रत्याशी के रूप में नरेन्द्र मोदी के चुनाव लड़ने की बात के सामने आते ही धर्म निरपेक्ष बौद्धिकों के द्वारा प्रतिरोध का उठना स्वाभाविक था। नरेन्द्र मोदी का बनारस से चुनाव लड़ने के पीछे भाजपा का मकसद अयोध्या के बाद बनारस को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकीकरण की प्रक्रिया को तेज करना, हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण तथा देश में सांप्रदायिकता की राजनीति को आगे बढ़ाना था। उसी वक्त से ही धर्म निरपेक्ष व प्रगतिशील समाज के बीच इस विचार का जोर पकड़ना शुरू हो गया कि मोदी को शिकस्त देने के लिए उनके खिलाफ धर्म निरपेक्ष दलों को एकजुट होकर लड़ना चाहिए।

 
इस दौरान आप के नेता अरविन्द केजरीवाल ने यह घोषित किया कि यदि नरेन्द्र मोदी बनारस से चुनाव लड़ते हैं तो वे स्वयं बनारस से उनके विरुद्ध लड़ना पसन्द करेंगे और गुजरात के कॉरपोरेटपरस्त ‘मोदी मॉडल’ की असलियत से लोगों को परिचित करायेंगे। अपनी इसी योजना के तहत केजरीवाल 25 मार्च को बनारस आये। मीडिया की उपेक्षा के बावजूद बेनियाबाग की उनकी सभा को सफल कहा जाएगा क्योंकि अरसे बाद उस मैदान में इतनी भीड़ जुटी थी। दूसरी बात केजरीवाल का बनारस में मोदी समर्थकों द्वारा जिस अलोकतांत्रिक तरीके से विरोध किया गया, स्याही व अण्डे फेके गये, उससे साफ था कि भाजपा ने केजरीवाल को अपने लिए चुनौती माना था। इसी सभा में केजरीवाल ने बनारस से चुनाव लड़ने की घोषणा की।
 
धर्म निरपेक्ष बौद्धिकों तथा प्रगतिशील लेखकों व संस्कृतिकर्मियों की ओर से अरविन्द केजरीवाल की इस घोषणा का आमतौर पर समर्थन किया गया और फेसबुक तथा अन्य माध्यमों से जो विचार सामने आये उसका निचोड़ यही था कि अपने को धर्म निरपेक्ष कहने वाले दल यदि बनारस में मोदी को हराना चाहते हैं तथा फासीवादी खतरे के प्रति उनकी चिन्ता वाजिब है तो उन्हें अपनी दलीय महत्वकांक्षाओं से ऊपर उठकर केजरीवाल का समर्थन करना चाहिए या सेकुलर दलों की ओर से संयुक्त प्रत्याशी उतारा जाना चाहिए ताकि बनारस फासीवाद का नहीं सेकुलरवाद की जीत का गवाह बने। इस संबंध में हिन्दी लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के संगठनों-प्रलेस, जलेस, जसम व इप्टा की पहल की चर्चा करना प्रासंगिक होगा जिन्होंने इसी मकसद से अप्रैल के आरंभ में बनारस में बैठक की तथा इस संबंध का प्रस्ताव पारित किया। साहित्यकारों के संगठनों की सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध यह सांस्कृतिक पहल वाम व लोकतांत्रिक दलों को मशाल दिखाने वाली थी।
 
लेकिन बनारस में ऐसा संभव नहीं हो पाया और कथित धर्म निरपेक्ष दलों के ‘भाजपा विरोध’ और ‘सेकुलरवाद’ की पोल खुल गई। देखते ही देखते दलों ने अपने प्रत्याशी घोषित करने शुरू कर दिये। ज्ञात हो कि सीपीएम ने कांग्रेस व भाजपा के खिलाफ ग्यारह दलों के जिस तीसरे मोर्चे की रचना की थी, उसकी ओर से भी बनारस में सेकुलर प्रत्याशी को लेकर कोई गंभीर कोशिश नहीं दिखाई दी। तीसरा मोर्चा भी अपना संयुक्त प्रत्याशी उतारने में असफल रहा। सीपीएम भी उसी राह पर बढ़ चली और उसने भी अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ता हीरालाल यादव बनारस से पार्टी के उम्मीदवार बनाये गये। इस तरह बनारस में मोदी के खिलाफ धर्म निरपेक्ष व वाम दलों द्वारा गैरकांग्रेसी संयुक्त प्रत्याशी उतरे, इस जन भावना को गहरा धक्का लगा और मोदी को इस तरह की संयुक्त चुनौती नहीं दी जा सकी। इसने यह भी प्रमाणित कर दिया कि फासीवाद के विरुद्ध धर्म निरपेक्ष व वाम दलों की एकता की बुनियाद कितनी कमजोर तथा संकीर्ण हितों पर आधारित है।
 
कभी बनारस में वामपंथी दलों का मजदूरों, किसानों, गरीब-गुरबा वर्गों के बीच अच्छा काम काज व इन पर खासा प्रभाव था। 1967 के चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव में बनारस लोकसभा सीट से सीपीएम प्रत्याशी सत्यनारायण सिंह ने जीत हासिल की थीं। उदल सीपीआई के लोकप्रिय नेता थे। उन्होंने कोलअसला विधानसभा सीट से अपनी जीत का कीर्तिमान स्थापित किया था। लेकिन यह सब गुजरे जमाने की बात है। तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। आज वामपंथ का वह जन आधार खिसक चुका है। 60 व 70 के दशक में बनारस में वामपंथ की जो प्रतिष्ठा थी, वह बरकरार नहीं रही।
 
ऐसे में सीपीएम द्वारा कामरेड हीरालाल यादव मोदी को कितनी चुनौती दे पायेंगे, यह प्रश्न बना रह जाता है। यहां कामरेड यादव की क्षमता, कर्मठता और जन समर्पण की भावना पर किसी किस्म के संदेह की जरूरत नहीं है। मूल बात सेकुलर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की है क्योंकि बनारस में कामरेड यादव की अधिकतम निर्भरता अपनी पार्टी के कैडर वोट पर है। इस वोट से मोदी को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। इसीलिए सीपीएम द्वारा प्रत्याशी चयन को भी प्रश्नांकित किया जा रहा है। इस संदर्भ में आलोचक वीरेन्द्र यादव का यह विचार उचित जान पड़ता है कि बनारस से सीपीएम को अपने प्रत्याशी बदलने के बारे में विचार करना चाहिए और उसे ऐसा प्रत्याशी देना चाहिए जिसकी राष्टीय छवि हो। उनके विचार से यहां से सीताराम येचुरी या वृंदा करात या सुभाषिनी सहगल को पार्टी द्वारा प्रत्याशी बनाया जाता जो सेकुलर मतदाताओं के धु्रवीकरण में ज्यादा सफल होते।
 
अब सीपीएम द्वारा बनारस में अपने इस कदम को फासीवाद के विरुद्ध वाम एकता का प्रतीक तथा वामपंथ की स्वतंत्र राजनीतिक पहल व दावेदारी कहा जा रहा है। उनकी अपेक्षा है कि सारे वामपंथी संगठन, धर्म निरपेक्ष समाज व प्रगतिशील बुंद्धिजीवी उनका समर्थन करे। सुनने में यह अच्छा लग रहा है। उनकी अपेक्षा भी उचित प्रतीत होती है। लेकिन कई सवाल भी उठ रहे हैं। वे जिस वाम एकता व वामपथ की स्वतंत्र दावेदारी की बात कर रहे हैं, वह अवसरवाद और परिणामवाद से संपूर्ण संबंध विच्छेद की मांग करती है। देखने में यही आ रहा है कि स्वतंत्र दावेदारी की बात करने वाले वामपंथी अवसरवाद से वैचारिक संघर्ष के लिए तैयार नही है। बनारस में भी वे अपने अवसरवाद को ही विस्तार दे रहे हैं। यह उनका अवसरवाद ही है कि भले उत्तर प्रदेश में वामपंथियों के बीच एकता न हो लेकिन बनारस में यह एकता जरूर बन जाए।
 
जहां तक मेरी जानकारी है भाकपा, माकपा, माले व अन्य वामपंथियों के बीच उत्तर प्रदेश में एकता के लिए कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई। उत्तर प्रदेश में सारी ताकत मुलायम सिंह के साथ मोर्चा बनाने, उनसे तालमेल में गया। सारा पसीना  धर्म निरपेक्ष मोर्चे के लिए बहाया और हासिल के नाम पर शून्य। वे तो ऐसे तीसरे मोर्चे के रचनाकार रहे है जिसकी ड्राइविंग सीट पर वे मुलायम या जयललिता या नीतीश को बिठाते रहे और स्वयं महज पीछे से गाड़ी ढकेलने वाले बने रहना चाहते हैं। जैसे पिछले चुनाव में मायावती को बिठाया था। आखिरकार क्या हुआ उनके तीसरे मार्चे का? चुनाव आते आते उनके इस मोर्चे की हवा ही निकल गई। सारा कुछ बिखर गया।
 
यह सही है कि सरकार की नव उदारवादी नीतियों और सांप्रदायिकता के खिलाफ वामपंथ के नेतृत्व में ही संघर्ष हुआ है, हो रहा है। पिछले साल 21 व 22 फरवरी को आजादी के बाद की सबसे बड़ी हड़ताल का नेतृत्व वामपंथियों ने ही किया। सवाल है कि वह एकता जो नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध बनी, वह एकता चुनाव जैसे राजनीतिक संघर्ष में क्यों बिखर गई ? क्या ‘वामपंथ’ इस पर विचार करने को तैयार है? उत्तर प्रदेश जहां वामपंथ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है, ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं कि वामपंथी दल अन्य संघर्षशील लोकतांत्रिक ताकतों के साथ एकताबद्ध होते। कम से कम बिहार व उत्तर प्रदेश में तो वे एक साथ मिलकर कांग्रेस व भाजपा का मुकाबला करते। संभव है चुनाव में उन्हें कामयाबी नहीं मिलती लेकिन इससे वामपंथी कतारों व संघर्षशील जनसमुदाय में अच्छा संदेश जाता, वहं नवउदारवाद और फासीवाद से लड़ने का ही नहीं बल्कि वामपंथ के पुनर्जीवन का भी आधार बनता। लेकिन हमारे ‘वामपंथ’ की सारी ताकत अवसरवादियों के साथ एकता बनाने में गई। ऐसे में बनारस में वामपंथ की एकता और उसकी स्वतंत्र दावेदारी का राग बेसुरा सा लगता है।

 

कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच
लखनऊ

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