बिहार की तीन लोक सभा सीटें बेहद रोचक मुकाम पर है। ये सीटें है- छपरा, पाटलीपुत्र और सासाराम। छपरा में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी और भाजपा नेता राजीव प्रताप रूढी के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई है। एक ओर यादव मुसलमानों की सेना तो दूसरी ओर राजपूतो और अन्य सवर्णों समेत भाजपा का अन्य पिछड़ा वोट बैंक। दूसरी सीट है पाटलीपुत्र। लालू यादव की बड़ी बेटी मीसा भारती यहां से खड़ी है। दूसरी तरफ लालू यादव के हनुमान रहे राम कृपाल यादव भाजपा से लड़ रहे है। कह सकते हैं चाचा भतीजी में लड़ाई है। तीसरी सीट है सासाराम। मीरा कुमार यहां से लड़ रही है। उनके विरोध में बसपा से खड़ी है उनकी भतीजी माधवी कीर्ति। बिहार में खेल तो कई हो रहे है। लेकिन यह खेल सबको चैंकाएगाए रूलाएगा और हंसाएगा भी। हम इस बार आपको ले चलेंगे छपरा सीट की परिक्रमा कराने लेकिन सबसे पहले हिंदी पट्टी के दो प्रमुख राज्यों पर एक नजर।
आसन्न लोक सभा चुनाव को लेकर हिंदी पट्टी के दो राज्यों पर देश दुनिया की नजरें टिकी हुई है। ये दो राज्य है- बिहार और उत्तरप्रदेश। 40 सीटे बिहार की और 80 सीटे उत्तर प्रदेश की। इस बार के चुनाव में इन दोनों राज्यों को भाजपा अपने कवच के भीतर लाने में लगी है। भाजपा की सोंच है कि अगर इन दोनों राज्यों को अपने बस में कर लिया जाए तो नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता को संभाल लेंगे और देश की एकता और अखंडता को मजबूत करते हुए एक नए समाज की परिकल्पना मोदी और संघ के लोग करेंगे। लेकिन ये परिकल्पना तब की है जब चुनाव के बाद मोदी की अगुवाई में सरकार बनेगी। यह सोंच तब की है जब उत्तरप्रदेश और बिहार की राजनीति को भाजपा और संघ वाले अपनी ओर मोड़ लेंगे। लेकिन क्या यह इतना आसान है? क्या मोदी एंड कंपनी बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति को अपनी ओर मोड़ सकने की हालत में है?
सामाजिक व्यवस्था में बदलाव, जातीय और आपराधी राजनीति के लिए देश दुनिया में कुख्यात इन दोनों राज्यों के मिजाज को देखें तो साफ हो जाता है कि जिस चुनावी सर्वे के जरिए भाजपा सरकार बनाने का दावा करती फिर रही है उसके रथ को रोकने वाले भी उन्हीं दोनों राज्यों में विराजमान है। बिहार में नीतीश की सरकार है जो महादलित और पिछड़ों की राजनीति करती फिर रही है और उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार है जो यादव और मुसलमानों की राजनीति को आगे बढ़ाती फिर रही है। ऐसे में भाजपा को यह लगता है मोदी के नाम पर सपा के अन्य पिछड़ों को भी अपनी ओर लाने में सफल होंगे तो यह भी सत्य है कि इस प्रदेश में कम से कम इस चुनाव तक तो यादव और मुस्लिम समीकरण को तोड़ना उनके बस की बातें नहीं होगी। फिर बसपा की राजनीति अलग तरह की है। उसके साथ भी दलितों के साथ ही ब्राम्हणों की राजनीति जुड़ी है। फिर मोदी को यह भी याद रखना होगा की इस देश में पिछले दो दशक से पिछड़ों की राजनीति ही चलती रही है और देश में जितने क्षत्रप अपने अपने इलाके में राजनीति करते फिर रहे है उनमें 90 फीसदी उसी पिछड़ी जाति से आते हैं। फिर एक पिछड़ी जाति का नेता दूसरे पिछड़ी जाति के नेता को आगे कैसे बढ़ा सकता है?
तय है कि मोदी की पिछड़ी जाति की राजनीति का कोई लाभ इस चुनाव में नहीं मिलने वाला है। मोदी के साथ आज जो भी मिल रहे है या जो समर्थन करते दिख रहे है उसके पीछे का सच एक ही है। और वह सच है हिंदूवादी सोंच। मुस्लिम विरोधी राजनीति। यह बात और है कि भाजपा के लोग उपर से भले ही देश के मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने की बात कह रहें हो लेकिन मोदी समर्थकों के मन भी यह बात घर कर गई है। भाजपा का मुस्लिम प्रेम महज दिखावा भर है और सत्ता में आने के बाद मोदी वही करेंगे जो देश के हिदूओं के जरूरी होगा। कांग्रेस की राजनीति को थोड़े समय के लिए बौना भी कर दिया जाए तो क्या यह संभव है कि उत्तर प्रदेश के दलित, यादव, अन्य पिछड़े लोग और पढें लिखें लोग आंख मूंद कर मोदी के पक्ष में अपना वोट डाल देंगे? कतई संभव नहीं है। पिछले लोक सभा चुनाव में इस राज्य से भाजपा को 10 सीटें ही मिली थी और इस बार मोदी के पक्ष में राजनीति चली भी गई तो उसे 20 से ज्यादा सीटें नहीं मिल सकती।
इस बार के चुनाव में लालू एक बड़ा फैक्टर बन कर उभर रहे है। भाजपा और जदयू में विखराव के बाद अगर जदयू की राजनीति कमजोर हुई है तो भाजपा भी विश्वास के साथ नहीं कह सकती कि बिहार की कौन कौन सी सीटें वह जीत सकने की हालत में है। बिहार में इस बार की चुनावी राजनीति आंखें खोलने वाली हो सकती है। बिहार के भूगोंल, वहां की जमीनी हालत और बदलती राजनीति में लोगों के बदलते पैंतरे से साफ हो जाता है कि घोटालों के सिरमौर कहें जाने वाले लालू यादव भले ही इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे है लेकिन राजद की राजनीति बिहार की राजनीति को हांकने के लिए काफी है। लालू की राजनीति अगर निशाने पर बैठ गई तो संभव है कि राजद और कांग्रेस गठबंधन को 18 से 22 सीटें आ सकती है। भाजपा और उसके सहयोगी 10 से 12 सीटों पर सिमट सकते है और जदयू 8 से 10 सीटों पर आकर अटक सकती है। और अगर ऐसा हो गया तो मोदी की सारी राजनीति ढेर हो जाएगी। इस चुनाव में बिहार की नई राजनीति गढेंगे लालू यादव। इस बार वे चुनाव लड़ेंगे नहीं, लड़ाऐंगे। बिहार को नचाऐंगे और राजद-कांग्रेस की झोली में कम से कम 18 से 22 सीटें लाऐंगे। यह चुनाव लालू के लिए अस्तित्व की लड़ाई है और तय मानिए अगर लालू की राजनीति फिट बैठ गई तो केंद्र की राजनीति में लालू एक बार फिर किंग मेकर की भूमिका में दिखेंगे। आइए आपको ले चलते है छपरा लोक सभा सीट की ओर जहां लालू यादव अपनी पत्नी को राबड़ी देवी को मैदान में उतार रहे है।
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद छपरा की पहचान रहें हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वर्ष 1977 से लेकर अब तक हुए दस लोकसभा चुनावों में उन्होंने चार बार जीत हासिल किया है और दो अवसरों पर छपरा की जनता ने उनके प्रतीक स्वरुप एक बार लालबाबू राय को और दूसरी बार हीरा लाल राय को अपना सांसद चुना। वर्ष 2009 में छपरा की जनता ने लालू प्रसाद को उस समय जीत दिलायी जब एक तरह से वे विकल्पहीन हो चुके थे। उन्होंने पाटलिपुत्र और छपरा दोनों क्षेत्रों से ताल ठोंका था। पाटलिपुत्र के अखाड़े में उन्हें उनके ही सहयोगी रहे डॉ. रंजन प्रसाद यादव ने उन्हें करारी शिकस्त दे दी थी। वर्ष 1977 के बाद लालू प्रसाद छपरा की राजनीति के ध्रुव रहे हैं। वर्ष 1977 में लोकदल के उम्मीदवार के रुप में श्री प्रसाद पहली बार सांसद निर्वाचित हुए। उन्होंने कांग्रेस के रामशेखर प्रसाद सिंह को हराया। उनकी इस जीत की सबसे बड़ी खासियत जीत का अंतर था। लोकदल के दूसरे उम्मीदवार रामविलास पासवान ने 4 लाख से अधिक मतों से जीत दर्ज कर गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में अपना नाम सुनिश्चित भले किया हो लेकिन लालू प्रसाद ने जीत का अंतर का रिकार्ड बनाया था। वर्ष 1977 में श्री प्रसाद को 85.97 फीसदी और श्री सिंह को 8.61 फीसदी वोट मिले। यानी श्री प्रसाद ने करीब 77 फीसदी मतों के अंतर से जीत हासिल किया था।
हालांकि वर्ष 1980 के चुनाव में जेपी के शिष्यों में मची भगदड़ और कांग्रेस की लहर के बीच जनता पार्टी के उम्मीदवार सत्यदेव सिंह ने लालू प्रसाद को हरा दिया। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद श्री प्रसाद केवल 3 फीसदी मतों के अंतर से हारे। इस चुनाव में श्री सिंह को 41.18 फीसदी और समाजवादी जनता पार्टी के उम्मीदवार रहे लालू प्रसाद को 38.92 फीसदी वोट मिले। वर्ष 1984 का मुकाबला जनता पार्टी के रामबहादूर सिंह और कांग्रेस के भीष्म प्रसाद यादव के बीच हुआ। जीत का सेहरा राम बहादूर सिंह के माथे पर बंधा। लेकिन इसके बाद मंडल कमीशन का प्रभाव छपरा में साकार हुआ। जनता ने लालू प्रसाद को विजयी बनाया। उन्होंने जनता पार्टी के उम्मीदवार राजीव रंजन सिंह को डेढ़ लाख वोटों के अंतर से हराया। श्री प्रसाद के लिए यह जीत उनके लिए लकी साबित हुई। उन दिनों बिहार में सत्ता को लेकर कशमकश चल रहा था। फिर सूबे की राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू प्रसाद ने बिहार में सत्ता के शिखर पद को हासिल करने में सफलता हासिल की। वे बिहार के मुख्यमंत्री बन गये।
वर्ष 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में छपरा की जनता ने लालू प्रसाद के आह्वान पर लालबाबू राय को विजयी बनाया। लेकिन 1996 में छपरा की जनता ने छपरा को लालू का उपनिवेश मानने से इन्कार कर दिया और जीत का सेहरा भाजपा के राजीव प्रताप रुडी के माथे पर बंधा। उन्होंने लाल बाबू राय को करीब 2 फीसदी मतों के अंतर से पराजित किया। लालू प्रसाद के लिए छपरा में हार एक बड़ी हार थी। इसके बाद लालू प्रसाद ने छपरा की राजनीति पर अपना ध्यान केंद्रित किया और इसका परिणाम वर्ष 1998 के चुनाव में दिखा। राजीव प्रताप रुडी चुनाव हार गये और जीत लालू प्रसाद के प्रतिनिधि हीरा लाल राय को मिली। लेकिन वर्ष 1999 के चुनाव में बाजी एक बार फिर भाजपा के राजीव प्रताप रुडी के हाथ लगी। उन्होंने हीरा लाल राय को हराने में सफलता हासिल की। पायलट होने की खूबी के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने तब उन्हें अपने मंत्रिमंडल में बतौर नगर विमानन मंत्री के रुप में जगह दी। वर्ष 2004 और वर्ष 2009 में लालू प्रसाद ने श्री रुडी को पराजित कर जहां एक ओर राष्ट्रीय राजनीति में अपना दबदबा कायम रखा तो दूसरी ओर राजीव प्रताप रुडी भी राज्यसभा सदस्य के रुप में राजनीतिक आसमान पर चमकते रहे।
इस बार छपरा के अखाड़े में लालू प्रसाद स्वयं नहीं उतरे। चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के कारण वे चुनाव नहीं लड़े सकते हैं। उन्होंने इस बार अपने उत्तराधिकारी के रुप में अपनी पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को मैदान में उतारा है। राजीव प्रताप रुडी भाजपा के उम्मीदवार है। यानी लड़ाई अब भी पुरानी ही है। हालांकि परिस्थितियां नयी हैं। परिस्थितियां नई होने की वजह यह है कि सूबे में एनडीए बिखर चुका है। जदयू की ओर से भी उम्मीदवार मैदान में खड़े होंगे। इस प्रकार लालू प्रसाद के विरोधी मतों में विभाजन होना तय है।
बहरहाल, छपरा की असली राजनीतिक लड़ाई दो जातियों के इर्द-गिर्द ही सीमित रहती है। राजपूत और यादव। नये परिसीमन के बावजूद इस स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि छपरा सचमुच में लालू प्रसाद का अपना किला है जहां वे आराम से अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाये रखने में कामयाब होते आये हैं। सबकुछ लालू प्रसाद के नये सामाजिक समीकरण “माई़राजपूत” की मजबूती और विरोधी मतों में बिखराव पर निर्भर है।
लेखक अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।