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आवश्यक है चुनावों की वित्त पोषण प्रणाली का पारदर्शी होना

अपने घर से लेकर बाहर तक मैं चुनावों के दौरान अक्सर यह बात सुनता हूं कि हारने वाले उम्मीदवार को मत देकर लोगों ने मत ख़राब कर दिया। या चुनावों के बाद वे पछताते हुए पाये जाते हैं कि उन्होंने जिसे वोट दिया था वह तो हार गया और उनका वोट बरबाद हो गया। आखिर यह कैसी मानसिकता है? क्या तुलसीदास ने इसीलिए लिखा था 'समरथ को नहीं दोस गुसाईं'। इस मानसिकता का उत्स कहाँ है? यदि गौर से इस बारे में सोंचा जाये तो हम देखते हैं कि हम सांस्कृतिक गुलामी से कभी मुक्त नहीं हो पाये। कभी राजाओं, नबाबों की गुलामी, उनके कारिंदों, जमीदारों, जागीरदारों की गुलामी, तो कभी उच्च वर्ण की गुलामी, या फिर पुरुषवर्चस्व की गुलामी। अंग्रेजों की गुलामी, प्रशासनिक अमले की गुलामी, और भारतीय राजनेताओं की गुलामी। और सर्वोपरि धन की गुलामी।

अपने घर से लेकर बाहर तक मैं चुनावों के दौरान अक्सर यह बात सुनता हूं कि हारने वाले उम्मीदवार को मत देकर लोगों ने मत ख़राब कर दिया। या चुनावों के बाद वे पछताते हुए पाये जाते हैं कि उन्होंने जिसे वोट दिया था वह तो हार गया और उनका वोट बरबाद हो गया। आखिर यह कैसी मानसिकता है? क्या तुलसीदास ने इसीलिए लिखा था 'समरथ को नहीं दोस गुसाईं'। इस मानसिकता का उत्स कहाँ है? यदि गौर से इस बारे में सोंचा जाये तो हम देखते हैं कि हम सांस्कृतिक गुलामी से कभी मुक्त नहीं हो पाये। कभी राजाओं, नबाबों की गुलामी, उनके कारिंदों, जमीदारों, जागीरदारों की गुलामी, तो कभी उच्च वर्ण की गुलामी, या फिर पुरुषवर्चस्व की गुलामी। अंग्रेजों की गुलामी, प्रशासनिक अमले की गुलामी, और भारतीय राजनेताओं की गुलामी। और सर्वोपरि धन की गुलामी।

समाज में हर स्तर पर अनेकों भेद-विभेद हैं जो हमें बलशाली के इशारों पर विवश करते हैं, उसकी ओर आकर्षित करते हैं। उसका चरित्र और मानसिकता वहां गौण होती है उसकी शक्ति और प्रभाव प्रधान। उसके गुण अवगुण सब उसकी इस सामर्थ्य में छुप जाते हैं। चाहे भले ही वह अव्वल दर्जे का अपराधी ही क्यों न हो। जब मैं उन्हें समझाता हूँ कि चुनाव कराये ही इसलिए जाते हैं कि हम अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट करें वह हारे या जीते। अन्यथा चुनावों की क्या जरुरत है? जो बलशाली और पैसेवाला व रसूखदार प्रत्यासी हो उसी को जीता हुआ मान लिया जाये। ये पैसे का खर्च, समय की बरबादी, बेबजह का हो हल्ला, आरोप-प्रत्यारोप, गाली गलौज और बिना मतलब के तनाव आदि से बच जाये। विपक्ष की कोई आवश्यकता ही न रहे। जीतने वाला जो चाहे करे- सही-गलत, अच्छा-बुरा तब तो सब जायज होगा।

लोग ये बात सुनते हैं और यह मान भी लेते हैं कि चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है इसलिए सबको अपने अपने हिसाब से वोट डालने की आजादी है। इस तरह 'नोटा' विकल्प का तो कोई औचत्य ही नहीं है। अब संयोग से एक समझदारी भरा प्रश्न भी होता है कि चुनावों में बारी-बारी से हार-जीतकर चाहे किसी भी नाम वाली पार्टी की सरकार बनें, आखिरकार सत्ता व ताकत पर कब्जा तो कुछ ही 'माननीयों' का रहता है यह क्यों? तंत्र और व्यवस्था तो बदलती नहीं। यह भी स्पष्ट है कि इंसाफ के हक़ में जनता से उठने वाली हर सामूहिक आवाज को कुचलने के लिये सभी पार्टियों के नेता अपने सभी मनमुटाव, मतभेद, दुश्मनी भुलाकर सगे भाइयों की तरह तुरन्त एका कर लेते हैं। और विरोध करने वाले जागरूक लोगों को धमका कर झूठे मुकदमों में फंसाकर, जेलों में ठूंसकर, वक्त जरुरत हत्यायें कराकर, सुरक्षाबलों का नाजायज, गैरकानूनी इस्तेमाल कर, दंगे और  सामूहिक कत्ले आम तक करा देते हैं।

किसी भी आम आदमी को नक्सली, माआवादी, आतंकवादी या उग्रवादी का ठप्पा लगाकर जबरन मुजरिम बना लेते हैं। आज तो यही देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी हैं, व सबसे बड़ा सवाल भी। असल में मौजूदा भारतीय राजनीति में सब कुछ जायज है और सब कुछ क्षम्य। दिन रात झूठ बोलें फिर तुरत बदल जाऐं कहें क़ि उनकी बात को गलत तरीके से तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। चौराहे पर जाकर किसी को भी झूठे ही बदनाम कर दें और फिर माफी मांग लें तो आपका अपराध माफ। माफी मांगने से किया गया अपराध ‘न किया हुआ’ हो जाता है। यह सब ऐसा ही है जैसे कि आप पापकर्म भी करिए और गंगास्नान करके उस पाप से मुक्त भी हो जाइए। असल में हमारी प्रदूषित और भ्रष्ट चुनावी दौड़ को पैसा चलाता है जैसे रेस के घोड़े को पैसे का पर्याय माना जाता है।

वर्तमान में चल रहे ‘ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल सर्कस’ में छुटभैया नेता, जनसेवक, बड़े नेता और उनकी अपनी-अपनी पार्टियां चुनावों के लिए पैसा जुटाती हैं क्योंकि पैसा जुटाने का इससे बेहतर समय और क्या हो सकता है? फिर सत्ता में आने पर पांच वर्षों तक अकूत कमाई का जरिया बनता है, विपक्ष में रहने पर भी कुछ तो हाथ लग ही जाता है। यूं तो सरकार ने गत वर्षों में पार्टी के पैसों को विनियमित करने के लिए विधेयक लाने का प्रयास किया ताकि चुनावों के दौरान और अन्य समय में पार्टी के व्यय तथा उनके वितरण पर नजर रखी जा सके और इस राशि का नियमित लेखा-जोखा बनाया जा सके और उन लेखाओं को लेखा परीक्षा के लिए उपलब्ध कराया जा सके। यदि पार्टियां अपनी चुनाव विवरणी में इसकी गलत जानकारी देती हैं तो उनकी मान्यता समाप्त करने की धमकी भी दी गई किन्तु इस सबके बावजूद चुनावों की लागत बढ़ती गई।

यदि चुनाव के वित्त पोषण के लिए पारदर्शी प्रणाली होती है तो इससे सबसे बड़ा नुक्सान नेताओं को होगा और सबसे बड़ा लाभ आम लोगों को होगा। जब तक यह सुनिश्चित नहीं किया जाता है कि चुनाव के लिए पैसा कानूनी स्रोतों से प्राप्त हुआ है तब तक चुनावों में काले धन और निहित स्वार्थों के कुप्रभाव को कम करने की आशा नहीं की जा सकती है। राजनीति और उद्योगों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। कम्पनियों द्वारा दिया गया दान पार्टियों को चुनावों के लिए मिली राशि का एक अंशमात्र है। आज पार्टियां एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह कार्य करती हैं और उनके धन के स्रोत रहस्यमय हैं। ऐसी स्थिति में एक अच्छे जन प्रतिनिधि का चुनाव बहुत ही मुश्किल है तब मास्टर एंड फॉलोवर की गहरी पैठी मानसिकता से आम जान को निजात कैसे मिल सकती है? हमारे इस असंगत लोकतंत्र को अब इस व्याधि से मुक्त किया जाना आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है।

 

शैलेन्द्र चौहान। संपर्क : पी-1703, जयपुरिया सनराइज ग्रीन्स, प्लाट न. 12 ए, अहिंसा खंड, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद – 201014 (उ.प्र.), मो.न. 07838897877

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