Om Thanvi-
पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अपना कार्यकाल पूरा हुआ। कल कार्यालय में विदाई की औपचारिकताएँ पूरी कीं। सभी सहयोगी साथियों को एक-एक पत्र आभार और अपनी भूलों के लिए क्षमाप्रार्थना का लिखा। मित्रवर आदित्यनाथ को ज़हमत दी कि मुझे घर छोड़ेंगे। परंतु तभी स्पष्ट हुआ कि कार्यभार तो 7 को नहीं, 8 को सुपुर्द करना है! चलिए, आज सही।
आज प्रेमलताजी के साथ दिल्ली चले जाना था। अब कल जाना होगा। ख़ुद गाड़ी हाँकते हुए। वहाँ के घर का हाल पीछे बेहाल हो चुका है। संभाल आएँ। पर अब जयपुर नहीं छूटेगा। आना-जाना भले लगा रहे।
हालाँकि मन से मुझे विश्वविद्यालय से विदा जैसा कुछ अनुभव नहीं हो रहा। मैंने जनसत्ता में भी 26 वर्ष काम करने के बाद कोई विदाई समारोह नहीं होने दिया था, तो तीन वर्ष में कैसी विदा? हाँ, रोज़-ब-रोज़ की ज़िम्मेदारी अब नहीं रहेगी — यह सोचकर अपनी ओर से विश्वविद्यालय को मैंने 750 किताबें (मीडिया, साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति, दर्शन आदि) और 400 के क़रीब कुछ लोकप्रिय कुछ दुर्लभ रेकार्डिंग अपने निजी से संग्रह से भेंट की हैं। (देखें तसवीरें)।
दिल्ली जाकर अपने सिने-संग्रह से कुछ डीवीडी भी लेकर आऊँगा।
असल में विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के लिए निजी संग्रहों से योगदान प्राप्त करने की मैंने एक मुहिम छेड़नी चाही थी। इसके लिए मैं याचना करने सर्वश्री (स्व.) युगलकिशोर चतुर्वेदी, (स्व.) मेघराज श्रीमाली, सीताराम झालानी, विजय वर्मा, राजेंद्र बोड़ा आदि के घर गया। कुछ किताबें मिलीं भी। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली से तो एक हज़ार से ज़्यादा किताबें मिल गईं।
परंतु कोरोना के दुश्चक्र ने इस पुस्तक संग्रहण में अधिक सफलता अर्जित न होने दी। इस अभियान का प्रयोजन आर्थिक तंगी क़तई नहीं था; कई किताबें अब अप्राप्य हैं और हम उन्हें सदा अपने सामने नहीं चाहते तो क्यों न वे विद्यार्थियों-शिक्षकों के शिक्षण, शोध या संदर्भ के लिए काम आएँ — ऐसा सोच था।
मुझे बताते हुए ख़ुशी होती है कि दिल्ली से मित्रवर रवीश कुमार, दिनेश शर्मा, मुंबई से अनुराग चतुर्वेदी, चेन्नई से एएस पन्नीरसेल्वन, सोनीपत से इरपिंदर आदि ने भी मेरी अपील पर पुस्तक-सहयोग का वादा किया है। वह सामग्री भी विश्वविद्यालय को मिल जाएगी। शायद यह पोस्ट पढ़कर आप भी कुछ पठनीय, दृश्य-श्रव्य, संदर्भ सामग्री सहेजने के लिए विश्वविद्यालय को दें। इसके लिए कुलसचिव से [email protected] पर अथवा +91 141 2710121 पर संपर्क करने का अनुग्रह कर सकते हैं।
विश्वविद्यालय में दो वर्ष कोरोना में निकले। फिर भी हम डिप्लोमा, स्नातक, पीजी, पीएच-डी के कोर्स शुरू कर चुके। विश्वविद्यालय के लिए ज़मीन मिली, शिलान्यास भी हो गया। दिग्गज पत्रकार, ऐंकर, विद्वान यहाँ (ऑनलाइन-ऑफ़लाइन) आए, बोले और पाठ्यक्रम सृजन में मदद की। स्थायी शिक्षक और ऐड्जंक्ट, विज़िटिंग आदि अतिथि शिक्षकों ने अथक परिश्रम किया। विद्यार्थियों की संख्या भी संतोषजनक ढंग से बढ़ती गई। मुझे इससे किंचित तसल्ली का अनुभव होता है।
हाँ, कल विधानसभा में भाजपा विधायक वासुदेव देवनानी — जो प्रदेश के शिक्षा मंत्री भी रह चुके हैं — ने फिर कहा कि ओम थानवी पीएच-डी नहीं, फिर भी कुलपति बना दिया। कितने जागरूक राजनेता हैं, तीन साल बाद यह बात ख़याल आई? पर यह बात सही है। मैं स्वाध्याय और पठन-पाठन में विश्वास रखने वाला प्राणी हूँ। परंतु वे शायद अधिक पढ़े-लिखे हैं, मेहरबानी कर विश्वविद्यालय का ऐक्ट ज़रूर पढ़ लें — धारा 11(17) के अनुसार विश्वविद्यालय के संस्थापक (प्रथम) कुलपति के लिए पीएच-डी आदि की बंदिश नहीं है, पहली दफ़ा की योग्यता/अर्हता राज्य सरकार से मशविरा कर माननीय राज्यपाल ही तय करते हैं।
बहरहाल।
आज से मेरी लिखने की आज़ादी बढ़ेगी। पढ़ने का समय भी। ज़िंदाबाद।
विजय सिंह
March 9, 2022 at 4:53 pm
आपके अनुभव का लाभ समाज को मिलता रहेगा ,विशेष कर विद्यार्थियों को।
नई पारी के लिए अग्रिम शुभकामनाएं।