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सुख-दुख

ओम थानवी यात्रा संस्मरण : पेरिस में जेबकतरे बहुत हैं…

ओम थानवी-

पेरिस में जेबकतरे बहुत हैं। हर घड़ी फ़ोन-बटुआ-पासपोर्ट सँभालते रहिए। इटली इस मामले में ज़्यादा बदनाम है। मैं एक बार जेब कटवा चुका हूँ। पर ज़्यादा नुक़सान नहीं हुआ। पिताजी की सीख काम आई कि पैसा तीन जगह बाँट कर रखें, बटुए में न्यूनतम।

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यहाँ अच्छी बात यह हुई है कि बस-मेट्रो में चेतावनी के संदेश सरकार ख़ुद देती है। फिर भी सजग न रहे तो गए काम से।

छीना-झपटी वाले शिकारी भी बहुत हैं। मैं दो बार निशाना बनते बचा। पहली बार — जब कोई फोटो खींचकर सीधा हुआ था — एक शख़्स फुर्ती से नज़दीक आकर पीछे की ओर इशारा करते हुए फ़्रांसी भाषा में कुछ बोला। मैंने त्वरित बुद्धि से उसे संदिग्ध माना, अनसुना किया और हटकर आगे बढ़ गया। हो सकता है मैं किसी तरफ़ देखता और वह फ़ोन पर झपट्टा मारते हुए गलियों में भाग निकलता।

दूसरा क़िस्सा यह हुआ कि एक सुनसान-सी गली में पीछे से कोई नज़दीक आया और एक चमड़े के आवरण वाला आइडी लहराते हुए बोला, पुलिस; क्या आपने अभी वह कार पार्क की पीछे? मैंने पूछा कौनसी कार? वह बोला, अपना पासपोर्ट दिखाइए।

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कहना चाहिए था कि पासपोर्ट हमारे पास नहीं हैं, होटल में हैं। सूझा नहीं। पर मैंने कहा, किस कार की बात कर रहे हैं, यह तो पता चले। और मैंने कथित कार वाली दिशा की ओर क़दम बढ़ा दिए, सोचकर कि कुछ लोगों वाला इलाक़ा आ जाए, जो हम छोड़ आए थे। तब वह “पुलिस” वाला बोला, क्या आपके साथ कोई बच्चा भी था? हमने कहा, नहीं। तो फिर आप जाइए, और वह लौट गया।

सादी वर्दी समझी जा सकती है, पर उस बंदे में पुलिस वाला ठसका न था। असलियत कौन जाने। हो सकता है पहले वाले से मिला हुआ हो। पासपोर्ट झटककर ब्लैकमेल कर सकता था। लेकिन अनजान जगह पर क्या उलझना।

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हाँ, एक सबक़ लिया कि परदेस में हों तो गूगल के भरोसे छोटे रास्तों पर न चलें, भीड़ वाले मार्ग चुनें।


विनोद मेहता- Om Thanvi जी, बेहद कष्टकारी है विदेश में ऐसे हादसों का होना‌ । हम दोनों पति पत्नी के तो पासपोर्ट्स ही चोरी कर लिए गए थे तुर्की (अब तुर्किए) के एक पर्यटक स्थल Ephesus में। हम तो बड़ी तन्मयता से तस्वीरें खींचने में व्यस्त थे कि एक ऊंचे, तन्दुरुस्त कद- काठी के सज्जन ने अपना मोबाइल थमाते हुए हमें उनकी तस्वीरें खींचने का अनुरोध किया, दो तीन मिनट तो उनके मोबाइल का कैमरा ऑन करने में ज़ाया हुए (शायद उसमें भी कुछ लोचा था), तस्वीरें खींचते हुए हमें अपने कन्धे पर टंगे Sling Bag पर कुछ खिंचाव सा महसूस भी हुआ पर कुछ समझ नहीं पाए। ख़ैर उन्होंने हमें शुक्रिया कहा और अपना मोबाइल ले भीड़ में खो गए। कुछ देर बाद हमने अपना बैग संभाला तो देखा ज़िप खुली है,एक numbered lock लगे होने के बावजूद… और अन्दर की जेब में रखे दो लिफ़ाफ़ों में से एक ग़ायब… जिसमें दोनों पासपोर्ट्स थे । दूसरे में क़रीब एक हज़ार डॉलर थे जो सलामत था। बाद में समझ में आया कि फ़ोटो खिंचवाने वाले सज्जन अकेले नहीं थे,अपितु पूरा एक गैंग रहा होगा… इधर हमारा ध्यान बंटा, उधर उनके अन्य साथी ने हमारे बैग में रखे लिफ़ाफ़े पर हाथ साफ़ कर डाला। हालांकि उन्हें शायद डाॅलर्ज़ की दरकार थी! ये हमारी तुर्की और कुछ यूनानी द्वीपों की, दो सप्ताह की यात्रा का अन्तिम चरण था। शनिवार का दिन, इस्तांबुल से भारत वापिसी की फ्लाइट सोमवार सुबह की, और पासपोर्ट्स ग़ायब ! बहरहाल…भला हो हमारी स्थानीय… एक तुर्की युवती, बेहद स्मार्ट, आत्मविश्वास से लबरेज़….गाइड का । उन्होंने तत्काल हमें स्थानीय ‘टूरिस्ट पुलिस चौकी’ ले जाकर FIR दर्ज करवाई… और उधर हमारे भारतीय गाइड ने इस्तांबुल स्थित भारतीय कांसुलेट से सम्पर्क स्थापित किया…पूरी वस्तुस्थिति जानने समझने के बाद (और ये भी कि हम आकाशवाणी/सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी रह चुके हैं) वहां मौजूद डिप्टी कांसुलर, जो कि महिला थीं, विशेष रूप से रविवार को इस्तांबुल का कांसुलेट कार्यालय खोलने पर राज़ी हुईं । रविवार दोपहर को (श्रीमती जी संग) हम भारतीय कांसुलेट हाज़िर हुए। सारी औपचारिकताएं पूर्ण कीं, पासपोर्ट न होने की स्थिति में Emergency Certificate जारी करने का आवेदन करते हुए निर्धारित फ़ीस (डाॅलर्ज़ में) जमा की और तमाम clearances के बाद.. लगभग तीन घण्टे में… हमें तुर्की से निकल पाने का Emergency Certificate (एक लम्बा चौड़ा दस्तावेज़) हासिल हो पाया। अन्ततः हम सोमवार को अपनी निर्धारित उड़ान से वापस रवाना हुए… इस्तांबुल से दिल्ली वाया मास्को…
और जब दिल्ली पहुंचे तो एक सूटकेस ही ग़ायब (वो भी एक अलग कहानी है…. सूटकेस अगली किसी फ़्लाइट से पहुंचा…जिसे हमारे निवास पर डिलीवर किया गया… Travel Insurance में भी covered था) ! बहरहाल इस सारे घटनाक्रम से एक सबक सीखा… अब जब जब भी विदेश जाना होता है.. सबसे पहले अपने पासपोर्ट्स को होटल रूम के लॉकर में संभाल दिया करते हैं!

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