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सुख-दुख

पी7 के आंदोलनकारी पत्रकारों की इस छिपी प्रतिभा को देखिए

Yashwant Singh : आंदोलन अपने आप में एक बड़ा स्कूल होता है. इसमें शरीक होने वाले विभिन्न किस्म की ट्रेनिंग लर्निंग पाते हैं. सामूहिकता का एक महोत्सव-सा लगने लगता है आंदोलन. अलग-अलग घरों के लोग, अलग-अलग परिवेश के लोग कामन कॉज के तहत एकजुट एकसाथ होकर दिन-रात साथ-साथ गुजारते हैं और इस प्रक्रिया में बहुत कुछ नया सीखते सिखाते हैं. पी7 न्यूज चैनल के आफिस पर कब्जा जमाए युवा और प्रतिभावान मीडियाकर्मियों के धड़कते दिलों को देखना हो तो किसी दिन रात को बारह बजे के आसपास वहां पहुंच जाइए. संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम शुरू मिलेगा.

Yashwant Singh : आंदोलन अपने आप में एक बड़ा स्कूल होता है. इसमें शरीक होने वाले विभिन्न किस्म की ट्रेनिंग लर्निंग पाते हैं. सामूहिकता का एक महोत्सव-सा लगने लगता है आंदोलन. अलग-अलग घरों के लोग, अलग-अलग परिवेश के लोग कामन कॉज के तहत एकजुट एकसाथ होकर दिन-रात साथ-साथ गुजारते हैं और इस प्रक्रिया में बहुत कुछ नया सीखते सिखाते हैं. पी7 न्यूज चैनल के आफिस पर कब्जा जमाए युवा और प्रतिभावान मीडियाकर्मियों के धड़कते दिलों को देखना हो तो किसी दिन रात को बारह बजे के आसपास वहां पहुंच जाइए. संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम शुरू मिलेगा.

सब अपने अपने अंदाज में सुर लहरी बिखेरते मिलेंगे. पत्रकार आनंद दुबे समेत कई साथियों ने जी खोलकर गाया बजाया. पूरा माहौल कभी बेहद संजीदा होता तो कभी खिलंदड़पना से भरपूर. पत्रकारों के भीतर कैसी-कैसी प्रतिभा छिपी है, ये सब इस आंदोलन के दौरान उदघाटित हो रहा है. कोई घर से तबला ले आया तो किसी ने नग्मा सुनाते हुए टेबल को ही तबला में तब्दील कर दिया.  

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इस पूरे आंदोलन की खासबात ये है कि सब कुछ बेहद सहज भाव से घटित हो रहा है, बनावटी कुछ नहीं है, प्रायोजित कुछ नहीं है. ये पत्रकार जानते हैं कि उनकी लड़ाई लंबी हो सकती है इसलिए वे महीनों तक दो-दो हाथ करने के लिए तैयार बैठे हैं. इन पत्रकारों के गायन-वादन के कुछ अद्भुत वीडियो यहां दिया जा रहा है. देखिए और आनंदित होइए. वक्त लगे तो इनका समर्थन करने इन तक (C-55, Sector-57, Noida) पहुंच भी जाइए.

https://www.youtube.com/watch?v=RKF5r_M8pkU

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https://www.youtube.com/watch?v=lH11jjT9-Vs

https://www.youtube.com/watch?v=Zl_DN-Sq_fg

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https://www.youtube.com/watch?v=i170E_sH0C0

https://www.youtube.com/watch?v=19_OSS7xd5A

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भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.

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0 Comments

  1. kumar sweta

    December 29, 2014 at 11:50 am

    भास्कर न्यूज और पी 7 में चल रहे बवाल, धरने और पत्रकारों की स्थिति को देख कर मुझे 16 जनवरी 2014 की याद आने लगी है । शायद इस धरना में मौजूद कुछ पत्रकार बंधु मेरे साथ भी मौजूद रहे होंगे । मामला सैलरी के लिए संस्थान प्रबंधन और पत्रकारों के बीच चल रही खींच तान को लेकर है। शायद समय भी कुछ-कुछ वैसा ही दीखाई पड़ रहा है । पत्रकारों की स्थिति भी कुछ-कुछ वैसी ही है । लेकिन यह पता कर पाना थोड़ा मुश्किल है कि आख़िर इन मीडिया संस्थानों को इस कड़कड़ाती ठंड में पत्रकारों से क्या दुश्मनी हो जाती है, उन्हें हाड़ कंपकपाती ठंड में अपनी सैलरी के लिए गिड़गिड़ाना पड़ता है, दिन-रात ऑफिस के चक्कर काटने पड़ते हैं, ऑफिस प्रबंधन को गाली गलौच करने और घेरने को मजबूर होना पड़ता है। मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को अपनी-अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस बुलाना पड़ता है । पुलिस वाले मामला भी दोनों ओर की दर्ज करते हैं । लेकिन नतीजा रहता है सिफ़र। पत्रकारों को ठन-ठन गोपाल से ही संतोष करना पड़ता है।
    पिछले साल भी यही दिसंबर और जनवरी का महीना था। ठीक इसी तरह के ठंड में कंपकपाती हाड़ लिए, सैलरी पाने की आस में पत्रकारों की टोली नोएडा स्थित सेक्टर -65 के सी ब्लॉक में यानी ख़बर भारती न्यूज चैनल के अंदर और बाहर एचआर नामक जीव (जो वास्तव में नाम का ही था यानी उसे एचआर क्या होता है उसका ABC भी पता नहीं था) का चक्कर काट रहे थे । पत्रकारों की टोली में कुछ चाटुकार पत्रकार भी मौजूद थे, जो संस्थान प्रबंधन और विश्वसनीय पत्रकारों के बीच सेतू का कार्य कर रहे थे । उनके मुताबिक अन्य पत्रकार कभी सेक्टर 65 और कभी सेक्टर 63 स्थित ऑफिस के बीच डोल रहे थे । लेकिन संस्थान प्रबंधन के कान पर जूं तक नहीं रेंग रहा था। अन्त में पत्रकारों का सब्र टूटने लगा और संस्थान के एचआर नामक जीव पर धावा बोल दिया। दूसरे ऑफिस में मौजूद एचआर नामक जीव अपने अनुभव को दर्शाने के लिए ऑफिस पहुंचकर अपना अनुभव बताने लगे। लेकिन गुस्साए पत्रकारों को उनका अनुभव अच्छा नहीं लगा। और अनुभवी एचआर साहब को उनके गुस्सा का भाजन होना पड़ा। आख़िर सभी कहानी की तरह इस कहानी का भी पटाक्षेप होना ही था, सो हुआ। संस्थान प्रबंधन भी पत्रकारों के जज्बे के सामने पस्त हो गई । पूरी रात जागकर सभी पत्रकारों के चेक तैयार किए गए और बांटे भी गए। लेकिन पत्रकार फिर भी ठगे भी गए। हुआ यूं कि पत्रकार और संस्थान प्रबंधन के बीच तीन महीने के कंपनसेशन को लेकर लड़ाई थी जो अन्तत: एक महीने के कंपनसेशन पर ठप्प हुई। कई पत्रकार जॉब की तलाश में महीनों भटकते रहे, वहीं कुछ पत्रकार मित्र अब भी भटक रहे हैं।
    उपरोक्त घटनाओं में एक चीज स्पष्ट झलकती है कि हर दिन, सप्ताह, महीने और साल-दर साल मीडिया संस्थान, प्रबंधन और पत्रकारों के बीच सैलरी और बिना किसी कारण नौकरी से निकाले जाने का मामला सामने आता है। पुलिस में मामले भी दर्ज होते हैं, लेकिन ना तो किसी सरकारी नुमाइंदों का इस ओर ध्यान जाता है, और ना ही मीडिया संस्थान इस ओर कोई ठोक कदम उठाने की कोशिश करता हुआ दिखलाई पड़ रहा है।
    एक सवाल सभी के लिए है – क्या दुनिया में सभी शोषण के विरुद्ध खड़े होने को अपना धर्म समझने और खुद को बुद्धिजीवी वर्ग कहलाने में गौरवान्वित महसूस करने वाले पत्रकार वर्ग कभी अपने शोषण के विरुद्ध एकजूट होकर खड़े हो पाएंगे, क्या अपने हक़ के लिए मिल-जुलकर लड़ाई कर सकेंगे । या यूं ही दर-दर की ठोकरें खाकर काले धन वालों को व्हाइट करते रहेंगे।

    धन्यवाद दोस्तों, लड़ाई जारी रखें

  2. sweta kumar

    December 29, 2014 at 6:31 am

    सोलह आने सच, सामुहिकता में बड़ा बल होता है, और इसमें शरीक होने वाले भी विभिन्न किस्म की ट्रेनिंग लर्निंग पाते हैं, और ये महोत्सव सा भी लगता है,

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