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सुख-दुख

मित्ररंजन भाई, आपने पागुरप्रेमी पंकज परवेज का पुख्ता बचाव किया है

: पंकज परवेज का विलाप और किसी की जीत के जश्न का सवाल : किसी मित्ररंजन भाई ने अपने मित्र पंकज परवेज मामले पर जोरदार बचाव किया है। बचाव में घिसे हुए वामपंथी रेटॉरिक और शाप देने वाले अंदाज में परवेज भाई के चेहरे से नकाब खींचने वालों की लानत मलामत की गई है। लेकिन परवेज भाई की पवित्र और पाक क्षवि पर सवाल उठाने वाले लोगों को भाजपाई और संघी कहने का उनका अंदाज उस लिथड़ी हुई रजाई की तरह हो गया है जिसकी रुई की कई सालों से धुनाई नही की गई है। पार्टी और संगठन में असहमति और आलोचना पर संघी होने का ठप्पा लगा देने की रवायत बहुत पुरानी रही है। लेकिन दुर्वासा शैली में कोसने और गरियाने के बावजूद इस संगठन और पीछे की पार्टी का स्वास्थ्य दिनोंदिन खराब होता जा रहा है। लेकिन कॉमरेड लोग हैं कि मुट्ठी तानने / मारने में मशगूल हैं।

<p>:<strong> पंकज परवेज का विलाप और किसी की जीत के जश्न का सवाल</strong> : किसी मित्ररंजन भाई ने अपने मित्र पंकज परवेज मामले पर जोरदार बचाव किया है। बचाव में घिसे हुए वामपंथी रेटॉरिक और शाप देने वाले अंदाज में परवेज भाई के चेहरे से नकाब खींचने वालों की लानत मलामत की गई है। लेकिन परवेज भाई की पवित्र और पाक क्षवि पर सवाल उठाने वाले लोगों को भाजपाई और संघी कहने का उनका अंदाज उस लिथड़ी हुई रजाई की तरह हो गया है जिसकी रुई की कई सालों से धुनाई नही की गई है। पार्टी और संगठन में असहमति और आलोचना पर संघी होने का ठप्पा लगा देने की रवायत बहुत पुरानी रही है। लेकिन दुर्वासा शैली में कोसने और गरियाने के बावजूद इस संगठन और पीछे की पार्टी का स्वास्थ्य दिनोंदिन खराब होता जा रहा है। लेकिन कॉमरेड लोग हैं कि मुट्ठी तानने / मारने में मशगूल हैं।</p>

: पंकज परवेज का विलाप और किसी की जीत के जश्न का सवाल : किसी मित्ररंजन भाई ने अपने मित्र पंकज परवेज मामले पर जोरदार बचाव किया है। बचाव में घिसे हुए वामपंथी रेटॉरिक और शाप देने वाले अंदाज में परवेज भाई के चेहरे से नकाब खींचने वालों की लानत मलामत की गई है। लेकिन परवेज भाई की पवित्र और पाक क्षवि पर सवाल उठाने वाले लोगों को भाजपाई और संघी कहने का उनका अंदाज उस लिथड़ी हुई रजाई की तरह हो गया है जिसकी रुई की कई सालों से धुनाई नही की गई है। पार्टी और संगठन में असहमति और आलोचना पर संघी होने का ठप्पा लगा देने की रवायत बहुत पुरानी रही है। लेकिन दुर्वासा शैली में कोसने और गरियाने के बावजूद इस संगठन और पीछे की पार्टी का स्वास्थ्य दिनोंदिन खराब होता जा रहा है। लेकिन कॉमरेड लोग हैं कि मुट्ठी तानने / मारने में मशगूल हैं।

पंकज परवेज ने फेलोशिप के पैसों से अपने दलिद्दर साथियों को पाला। उन पैसों से  भुखनंगों को दाल-भात भकोसने का इंतजाम किया, उनके लिए किताबें खरीदीं। घर पर अकूत संपत्ति होने के बावजूद पत्रकारिता करने के लिए अमर उजाला में दो कौड़ी की नौकरी की। 17 सालों तक संघर्ष किया और फिर दो लाख रुपये के छोटे से पैकेज पर पहुंचे। संघर्ष के दिनों में सपत्नीक मित्ररंजन भाई के घर पर बारहा हाजिरी लगाई। क्या इतना काफी नहीं है परवेज भाई को ‘लाल-रत्न’ घोषित कर देने के लिए ? कमाल करते हैं थेथर लोग। परवेज भाई पर तोहमत लगा रहे हैं कि किसी को नौकरी क्यों नहीं दिलवाई। ऐसे चिरकुट अपने करियर में ताउम्र प्याज छीलते रहे तो क्या इसके लिए परवेज भाई या संगठन जिम्मेदार है? अपनी ‘काहिली’ और ‘गतिशीलता’ में कमी के चलते उपजी दुश्वारियों का ठीकरा संगठन के सिर फोड़ लेने से ऐसे फरचट और चित्थड़ लोग क्या खुद अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे?….गजब…जियो रजा बनारस..मजा आ गया।

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परवेज भाई पर उठी हर उंगली पार्टी और संगठन पर उठी उंगली है, लिहाजा सभी चिलमचट्टू कामरेडों को चेतावनी दी जाती है कि अब अगर किसी ने परवेज भाई के कुर्ते की लंबाई एक बिलांग भी छोटी करने की कोशिश की तो उनको ‘मोदी आर्मी का सिपाही’ घोषित कर उनका श्राद्ध कर दिया जाएगा। फिर आप अखिलेंद्र प्रताप सिंह और लालबहादुर सिंह की तरह न घर के रहेंगे न घाट के। माना कि हमने संगठन के लिए ढपली बजाने के काम में आपको जोत दिया। माना कि आप दिन रात संगठन के लिए दरी-कनात बिछाते रहे और हमलोग उस पर जमकर प्रवचन भी करते रहे तो इसमें हमारा क्या दोष है। मजदूर मक्खी अगर रानी मक्खी बनने की कोशिश करेगी तो मक्खियों की वंशवेल कैसे बढेगी। मजदूर कामरेड अगर मालिक कामरेड बनने की कोशिश करेगा तब तो चल चुका संगठन। डिसीप्लीन सीखिए कामरेड…डिसीप्लीन।

‘डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म’ सवाल खड़ा करने वाला दुष्ट है, पापी है, खल है। ऐसे खलों की खाल से खंजड़ी बजाना पार्टी और संगठन का बुनियादी उसूल है। संगठन के पूज्यनीय साथियो में से एक ‘साथी शिरोमणि पंकज परवेज’ पर की गई टीका टिप्पणी से पार्टी और संगठन की आस्था पर चोट पहुंचती है। जनमानस में रची बसी उनकी छवि को धुलिसात करने पर संगठन ऐसे गरीब, टुटपूंजिया,  भगोड़े और अल्पज्ञ साथियों की दुर्दशा पर संतोष प्रकट करता है और अपने हरेक महामंडलेश्वर से प्रार्थना करता है कि उक्त श्रेणी के साथियों के साथ किसी प्रकार का कोई स्नेह न जताया जाए। जिस भी महामंडलेश्वर ने अपनी अभूतपूर्व ‘गतिशीलता’ से (येन केन प्रकारेण) किसी लाले की दुकान में कुर्सी हथिया ली है वो लाला के आगे लहालोट होकर कुर्सी से चिपक कर बैठे रहें और यदा कदा अपनी सहूलियत से संगठन के पक्ष में ‘मुखपोथी’ का पारायण करते रहें। इस दरम्यान उनका संगठन से पूर्व में जुड़े किसी भी किस्म के चिरकुट साथी से मेलजोल अपेक्षित नहीं है। अपितु स्पृहणीय तो यह होगा कि ऐसे गतिशील और जुगाड़ू साथी अपने आस-पास किसी नौकर श्रेणी के कामरेड को तो बिल्कुल भी न फटकने दें जिनकी संगत से उनकी प्रतिष्ठा धूमिल होती है। ध्यान रहे ऐसे नौकर कामरेडों की जरूरत सिर्फ उस वक्त के लिए है जब स्टार साथी किसी मुसीबत में फंस जाएं। मुसीबत के वक्त बस आपको अपनी मुट्ठी को मीडिया की मुड़ेर पर टांग देना होगा। फिर देखिएगा कैसे रुदालियों का रेवड़ सियापा करते हुए आपके पृष्ठ भाग के भगंदर पर भौकाल काट देगा।

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मित्ररंजन भाई आपने पागुरप्रेमी पंकज परवेज का पुख्ता बचाव किया है। लेकिन साथी, भकरभांय में वाममार्ग के वचनामृत वमन से आगे जहां और भी है। आपको पंकज परवेज पर प्रहार करने वालों की सोच पर तरस आता है कि संगठन को ये लोग प्लेसमेंट एजेंसी समझते रहे। मित्ररंजन भाई आप जिस दो कौड़ी के एनजीओ के जुगाड़ में लगे हैं वहां से आप इससे आगे सोच नहीं सकते, हम इस बात को समझते हैं। मित्र पहली बात तो ये कि आपने जिस टिप्पणी करने वाले का परिचय पूछा है वो मैं हूं। और दूसरी बात ये कि मैं कभी आपके प्यारे मित्र पंकज परवेज से नौकरी मांगने नहीं गया और ना उनको पैरवी करने के लिए कभी फोन किया। मैं अपने खुद के व्यवसाय से अपना जीवन जी रहा हूं। लेकिन मैं आज भी उन सच्चे साथियों की संगत में रहना पसंद करता हूं, जिन्हें मैने बेहद सुलझा और स्वाभिमानी पाया। उन लोगों से पंकज जैसे न जाने कितने पेंदी रहित पाखंडियों की कारगुजारियों के बारे में खबरें मिलती रहती हैं। कि कैसे फलां उस भगवा चड्ढी के सामने लंगोट उतारकर लोट लगा रहा है, कैसे ढिमाका उस कुक्कड़खोर कनकौए कांग्रेसी की कदमबोशी में झुका हुआ है। कुल जमा ये कि कामरेड लोग कंबल ओढ़कर घी पी रहे हैं और फेसबुक पर क्रांति पेल रहे हैं। कोई हर्ज नहीं है लगे रहिए, छककर छानिये फूंकिए लेकिन भाई जब पेंदे पर लात पड़की है तो “साथियों साथो दो” का नारा क्यो ?

लेखक के. गोपाल से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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