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खुद करोड़ों का पैकेज लेने वाले संपादक पत्रकारिता के मिशन का बोझ दूसरों के कंधों पर डाल देते हैं!

-अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-

मीडिया की अपनी आखिरी नौकरी बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार में करते समय लगभग हर मीटिंग में हमारे ग्रुप एडिटर अशोक कुमार भट्टाचार्य उर्फ एकेबी कहा करते थे- हम यहां पैसे कमाने नहीं आये हैं। हम लोग पत्रकार हैं। हम पढ़े लिखे लोग हैं। पैसे ही कमाने होते तो वह तो हम सरसों का तेल बेचकर ही खूब कमा लेते। इतना पढ़-लिखकर यहां इस फील्ड में क्यों आते?

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ऐसा ही कुछ मैंने बड़े नामी- गिरामी पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी के मुंह से तब सुना था, जब वह IIMC में पत्रकारिता करने के दौरान हम सभी छात्र छात्राओं को एक कार्यक्रम में अपने विचार बता रहे थे। उन्होंने भी पत्रकारिता को मिशन बताते हुए यह कहा था कि अगर पैसे कमाने की उम्मीद से आप लोग इस फील्ड में आये हैं तो आप बहुत बड़े भुलावे में हैं।

दिलचस्प बात देखिए कि एकेबी हों या प्रभाष जोशी, ये लोग जो वेतन लेते रहे होंगे, उस स्तर का वेतन संभवतः मल्टी नेशनल कंपनियों के शीर्ष पर बैठे लोग ही पा पाते होंगे… और जिन युवा पत्रकारों को ये लोग यह ज्ञान दे रहे होते थे कि पैसा और पत्रकारिता, दोनों दिन और रात की तरह अपोजिट हैं या पत्रकारिता एक मिशन है… वे सब पत्रकार किसी छोटे-मोटे चाय-पान वाले के बराबर मंथली कमाई वाली नौकरी के लिए भी संपादकों के आगे दिन रात नाक रगड़ते रहते थे।

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खुद मैंने बड़ी मुश्किल से टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में छह हजार महीने पर ट्रेनी जर्नलिस्ट की नौकरी पाई थी। फिर पांच साल वहां नौकरी करके किसी तरह 12-15 हजार तक पहुंचा था। फिर मात्र दो साल में हिंदुस्तान टाइम्स और बिज़नेस स्टैंडर्ड अखबार में जाकर पद में बढ़िया जम्प मारने के साथ-साथ वेतन में छह हजार से दस गुना वृद्धि पा ली थी। मेरी नजर में यह ऐसी ग्रोथ थी, जिसे मैं आज भी अपने जीवन की बड़ी कामयाबियों में गिनता हूँ।

लेकिन मुझे यह भी पता है कि कई अन्य क्षेत्रों में बड़े बड़े मुकाम हासिल करने वाले लोग हंसते हुए कहेंगे कि यह कौन सी कामयाबी है…. क्योंकि उनमें से बहुतों को इस बात का अन्दाज़ा भी नहीं होगा कि शून्य से शिखर पर पहुंचने में सबसे ज्यादा मुश्किल अगर कहीं आती है तो वह शून्य से पहले दस पायदान तक ही आती है। इसलिए मेरे लिए भी छह हजार महीने की कमाई से साठ हजार महीना कमाई पहुंचाना ही सबसे बड़ा चैलेंज था।

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हालांकि 2008 में पहली नौकरी के महज सात साल में आते-आते दस गुना वृद्धि पा लेने के बावजूद अगले एक- दो साल के भीतर ही एक दौर ऐसा भी आ गया, जब मुझे यह लगने लगा कि इसके आगे का रास्ता अब मुझे तय ही नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह जिस मंजिल पर ले जा रहा है, वहां जाकर भी मैं असंतुष्ट ही रहूंगा।

तब तक मैं यह भी जान चुका था कि एक मीडिया संस्थान से दूसरे संस्थान में महज दो तीन जम्प और मार लेने के बाद मैं पत्रकारिता की नौकरी के उस चरम पर पहुंच सकता हूँ, जिसे पाने के बाद आगे बढ़ने के रास्ते भी तकरीबन बंद या बेहद कम हो जाते हैं….

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पद के रूप में कहें तो मेहनत, टैलेंट आदि के जरिये स्थानीय संपादक स्तर के पद तक पहुंचने के बाद सिर्फ ग्रुप एडिटर या एडिटर इन चीफ टाइप के वही पद ही बचे रह जाते हैं, जिस पर राजनीतिक कृपा से ही कोई पहुंच पाता है। वहां साल का पैकेज करोड़ में गिना जाता है तो भरपूर रसूख, सुविधाएं और जबरदस्त यश भी वहां पहुंचकर मिल जाता है, इसमें कोई दो राय नहीं है…..मगर यह भी सच है कि बेहद कम ही लोग वहां तक पहुचंते हैं और पहुंच भी गए तो उम्र बीत जाती है, उस मुकाम को पाने में।

जाहिर है, फ़िल्म इंडस्ट्री में अमिताभ बनने का सपना लेकर सभी जाते हैं मगर किस मुकाम तक कोई अभिनेता पहुंच पायेगा, इसका अंदाजा बरसों के स्ट्रगल के बाद ज्यादातर को हो ही जाता है। लिहाजा, मैं भी जान गया था कि लाखों रुपए महीने के पैकेज पर पहुंचकर साल का पैकेज करोड़ में गिने जाने वाले पद पर शायद ही मैं पहुंच पाऊं। वहां पहुंचने के लिए राजनीतिक वरदहस्त तो मुझे भी मिल सकता था लेकिन अपने स्वभाव या सोच के कारण वहां पहुंचकर टिक पाना तो मेरे जैसे स्पष्टवादी स्वभाव के व्यक्ति के लिए असंभव ही है।

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फिर मुझे यह भी लगने लगा कि अगर अगले कुछ बरसों में जम्प मारकर मैंने लाखों रुपये महीने की नौकरी पा भी ली तो भी दिल्ली जैसे महानगर में एक मकान, बढ़िया गाड़ी, बैंक बैलेंस आदि की ख्वाहिश या अन्य आर्थिक जिम्मेदारियों की चक्की मुझे ऐसा नाच नचाती रहेगी कि न तो पत्रकारिता मेरे भीतर बची रह पाएगी और न ही मैं जिंदगी का आनंद उठा पाऊंगा। जाहिर है, लाखों रुपये की नौकरी बचाने के लिए दिन रात जूझना होगा जबकि मैं घूमते-फिरते रहकर और तनावमुक्त होकर पैसे कमाना चाहता हूँ।

इसी सोच के कारण मैंने खुद का बिज़नेस करके पैसे कमाने का इरादा कर लिया। सोच लिया कि चाहे सरसों का तेल बेचकर ही करोड़ों न भी आ पाए लेकिन काम तो अब वही करूंगा, जिसमें कमाने के साथ – साथ जिंदगी का आनंद भी तो ले सकूं। मिशन का मुहावरा सुना सुनाकर हमारे नाजुक कंधों पर ही पत्रकारिता को मिशन बनाने का सारा बोझा सौंप कर खुद करोड़ों का पैकेज लेने वाले महानुभावों के झांसे में नहीं आना है।

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उसके बाद 2010 में मैंने मीडिया की नौकरी छोड़ दी… मजे की बात देखिए कि अपना रियल एस्टेट बिज़नेस करते ही पहले साल में ही मुझे पता चल चुका था कि दरअसल पत्रकारिता को मिशन या करियर समझकर मैं मीडिया में गया ही नहीं था….नौकरी करते वक्त ईमानदारी बरतने के बावजूद कहीं भीतर मेरे भी मन में मजबूत आर्थिक स्थिति पाने की दबी हुई लालसा तो थी ही…..मगर एकेबी या प्रभाष जोशी जैसे लोगों की पर उपदेश, कुशल बहुतेरे जैसी बातों को ही सच मान लेने के कारण मुझे अपनी उस लालसा का कभी स्पष्ट अंदाजा ही नहीं लग पाया…वैसे, यह भी सच है कि मिशन समझ कर पत्रकार बनने का दावा करने वाले कई लोग मीडिया में जो गंदगी फैलाये हुए हैं, उनसे उलट मैं अपने पूरे करियर के दौरान एक ईमानदार, मेहनती और तकरीबन निष्पक्ष पत्रकार ही रहा था…

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