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सुख-दुख

लखनऊ में कूटे गए पत्रकार तो हंगामा क्यों बरपा?

सत्येन्द्र कुमार-

पत्रकारों का संगठन अन्य सभी संगठनों के मुकाबले सबसे ज्यादा कमजोर और सर्वाधिक स्वार्थी है!

किसी पत्रकार ने यह भी नहीं पूछा कि भइया ! हमें सरेआम क्‍यों कूटा ? : इसे ऐतिहासिक हादसा ही कहेंगे कि सचिवालय में पत्रकारों पर थप्‍पड़ों की संवैधानिक बारिश किसी मौसम विशेषज्ञ के पूर्वानुमान के बगैर ही कुछ यूँ हो गयी कि अगली बार यही हादसा राजभवन में हो जाये तो चौकने की जरूरत नहीं है । सूचना निदेशक ने पत्रकारों को शांत कराया और लोकतंत्र का चौथा खंभा सांझ ढलते ही पूरा खंभा मारकर हमेशा की तरह शांत भी हो गया । अजीब सी विडंबना है कि जिस पत्रकारिता का जन्म उन दबे कुचले आवाजों और मुद्दों को उठाने के लिए हुआ था वही पत्रकारिता आज अंधे बहरे और गूंगों की मानिंद धंधे पर बैठी हुई है । फिर लखनऊ में जो हुआ तो उसपे इतना हंगामा काहे बरपा?

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रोज रोज की पीड़ा से व्यथित आम आदमी की पीड़ा आज खबर की शक्ल अख्तियार नही कर पाती … और पत्रकार जब इन खबरों की जगह करीना कपूर के गार्डन से तैमूर ने आज मूली तोड़ी जैसी खबर को ट्रेंड कराने लगते हैं है….. तो मन करता है कि तैमूर से वही मूली लेकर संपादक जी की तरबूज में ठोंक दूं….. !

पत्रकारिता ने अपनी पूरी तरह से नसबंदी करा ली है । अच्छा भी है नही तो आने वाली पत्रकारिता की नस्लें भी ऐसी ही पैदा हो जाती जैसी आज हैं । आज रोज रोज आम आदमी के तरबूजों में जो लट्ठ रेला जा रहा है ,उस खबर से पत्रकारिता पूरी तरह बाख़बर तो है, लेकिन जानबूझकर बेखबर बनी हुई है ।

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झूठ बोलकर, आत्मसम्मान से समझौता कर और कटोरी में तेल लेकर रोज लगाना शुरू कर देता तो मैं भी चाँद पर चला जाता ! कटोरी में तेल लेकर तेल लगाने वाले चरण चाटूकारों की उस लंबी लाइन में मैं भी खड़ा हो जाता लेकिन जब देखा कि तेल लगाने वालों की लाइन इतनी लंबी है कि चार साल बाद भी मेरा नंबर आना मुश्किल है तो मैंने तेल की कटोरी की जगह कैमरा कागज और कलम पकड़ कर एक ऐसी नई लाइन लगानी शुरू कर दी जिस लाइन में खड़ा होने के लिए आत्मसम्मान और जमीर का जिंदा रहना ही एकमात्र विकल्प है ।

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज पत्रकारों का संगठन अन्य सभी संगठनों के मुकाबले सबसे ज्यादा कमजोर और स्वार्थी सिर्फ इसलिए बन चुका है क्योंकि यहाँ एक पत्रकार ही दूसरे पत्रकार का सबसे बड़ा दुश्मन है । यदि किसी भी पत्रकार के साथ घटे किसी भी घटनाक्रम की बारीकी से जाँच कर ली जाए तो कोई न कोई चरण चाटुकार उस घटनाक्रम से जुड़ा हुआ पर्दे के पीछे खड़ा मिल ही जायेगा । आज की पत्रकारिता मन की नही धन की सुनती है और जब पत्रकारिता मन के बदले धन की सुनना शुरू कर दे तो समझिए उसका सम्पूर्ण पतन निश्चित है तथा लखनऊ का ताजा घटनाक्रम उस पतन का आगाज है।

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लेखक सत्येंद्र गोरखपुर के खोजी पत्रकार हैं.

मूल खबर-

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