जयशंकर गुप्त-
उल्टी पड़ गई सब तदबीरे॔…. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के चुनाव में हम लोगों के उमाकांत लखेड़ा पैनल की शानदार जीत। क्लब के सभी पांच पदाधिकारी और प्रबंध समिति के सभी 16 सदस्य इस पैनल के ही भारी बहुमत से चुनाव जीते। ‘गोदी मीडिया’ और आइटी सेल भी सदमे में!
कुछ अन्य प्रतिक्रियाएँ देखें-
अनिल जैन-
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया सत्ता के जबड़े में जाने से फिर बच गया। सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े संगठनों ने इस बार प्रेस क्लब पर कब्जे के लिए अभूतपूर्व ताकत झोंकी थी। शराब और पैसा पानी की तरह बहाया गया।
चुनाव में वोट डालना था प्रेस क्लब के सदस्यों को लेकिन बैनर-होर्डिंग्स दिल्ली के विभिन्न इलाकों में लगाए गए थे, जैसे विधानसभा या लोकसभा का चुनाव हो। मंत्री, संतरी, प्रचारक आदि भी सक्रिय थे।
सत्ता प्रायोजित पेनल के उम्मीदवारों की ओर से तरह-तरह के वादे किए गए थे-सामूहिक तौर पर भी और निजी तौर पर भी।
अफवाहें फैलाने और विरोधियों का चरित्र हनन करने के लिए कुख्यात सत्तारूढ़ दल का आईटी सेल और सत्ता के इशारे पर गिरे से गिरा काम करने के लिए तत्पर रहने वाले बेखबरी टीवी चैनलों के कारिंदों ने भी अपने आपको झोंक रखा था।
लेकिन सारी हिकमत अमली नाकाम रही। अध्यक्ष सहित पांचों पदाधिकारियों और 16 सदस्यीय प्रबंध समिति में एक भी पद सत्ता प्रायोजित पेनल को नहीं मिला।
संदीप ठाकुर-
प्रेस क्लब चुनाव में हार की समीक्षा
बीजेपी नेता व पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपई ने कहा था की कभी कभी सही आदमी गलत पार्टी में चला जाता है। वही मेरे साथ हुआ और मैं प्रेस क्लब का चुनाव हार गया। दरअसल जिस रासबिहारी पैनल से मैं लड़ा उस पर ठप्पा बीजेपी का है। संजय बसाक भी बीजेपी के करीब हैं। ये चर्चा शुरू से थी की हमारा पैनल बसाक पैनल को नुकसान और सत्तारूढ़ पैनल को फायदा पहुंचाएगा।
हमारे नेता कह भी रहे थे कि हम हराने के लिए खड़े हुए हैं बसाक पैनल को। वही हुआ। दोनों पैनल के बीच पैच अप की नाकाम कोशिश भी हुई, लेकिन बात बनी नहीं। जहां तक मेरी बात है तो मेरा कोई पॉलिटिकल कमिटमेंट नहीं है। मेरी कोई विचारधारा है नहीं। न बीजेपी न कांग्रेस।
पत्रकारिता इस समय तीन विचारधाराओं में बंटी हुई है ….आप सत्ता पक्ष के बारे में लिखो तो भाजपाई, खिलाफ लिखो तो कांग्रेसी और लिखो तो वामपंथी। मैं किसी विचारधारा में नहीं बंधा हूं। जो है वह लिखता हूं….यानी महंगाई है तो महंगाई लिखता हूं। बिरादरी के बीच लेखनी मेरी पहचान है। लेकिन पीसी के चुनाव में मैं भाजपाई छवि वाले पैनल से खड़ा हो गया। सिर्फ दोस्ती की खातिर। नतीजे चौंकाने वाले आने ही थे और आए।
बीजेपी विचारधारा के अधिकांश पत्रकारों ने मुझे वोट नहीं डाला,ये समझ कर कि ये अपने खेमे का तो है नहीं। उधर सत्ता विरोधी पक्ष के पत्रकार भी दुविधा में रहे कि ये लड़ तो बीजेपी विचारधारा वालों के साथ है। फिर हम वोट क्यूं डालें ? कइयों ने मुझे फोन किया…..कहां फंस गए आप। रासबिहारी के साथ कैसे ? और यह सोचते हुए अधिकांश ने वोट नहीं किया। यानी मुझे पैनल वोट नहीं के बराबर मिला। नतीजा, मैं हार गया।
जितना वोट मुझे मिला वो मेरे उन पर्सनल जान पहचान वालों से जिन्होंने विचारधार से उपर उठ कर वोटिंग की। उनका धन्यवाद। उनका वोट बर्बाद हुआ इसके लिए सॉरी। खैर,प्रेस क्लब दो विचारधारों में बंटा हुआ है। वामपंथी और दक्षिणपंथी। जीत वामपंथियों की हुई है। क्या फर्क पड़ता है। कोई जीते , कोई हारे। लेकिन सोच ये नहीं है। खेमेबाजी पूरी है। चुनाव से पहले सोशल मीडिया पर कुछ वरिष्ठ पत्रकारों व लेखकों की लखेड़ा विनय पैनल को जिताने की अपील इस बात का प्रमाण है। प्रेस क्लब में जीत सत्तारूढ़ पैनल की हुई। कैसे….ये एक अलग कहानी है, फिर कभी।
Sarjana Sharma
May 24, 2022 at 12:10 pm
It is a fashion to be leftist but it crime to be a sanghi . A red card holder is not ashamed of being a vampanthi journalist .but how dare a sanghi journalist make their panel and contest. It is like thakur sahibs and thakuraiens of press clubs have the right to contest . And they think — you sanghis how dare you contest it is our birth right. They are lutien delhi thakurs and thakuraiens. In villages a dalit son can not climb ghodi in his wedding same is the case here in press clubs .they talk as if being sanghi is a crime