हमारे देश में प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं होता है। आम जनता संसद के निचले सदन लोक सभा के लिए सदस्यों का चुनाव करती है और चुने गए सदस्यों में सबसे बड़े दल का नेता प्रधानमंत्री होता है। अगर किसी एक दल को बहुमत न मिले तो भिन्न दलों का समूह अपना नेता चुनता है वही सरकार बनाने का दावा करता है। राष्ट्रपति को यह दावा भरोसेमंद लगे तो सरकार बनाने का मौका मिलता है हालांकि, चुने गए नेता या प्रधानमंत्री को सदन में अपना बहुमत साबित करना होता है। अटल बिहारी वाजपेयी चुने जाने के बावजूद सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाए और उन्होंने 13 दिन की सरकार चलाने का रिकार्ड बनाया है। इससे अलग, 2004 में चुनाव के बाद कांग्रेस को बहुमत मिला था और कांग्रेस संसदीय दल ने सोनिया गांधी को अपना नेता मानता था और सोनिया गांधी का विधिवत प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था।
भाजपा ने इसका जोरदार विरोध किया। सुषमा स्वराज इसमें सबसे मुखर रहीं और आखिरकार सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं। गुजरात दंगों के समय मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी को 2014 चुनाव के लिए भाजपा ने अचानक प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना दिया। यह चुनाव प्रधानमंत्री पद के दावेदार के नेतृत्व में लड़ा और जीता गया। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को एक योग्य प्रशासक, कुशल वक्ता, हिन्दू हृदय सम्राट और न जाने क्या-क्या प्रचारित कर प्रधानमंत्री पद के लिए “सुपात्र” बना दिया है और इसमें लगातार लगी हुई है। इस बार भी पार्टी भाजपा के लिए वोट मांगती हुई कम और नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए ज्यादा सक्रिय लगती है। पार्टी के स्तर पर यह भाजपा का अंदरूनी मामला हो सकता है लेकिन एक बड़ी और जिम्मेदार पार्टी के लिए ऐसा करना गलत ही नहीं अनैतिक भी है।
मुमकिन है, अखबारों के लिए इसका विरोध करना संभव न हो पर इसका समर्थन करना जरूरी नहीं हो सकता है। फिर भी, देश का नंबर 1 और विश्वसनीय अखबार दैनिक भास्कर अपने पाठकों से कह रहा है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदारों से सवाल पूछिए। कोई स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दे, उसके समर्थक पीछे-पीछे नारा लगाने लगें तो यह जरूरी नहीं है कि इसे स्वीकार कर लिया जाए। और उसे तो आप कर भी लें पर जो दावा नहीं कर रहा उसे उसके मुकाबले जबरदस्ती खड़ा करने का क्या मतलब? अखबार के लिए पाठकों के बीच प्रतियोगिता चलाना कमाई और लोकप्रियता के लिए जरूरी हो सकता है लेकिन इसके लिए गलत दावा करने वाले का समर्थन करने का क्या मतलब? प्रधानमंत्री खुद और भारतीय जनता पार्टी भले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कहे पर कांग्रेस या कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ने कभी ऐसा दावा नहीं किया है।
अगर कभी किया भी हो तो आमतौर पर नहीं करते हैं। यह उनके भाषणों में भी दिखता है। वे कांग्रेस पार्टी की बात करते हैं मैं, मैं नहीं करते। अध्यक्ष के रूप में खुद से ज्यादा उम्र वालों को आदेश देते दिखे होंगें पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में खुद को पेश नहीं करते। पूछे जाने पर जरूर कहा था कि वे इसके लिए तैयार हैं। पर यह तो कांग्रेस को समर्थन मिलने के बाद की बात है। इसके बावजूद अगर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने का दावा किया है तो वह भी उतना ही गलत होगा जितना नरेन्द्र मोदी का दावा है। हमारे यहां चुनाव भी ऐसे नहीं होते हैं जैसे अध्यक्षीय प्रणाली वाली व्यवस्था में होते हैं। अमेरिका का चुनाव याद कीजिए औऱ कल्पना कीजिए कि वैसे भाषण देकर और आम लोगों के सवालों का जवाब देकर अपनी योग्यता साबित करनी हो तो नरेन्द्र मोदी टिक पाएंगे?
इसके बावजूद पार्टी के रणनीतिकारों ने मुकाबले को मोदी बनाम राहुल कर दिया है। इसी रणनीति के तहत राहुल को पप्पू साबित करने का अभियान भी चलाया जा रहा है। भले ही यह सब पार्टी की रणनीति हो पर पार्टी ने कहा नहीं है तो समझ में नहीं आ रहा है, ऐसा भी नहीं है। बहुत साफ दिखाई दे रहा है कि भाजपा ने राहुल गांधी को खुद ही नरेन्द्र मोदी के मुकाबले में चुन लिया है और उनकी छवि खराब करने का काम साथ-साथ चल रहा है। अगर वे योग्य नहीं हैं तो ध्यान देने या परेशान होने की जरूरत नहीं है पर जबरदस्ती यह दिखाया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। जबकि नरेन्द्र मोदी असल में बिना टीम के कप्तान हैं – यह कहने या साबित करने की जरूरत नहीं है। और राहुल गांधी भाजपा के चाहने या कहने से प्रधानमंत्री पद के लिए कमजोर नहीं हो जाएंगे। यह तो कांग्रेस संसदीय दल या कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा करने वाले दल मिलकर तय करेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि उनकी टीम अच्छी है और इसका पता इसबार तो चुनाव घोषणा पत्र से ही चला।
अभी मुद्दा दोनों की योग्यता पर चर्चा करना नहीं है फिर भी यह सवाल तो है ही अखबार ने राहुल गांधी को मोदी के मुकाबले क्यों रखा है? या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मुकाबले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह क्यों नहीं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्यों? वैसे भी मुकाबला बराबर वालों में होना चाहिए। निवर्तमान प्रधानमंत्री का मुकाबला कोई पूर्व प्रधानमंत्री कर सकता है पर पार्टी अध्यक्ष को प्रधानंमंत्री के मुकाबले क्यों रखेंगे दूसरी पार्टी के अध्यक्ष के मुकाबले क्यों नहीं? प्रधानमंत्री के मुकाबले मनमोहन सिंह ही क्यों नहीं – क्या उन्होंने मना किया है? पी चिदंबरम क्यों नहीं – जो पहले संकट के समय गृहमंत्री बनाए गए थे और अब तरक्की के हकदार हैं? प्रधानमंत्री के मुकाबले राहुल गांधी कैसे?
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह.
देवीलाल शीशोदिया
April 29, 2019 at 12:44 pm
पूरी टीम के चश्मे का नंबर बहुत पहले ही बदल गया है। धुंधला दिखाई देता है। 23 मई को भी नए चश्मे नहीं पहनेंगे क्या?