उत्तर प्रदेश पुलिस ने आगरा में कई पत्रकारों को जमकर लाठियों से पीटा और उनको घायल कर दिया। बताया जाता है कि उनके कैमरे तक तोड़ दिय गये। पत्रकार असली थे या नक़ली..? दलाल थे या ईमानदार..? कवरेज कर रहे थे या ब्लैकमेल…? हो सकता है कुछ लोगों के मन में इस दखद समय में इसी तरह के विचार आ रहे हों! हो सकता है कि कुछ प्रेस क्लबों में शराब के नशे मे धुत कुछ कथित क़लम के सिपाही सरकार को गिराने से लेकर एक एक को देख लेने का प्लान भी बना भी चुके हों!
इस शर्मनाक हादसे के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस की जितनी भर्त्सना की जाए कम है और पत्रकारों के हक़ में खड़ा होने में अब भी देर की जाए तो सबसे बड़ी शर्म की बात है। लेकिन इस मौक़े पर एक सवाल का जवाब आप सभी से मांगने की गुस्ताखी करना चाहता हूं,…! कि इस स्थिति के लिए आख़िर ज़िम्मेदार कौन है? क्या अपराधियों के आगे चूहा साबित होने वाली और प्रेस कांफ्रेसों में बड़े बड़े दावे करके पत्रकारों से छपवाने वाली पुलिस रातों रात इतनी बहादुर हो गई कि उसको पत्रकारों को दौड़ा दौड़ा कर पीटना भी आ गया?
नहीं क़तई नहीं! पुलिस को बहादुर बनाया हमारे ही कुछ कथित पत्रकार साथियों ने..! शाम को एक बोतल और कभी कभी घर के लोगों को घुमाने के लिए मांगी जाने वाली कार या फिर थोड़ा बहुत मंथली पाने पत्रकारों को आप न जानते हों..! तो हर शहर के कुछ पत्रकारों से मालूम कर लेना… लंबी फहरिस्त मिल जाएगी। ये वही जमात है, जो पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस में पुलिस की तरफ से बतौर प्रवक्ता बनकर असल सवालों को पूछने वालों को चुप करने का ठेका लिये रहती है। भले ही किसी चैनल में काम करें या न करें… भले ही उनके कथित चैनल को बंद हुए जमाना हो गया हो मगर पुलिस के साथ इनकी जत्थेदारी शहरभर में जानी जाती है।
अगर किसी पगले या जुझारू पत्रकार ने सच्चाई लिख भी दी तो पुलिस से पहले खुद ही उसका खंडन करना इनकी ड्यूटी होती है। हर शहर के लिए दावा है मेरा…. अगर आपके शहर में जांच करा दी जाए तो 98 फीसदी पत्रकारों के पास न तो किसी चैनल का आई कार्ड होगा न कोई नियुक्ति पत्र। न किसी को सैलरी मिलती होगी न ही कोई नंबर एक की आमदनी। लेकिन उनके ठाठ बाट आपको दंग करने के लिए काफी होंगे।
किसी की सुनी सुनाई बात नहीं करता मैं। न ही किसी पर आरोप लगाना यहां मेरा मक़सद है। लेकिन सिर्फ चार साल पहले 3 मई 2011 को गाजियाबाद प्रशासन ने कथिततौर पर तत्तकालीन मायावती सरकार के इशारे पर गाजियाबाद के एक पत्रकार के खिलाफ चंद मिनट के अंदर कई थानों में कई एफआईआर दर्ज कर डाली थीं। वो पत्रकार जिसने सहारा और इंडिया टीवी सहित कई राष्ट्रीय चैनलों पर बतौर एंकर और कॉरसपॉंडेंट और पे रोल पर रहते हुए लगभग 17 साल कार्य किया हो। जिस पत्रकार के हाथों नियुक्त किये गये दर्जनों लोग देश के कई शहरों में कार्यरत हों।
जिस पत्रकार का दावा हो कि देशभर में कोई एक इंसान अपने बच्चों कसम खाकर बता दे कि किसी से उसने रिश्वत या एक रुपया भी लिया हो। उसी पत्रकार के खिलाफ गाजियाबाद प्रशासन ने न सिर्फ झूठी एफआईआर दर्ज करा दीं बल्कि उसके परिवार को प्रताणित किया। और सरकार के खिलाफ खबर न लिखने के लिए मजबूर करने के लिए घर की लाइट और पानी तक काट दिया। उस पत्रकार झुकने के बजाए एक माह तक जनरेटर चलाया। पत्रकार का पागलपन सिर्फ इतना है कि उसने प्रशासन के आगे झुकने के बजाय हाइकोर्ट की शरण ली और कई साल तक लड़ने के बाद प्रशासन की पोल खोल दी। पत्रकार का हौंसला जीता….उसके साथियों का भरोसा जीता।
लेकिन अफसोस इस सारी लड़ाई के बीच शहर के कई पत्रकार प्रशासन के भ्रष्ट सिस्टम के सामने दीवार की तरह खड़े होकर प्रशासन के करप्ट लोगों के लिए काम करते रहे। कई ने लिखित में एफिडेविट दिये। कई दलालों ने प्रशासन के करप्ट लोगों को कहा कि कुछ नहीं होगा। ऐसे बहुत पत्रकार घूमते हैं। ये कहानी नहीं बल्कि मेरे अपने साथ होने वाली घटना है।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ कई पत्रकारों को पुलिस ने फंसाया दबाव बनाया। जो झुक गया ठीक नहीं तो जाओ जेल। अपने जनून और पागलपन के दमपर भड़ास चलाने और भारतीय पत्रकारिता को एक नया आयाम देने वाला यशवंत नोएडा पुलिस के हाथों प्रताड़ित किया गया। मुझ सहित कितने पत्रकारों ने इसको आंदोलन बनाया? इस मामले में सबसे ज्यादा खुद को सबसे ज्यादा दोषी मानते हुए भले ही मैं यह बहाना कर लूं कि मैं खुद उन दिनों पुलिस से बचने और अदालत के चक्करों मे फंसा हुआ था।
लेकिन सच्चाई यही है कि आगरा की घटना अचानक नहीं हुई। ये कतई नहीं माना जा सकता कि आगरा में जो कुछ हुआ अचानक हो गया। इस सबके लिए पुलिस से ज्यादा हम सब दोषी हैं। आगरा में पुलिस के हाथों जो कैमरे और पत्रकारों के हाथ पैर टूटे हैं वो पुलिस की लाठी से नहीं बल्कि पत्रकारों की खुद की लापरवाही, गलती और दलाली का नमूना भर है।
लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी जर्नलिस्ट हैं। सहारा टीवी, इंडिया टीवी, डीडी आंखो देखी, इंडिया न्यूज़ समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में oppositionnews.com में कार्यरत हैं।
Anshuman
November 26, 2015 at 10:10 am
आगरा में पत्रकारिता की जमात में ब्लैक शीप शामिल हैं, बड़े बैनर वाले पत्रकार भी इस दलदल में पुलिस के दल्ले बनकर पुलिस प्रशासन के लिए भले कमल का फूल हों, लेकिन पत्रकारिता बिरादरी के लिए कलंक से कम नहीं हैं। आगरा की बात करें तो सबसे ज्यादा दलाल टाइप पत्रकारों की भीड़ थाना एत्माददौला में लगती हैं यहां यमुना पार के पत्रकारों का गिरोह है जो हास्पीटलों से उगाही से लेकर सारे गैरकानूनी कार्य करता है। सचेत रहे सावधान रहे और पत्रकारिता के पेशे को बदमान होने से बचाएं जिससे सपाईयों की गुलाम बैठी पुलिस की लाठी खानी पड़े।
rajkumar
November 27, 2015 at 11:34 pm
अंशुमन जी की बात से में पूरी तरह सहमत हूँ ,आगरा में इस गेंग को डी कंपनी कहते है ,