नरेंद्र मोदी अमरीका में लोकप्रिय पहले से ही थे, अब लोकप्रियता के प्रचंड शिखर पर पहुंच चुके हैं। लेकिन, उनकी लोकप्रियता भर से क्या अमरीका में रह रहे भारतीय वतन लौट आएंगे? शायद नहीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बहुप्रचारित अमरीका यात्रा संपन्न हो गई। कूटनीतिज्ञ कह रहे हैं कि यह बेहद सफल यात्रा रही, तो कांग्रेस का कहना है कि इस यात्रा में नया कुछ भी नहीं था। वैसे, मोदी की एक झलक पाने को बेकरार भारतीय-अमरीकी समाज के लोगों ने इस पूरे दौरे को यादगार बना दिया। जहां-जहां मोदी गए, भारतीय-अमरीकी भी वहां गए। पर इसका कोई और अर्थ लगाने से हमें बचना चाहिए। अगर आप उम्मीद कर रहे हैं कि ये एनआरआई भारत लौट आएंगे तो आप गलत हैं।
मोदी लगातार लोगों में उम्मीद का संचार कर रहे हैं। वह सकारात्मक बातें कह रहे हैं। लेकिन, उम्मीदों का ज्वार एक बार अगर चढ़ गया तो फिर उसे पूरा करना बेहद दुरूह हो जाता है। मैडिसन स्कवायर की सभा में मोदी ने कहा कि वह ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे जिससे भारत का नाम बदनाम हो। लेकिन, यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए कठोर तप की जरूरत है जो मोदी के अतिरिक्त शायद ही कोई कर सके। अकेला चना कब भांड़ फोड़ सका है?
अमरीका की चार दिनों की यात्रा में मीडिया हावी रहा। लेकिन, अगर कोई एक बिजनेसमैन की तरह पूछे कि मोदी क्या लेकर आए तो एक शब्द का जवाब होगा- आश्वासन। यही सत्य है। आश्वासन से किसका भला हुआ है? कभी होगा भी नहीं।
मोदी बार-बार कहते रहे हैं कि वह सिस्टम में बदलाव करेंगे लेकिन कैसे? नौकरशाही करने देगी? नौकरशाही को आप एनसीआर में या बहुत हुआ तो भाजपा शासित क्षेत्रों में नियंत्रित कर अपने अनुकूल ढाल सकते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड या गैर भाजपा शासित राज्यों में आप नौकरशाही को कैसे दुरुस्त करेंगे? यह संभव ही नहीं है।
एक छोटा उदाहरण देखें। प्रधानमंत्री ने जन-धन योजना की शुरूआत की है। इस योजना में नियम है कि किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक में आपका खाता जीरो बैलेंस पर खुलना है। लेकिन, गोरखपुर में अनेक बैंक ऐसे हैं जो कम से कम 1000 रुपये की मांग कर रहे हैं। ऐसा ही पश्चिम बंगाल में भी है। वहां भी 500 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक की मांग की जा रही है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि नौकरशाही यहां प्राय: बेलगाम है।
अमरीका यात्रा में एक उत्साह तो देखने को मिला पर अमरीका में रह रहे भारतीयों को भरोसा नहीं कि अगर वे भारत में अपना व्यापार शुरू करेंगे तो उन्हें कोई मुश्किल नहीं आएगी। वे मोदी के रूख से सहमत हैं, आश्वस्त नहीं। कोई नहीं चाहता कि उसे धंधा फैलाने के लिए सात समंदर पार जाना पड़े। पर वह जाता है तो एक तड़प लेकर जाता है। मोदी अगर वाकई बाजार को उद्यमियों के अनुकूल बनाना चाहते हैं तो उन्हें आमूल-चूल परिवर्तन करना पड़ेगा। उस चेंज के लिए उन्हें पांच नहीं, पच्चीस बरस चाहिए। संभव है?
आनंद सिंह
Rajendra Prasad
October 8, 2014 at 8:11 am
पत्रकार जगत को इस नुकसान का भरपाई हो पाना मुश्किल है। भगवान उनके आत्मा को शांति दे। राजेन्द्र प्रसाद, सम्पादक, प्रहरी मिमांसा, लखनÅ