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सुख-दुख

कितना मुश्किल है पीपी सर होना

हुसैन ताबिश-

वो शायद १० जनवरी २०११ की तारीख थी। दोपहर १ बजे के आसपास जब मैं माखनलाल यूनिवर्सिटी के तीसरे तले से पीएचडी का एंट्रेंस टेस्ट देकर नीचे उतरा तो वहां काफी भीड़ लगी थी। वहीं, पर एक आदमी के आसपास १५ – २० लोग जमे हुए थे और सभी आपस में बातचीत कर रहे थे।

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करीब छह फुट लंबा, गोरा – चिटटा, अच्छी डील डौल वाला आदमी। चेहरे पर बढ़ी हुई बेतरतीब सी घनी और खिचड़ी दाढ़ी और बिखरे बाल। तन पर साधारण सा लिबास, और एक पुराना सा झूलता हुआ जैकेट। आंखों में एक सूनापन मगर चेहरे पर गजब का ओज। पहली नजर में मुझे ये आदमी शक्ल से अरस्तु, प्लेटू जैसा कोई दार्शनिक या फिर हेरोडेट्स जैसा कोई इतिहासकार लगा।

मैं कुछ देर तक दूर से ही देखता रहा। फिर वहीं पास से गुजरने वाले किसी अजनबी शख्स से पूछ लिया कि वहां खड़ा आदमी कौन है ?

उस आदमी ने मुस्कुराते हुए बताया, लगता है आप बाहर से आए हैं, ये पीपी सर हैं। इसी यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के एचओडी हैं।

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यूं तो उनका नाम मैं २००६ से सुन रखा था, जब उनके विभाग से पास आउट मेरा एक कनपुरिया मित्र विकास सिंह अकसर उनकी चर्चा करता था। तब उनकी छवि मेरे मन में एक दुबले पतले इंसान की बनती थी। लेकिन जब सालों बाद पीपी सिंह नाम सुना तो उन्हें एक टक देखता रह गया! क्या गजब की पर्सनैलिटी और अट्रैक्शन है इस आदमी में। कोई इंसान बरबस ही उनकी तरफ खींचा चला जा सकता था। हालांकि, तब मैं उनसे मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और वहां से निकल गया।

साल भर बाद जब दुबारा पीएचडी की क्लास के लिए भोपाल जाना हुआ तो पीपी सर से मेरा मिलना हुआ। पहली मुलाकात में ऐसा लगा जैसे वो हमें वर्षों से जानते हों। दिखने में जितने विशाल और विराट व्यक्तित्व के मालिक, लहज़ा उतना ही सरल और विनम्र था उनका।

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यूनिवर्सिटी में पीएचडी का कोई मखसूस विभाग नहीं था तो हम लोग इधर – उधर भटकते रहते थे। कभी – कभार उनके विभाग का भी चक्कर लगा लेते थे।

सीढ़िया चढ़ते – उतरते या कहीं और पीपी सर से सामना हो जाता तो सलाम दुआ हो जाती। इस तरह लगभग दो साल गुजर गए थे।

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एक दिन उन्होंने किसी से मुझे पूछवाया कि क्या मैं उनके विभाग में रिपोर्टिंग की क्लास ले सकता हूं। भोपाल जाने के पहले मैं दिल्ली में एक अखबार में रिपोर्टर था और मैंने मास कॉम में एमफिल की पढ़ाई की थी, ये बात पीपी सर जानते थे।

पहले तो मैं पढ़ाने का सुनकर अंदर तक घबरा गया और फिर नेट, पीएचडी न होने और टाइम न होने का हवाला देकर मना कर दिया।

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अगले दिन उनका कॉल आया, ” ताबिश मैं पीपी सिंह बोल रहा हूं, तुम मना क्यों कर रहे हो। मुझे पता है तुम पढ़ा लोगे और अभी पक्का भी तो नहीं है। हमे भी vc साहब से अप्रूवल लेनी होगी। तुम अपना एक रियूज्म तो भेजो।

मैं, वहां रोजाना दो क्लास लेने लगा। इस तरह मैं उनके संपर्क में आया।

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वो एक उच्च कोटि के शिक्षक, मार्गदर्शक, अभिभावक, मित्र और इंसान थे। इतना छात्र हितैषी शिक्षक मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वो अपने स्टूडेंट्स के लिए २४ × ७ हाजिर रहते थे। उसकी सभी समस्याओं का समाधान करते थे। २० साल पहले पास आउट स्टूडेंट्स की आज भी नौकरी में मदद करते थे। यहां तक कि स्टूडेंट्स के बाहर के दोस्तों और परिचितों के भी काम आते थे। मैंने कभी उन्हें किसी काम के लिए किसी को मना करते नहीं देखा। जो काम उनके बस में होता वो वहीं पर मदद चाहने वालों के सामने बैठकर अंजाम देते थे।

एक बार मैंने कहा.. इन दो लड़कों को मैंने इंटरनल में फेल कर दिया है। ये क्लास में नहीं आते हैं और कॉपी में फालतू बातें लिखकर पन्ना भर देते हैं।

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उन्होंने कहा, नहीं पास कर दो, इनमे पत्रकार बनने के गुण हैं! यह दोनों आगे चलकर पत्रकार बनेंगे और सच में वो ही दोनों लड़के आज अपने अपने क्षेत्र में अच्छा कर रह रहे हैं।

छात्रों से वो किसी बिना पर कोई भेदभाव नहीं करते थे। क्षेत्रवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकता उनके अंदर लेशमात्र भी नहीं था, जबकि आज के शिक्षकों का इनसे बचना नामुमकिन सा हो गया है। उनके पास, एबीवीपी, युवा कांग्रेस, अंबेडकरवादी, वामपंथी और घोर दक्षिणपंथी और मेरा जैसा उदारवादी भी बैठकी लगाता था। दलित, ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया, मुसलमान और आदिवासी सभी छात्रों के वो बराबर के गुरु थे। बंगाली, बिहारी, मराठी, पंजाबी, कश्मीरी राजस्थानी सभी छात्रों के वो अभिभावक थे। कुछ स्टूडेंट्स उन्हें पीपी सर नहीं बल्कि पापा सर बुलाते थे।

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भाजपाई, कांग्रेसी, और बसपाई सभी नेता उन्हें अपना समझते थे। इस तरह, सभी में लोकप्रिय होना एक आम शिक्षक के बस की बात नहीं होती।

यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद जन संपर्क विभाग में मैंने उन्हें जी तोड़ मेहनत करते हुए देखा। फ्राइडे – सैटरडे को वो रात दो तीन बजे तक रूककर अखबार निकालते थे। कई बार मैं इसका गवाह रहा हूं।

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आत्ममुग्धता, स्वप्रचार, और पीआर के इस युग मैं मैंने कभी उन्हें खुद के लिए कोई उधम करते नहीं देखा।

यहां तक कि उन्हें कभी यूनिवर्सिटी में एचओडी रहते अपनी कुर्सी पर बैठते हुए मैंने नहीं देखा। माध्यम में भी उनकी कुर्सी दीवार की जानिब घूमी रहती और वो सोफे पर बैठते थे। एक बार पूछने पर कहा था, कुर्सी का कोई भरोसा नहीं होता है, इसलिए इससे दूर ही रहना चाहिए।

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भोपाल में एक इंसान ऐसा भी था, जिसने मेरा कुछ नहीं बिगड़ा था, लेकिन मुझे उसे देखकर एक अजीब सी खुन्नस होती थी।
वो अक्सर पीपी सर के पास आकर घंटों बैठा रहता। एक दिन मैंने कहा, सर इसे भागते क्यों नहीं है ? आप इस आदमी को बर्दास्त कैसे करते हैं ?

उन्होंने कहा, थोड़ा फ्रस्ट्रेट है और इरिटेटिंग भी है, लेकिन हमे लगता है यहां आकर उसे आराम मिलता है, तो अपन का क्या जाता है। आने देते हैं न। किसी को न कहने से भी कुछ बुरा होता है क्या ? “

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मैं चुप हो गया।

पीपी सर के चाहने वालों के पास उनके हजार किस्से होंगे। मेरी उनसे कोविड के बाद से कोई बात नहीं हुई थी। हालांकि, उन्हें कई बार सपने में देखा था। दो दिन पहले भी सपने में मैं भोपाल गया था और पीपी सर के साथ बोट में राफ्टिंग की थी।

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सुबह उठकर सोचा था के आज कॉल करूंगा, लेकिन व्यस्तताओं में दो दिन निकल गए।

आज सुबह जब उठने के बाद मोबाइल पर उनके निधन की खबर दिखी तो दिल बैठ गया। बूढ़े मां बाप के सामने बेटा गुजर जाए और बच्चों के सिर से पहले मां और फिर बाप का साया उठ जाए, इससे बुरा दुनिया में और क्या होगा ? पीपी सर के आज दो बच्चे नहीं बल्कि सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गए।

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हर इंसान की मौत उसके परिवार के लिए अपूर्णीय क्षति होती है। पीपी सर का जाना समाज की क्षति है, भोपाल की क्षति है।

हो सकता है उनकी मौत से बहुत से लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कोई खुश भी हुआ होगा। ये दुनिया है। यहां, भगवान राम, पैगंबर मोहम्मद साहब, ईसा मसीह और बुद्ध का भी विरोध हुआ था, तो पीपी सर तो इंसान थे। लेकिन वो जो भी थे, वो होना भी हर किसी के लिए आसान नहीं होता है। वो एक समृद्ध लिगेसी अपने पीछे छोड़ गए हैं। जो उनके शिष्य, मित्र और शुभचिंतक हैं, उन्हें उनके आदर्शों का पालन करना चाहिए। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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बाबा की जय हो। शत शत नमन! ईश्वर उन्हें बैकुंठ में जगह दे।।

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