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सियासत

मोदी के बजट की असलियत और अमेरिकी न्यौते की खासियत समझिए पुण्य प्रसून बाजपेयी से

बजट में ऐसा क्या है कि दुनिया मोदी की मुरीद हो रही है। और बजट के अगले ही दिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति का न्यौता दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के पीएम को मिल गया। असल में मौजूदा वक्त में भारत दुनिया के सबसे बड़े बाजार का प्रतीक है। और मोदी के बजट ने इन्फ्रास्ट्रक्चर, रक्षा उपक्रम, इनर्जी सिक्यूरटी के लिये जिस तरह दुनिया को भारत आने के लिये ललचाया है उसने मनमोहन इक्नामिक्स से कई कदम आगे छलांग लगा दी है। वजह भी यही है कि ओबामा मोदी की मुलाकात का इंतजार समूची दुनिया को है। और खुद अमेरिका भी इस सच को समझ रहा है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां आने वाले वक्त में रेलवे में 5 से 10 लाख करोड़ का निवेश होना है। सड़क निर्माण में 2 लाख करोड़ से ज्यादा का निवेश होना है। बंदरगाहों को विकसित करने में भी 3-4 लाख करोड़ लगेंगे।

बजट में ऐसा क्या है कि दुनिया मोदी की मुरीद हो रही है। और बजट के अगले ही दिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति का न्यौता दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के पीएम को मिल गया। असल में मौजूदा वक्त में भारत दुनिया के सबसे बड़े बाजार का प्रतीक है। और मोदी के बजट ने इन्फ्रास्ट्रक्चर, रक्षा उपक्रम, इनर्जी सिक्यूरटी के लिये जिस तरह दुनिया को भारत आने के लिये ललचाया है उसने मनमोहन इक्नामिक्स से कई कदम आगे छलांग लगा दी है। वजह भी यही है कि ओबामा मोदी की मुलाकात का इंतजार समूची दुनिया को है। और खुद अमेरिका भी इस सच को समझ रहा है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां आने वाले वक्त में रेलवे में 5 से 10 लाख करोड़ का निवेश होना है। सड़क निर्माण में 2 लाख करोड़ से ज्यादा का निवेश होना है। बंदरगाहों को विकसित करने में भी 3-4 लाख करोड़ लगेंगे।

इसी तरह सैकड़ों एयरपोर्ट बनाने में भी 3 से 4 लाख करोड़ का निवेश किया जाना है। वहीं भारतीय सेना की जरूरत जो अगले दस बरस की है, वह भी करीब 130 बिलियन डॉलर की है। यानी मोदी सरकार ने बजट को लेकर पहली बार दुनिया की आस भारत में पैसा लगाने को लेकर जगी है क्योंकि बजट ने खुले संकेत दिये है कि भारत विकास के रास्ते को पकड़ने के लिये आर्थिक सीमायें तोड़ने को तैयार है और दुनिया भर के देश चाहे तो भारत में पूंजी लगा सकते हैं। असल में यह रास्ता मोदी सरकार की जरूरत है और यह जरूरत विकसित देशों को भारत में लाने को मजबूर करेगा। क्योंकि विकसित देशों की मजबूरी है कि वह अपने देश में इन्फ्रास्ट्क्चर का काम पूरा कर चुके हैं और तमाम विदेशी कंपनियों के सामने मंदी का संकट बरकरार है। यहां तक की चीन के सामने भी संकट है कि अगर अमेरिका के आर्थिक हालात नहीं सुधरे तो फिर उसके यहां उत्पादित माल का होगा क्या। ऐसे में भारत में निर्माण का रास्ता विदेसी निवेश के लिये खुलता है तो अमेरिका, जापान, फ्रांस या चीन सरीखे देश कमाई भी कर सकते है।

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ध्यान दें तो अमेरिका की रुचि इनर्जी सिक्यूरटी के क्षेत्र में भारत के साथ समझौता करना है। क्योंकि भारत अगर वाकई अमेरिकी मॉडल के रास्ते चल निकलेगा तो फिर भविष्य में उर्जा के हर क्षेत्र को लेकर भारत को पूंजी लगानी भी होगी और उसकी जरूरतें समझौता करने वाले देश पर निर्भर भी होगी। यानी रेल ,सड़क, एयरपोर्ट से लेकर तमाम इन्फ्रसट्क्चर के लिये अगले तीस बरस की जरुरतो के मद्देनजर कोयला, गैस,पेट्रोलियम और नेपथाल सरीखे इनर्जी पर भी अमेरिका समझौता करना चाहेगा । साथ ही न्यूक्लीयर प्लांट लगाने के बाद सप्लायर समझोते जो अभी तक अटके हुये है समझौते उसपर ओबामा मोदी के साथ समझौता करना चाहेंगे। यानी ओबामा से मोदी की मुलाकात दुनिया की पूंजी को भारत में लगाने की एक ऐसी छलांग साबित हो सकती है जिसके बाद देश में खेती और ग्रामीण भारत के सामने अस्तित्व का संकट मंडराने लगे क्योंकि विकास का यह रास्ता बीच में छोडा नहीं जा सकता और रास्ता पूरा करने के लिये खनिज संपदा ही नहीं बल्कि आदिवासी बहुल इलाको से लेकर २५ करोड़ के करीब खेत मजदूर के सामने संकट के बादल मंडराने लगे।

वैसे यह तर्क दिया जा सकता है कि दुनिया की पूंजी जब भारत में आयेगी तो उसके मुनाफे से ग्रामीण भारत का जीवन भी सुधारा जा सकता है। यानी मोदी सरकार का अगला कदम गरीब भारत को मुख्यधारा से जोड़ने का होगा। और असल परीक्षा तभी होगी। लेकिन मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकल रही है उसमें वह गरीब भारत या फिर किसान, मजदूर या ग्रामीण भारत की जरुरतों को पूरा करने की दिशा में कैसे काम करेगी, यह किसी बालीवुड की फिल्म की तरह लगता है। क्योंकि फिल्मों में ही नायक तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस कर देता है। यानी शुरू में नायक कितना भी बिगड़ा हो लेकिन तीन घंटे बाद वह आदर्श करार दिया जाता है। यानी मोदी सरकार की हर कड़वी गोली बीतते वक्त के साथ मिठास लायेगी,  यह सरकार कहने से नहीं चूक रही। लेकिन यह कौन समझेगा कि दुनिया का बाजार और विदेशी पूंजी जब भारत की जमीन पर अपने कारखाने लगायेगी तो डालर के मुकाबले रुपया चाहे मजबूत दिखायी देने लगे लेकिन तब मुठ्टी भर रुपये से नहीं  थैली भर रुपये से ही न्यूनतम की जरूरतें आ सकेगी क्योंकि इन्फ्रास्ट्क्चर भारत में दुनिया के मुकाबले सस्ता जरूर है लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में आयातित मिठास कड़वी ही साबित होगी क्योंकि भारत में आज भी सरकारें पचास रुपये किलो प्याज और सौ रुपये की थाली पर गिर जाती हैं।

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बैकों में जमा धन के कमजोर होने भर से अराजकता आ जाती है। सोने का भाव गिरता है तो लोग सोना खरीद कर जमा कर लेते हैं लेकिन यह और सस्ता हो जाये तो फिर सस्ते हालात भी महंगे लगने लगते हैं। यानी समाज में निचले तबके की जरूरतों में सुधार लाये बगैर ऊपरी तबकों के अनुकुल बजट राहत भी दे सकता है और यह रास्ता समाज के ऊपरी वर्ग की जरुरत हो सकती है और मध्यम वर्ग को ललचा सकती है। लेकिन दुनिया में यह तबका सबसे बडा होते हुये भी भारत में सबसे छोटा है। क्योंकि भारत में तीस-पैतिस करोड़ बनाम अस्सी करोड़ की असमान रेखा तो जारी है।

इसे अगर रक्षा क्षेत्र से ही समझ लें तो मोदी सरकार ने आते ही हथियारो के लिये विदेशी निवेश का निर्णय लिया। और उससे पहले सेना के तीनो अंगों ने अंतराष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर 130 बिलियन डॉलर के सामानों की जरुरत बतायी। यानी आंतरिक सुरक्षा के लिये और भी हथियार चाहिये। जाहिर है मोदी सरकार अगर यह कहती है कि 130 बिलियन डालर देकर हथियार खरीदने का कोई मतलब नहीं है। इसके उलट रक्षा क्षेत्र में लगी बहुराष्ट्रीय कंपनिया भारत में ही उद्योग लगाये । जिससे भारत में कारखाने भी लगेंगे। रोजगार भी मिलेगा और रुपया मजबूत भी होगा । साथ ही हथियारों को लेकर भारत स्वावलंबी भी होगा। और हथियारो की खरीद के दौरान सरकार की कमीशनखोरी भी बंद होगी। साथ ही देश के भीतर हथियार बनाने वाली कंपनियों के निजी मुनाफे भी खत्म होंगे। तो बात सही है ऐसा होना ही चाहिये। लेकिन इसके लिये समझना यह भी होगा कि दुनिया के पांच सबसे बड़े देश जो हथियार बनाते हैं, वह संयुक्त राष्ट्र के पांचों स्थायी सदस्य ही हैं। और पांचों देश यानी अमेरिका, इग्लैड, रुस, फ्रांस और चीन हमेशा चाहते हैं कि दुनिया में कही ना कही युद्द वाले हालात बने रहे। जिससे हथियार उघोग की जरुरत बरकरार रहे। भारत भी इन पांच देशों के अलावा जर्मनी और स्वीडन से ही हथियार खरीदता है। तो पहला सवाल है हथियारो के उत्पादन का नया केन्द्र भारत बनेगा तो सवाल सिर्फ रोजगार और इन्फ्रास्ट्रक्चर का होगा या बात आगे बढेगी।

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दूसरा सवाल मनमोहन सिंह के दौर में निवेश के रास्ते तो अपनो के लिये ही बंद हो गये । यानी हर किसी ने अंटी में पैसा दबा लिया क्योकि आर्थिक माहौल बिगड़ चुका था। तो पहले भारतीय पैसे वालो की अंटी को भरोसा दिलाने की जगह बाहर का रास्ता पकड़ना कितना सही है। और तीसरा सबसे बड़ा सवाल है कि सरकार की प्रथामिकता है। क्योंकि किसान, मजदूर, खेती, सिंचाई, फसल, खेतिहर जमीन, खेती अनुसंधान जैसे न्यूनतम प्रथामिकता को मोदी सरकार के बजट में पहली बार उभारा तो गया लेकिन गांव को शहरों में तब्दील कर डिब्बा बंद खाना खिलाने की सोच कही ज्यादा भारी नजर आयी। छोटी – छोटी योजनाओं के जरीये देश के विकास को कैसे पाटा जा सकता है।

देश की भौगोलिक परिस्थितियों में कैसे पर्यावरण को बचा कर विकास का रास्ता नापा जा सकता है। कैसे देश में असमान समाज को सोशल इंडेक्स के दायरे में समेटा जा सकता है। कैसे दिल्ली के रायसीना हिल्स से पंचायत स्तर तक को एक धागे में पिरोया जा सकता है। कैसे हिन्दू शब्द को सांप्रदायिकता के कटघरे से बाहर कर मुस्लिम के साथ जोड़ा जा सकता है। कैसे मुस्लिम तुष्टिकरण को देश के ८० करोड़ हाशिए पर पड़े तबके के साथ घुलाया मिलाया जा सकता है। कैसे शिशु मंदिर और मदरसों के पाठ में भारतीय राष्ट्रवाद एक सरीखा दिखाया जा सकता है। कैसे आधुनिक अस्पतालो की कतार में प्राथामिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अंबार लगाया जा सकता है। कैसे उच्च शिक्षा को सम्मान देकर देश के भीतर ही राजनीतिक सत्ता से ज्यादा तरजीह दी जा सकती है। कैसे भारत का नाम आते ही मस्तक उंचा उठ सकता है। कोई नीति, कोई फैसला तो कभी इस दिशा में लिया नहीं गया। तो फिर बजट सरकार के लिये चाहे कमाई का बाजार हो लेकिन देश की बहुसंख्यक जनता के लिये बजट बेजार है। क्या इसे आने वाले ५८ महीनो में मोदी सरकार समझ लेगी।

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जाने माने पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लाग से साभार.

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0 Comments

  1. इंसान

    July 26, 2014 at 3:56 pm

    ऐसा प्रतीत होता है कि आप हिंदी अच्छी लिख लेते हैं और कच्चे पक्के विचारों का ताना बाना भी शब्दों में पिरो कर प्रस्तुत करने का समर्थ है लेकिन पुण्य प्रसून बाजपेयी जी अब पुन: यह बतायें कि आप समझाना क्या चाहते हैं?

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