Abhishek Srivastava : मुझे याद है 2002 के मार्च की, जब गुजरात दंगों के ठीक बाद जागरण के संपादकीय पन्ने पर भानुप्रताप शुक्ल का लेख छपा था। उसमें हिंदुओं से बाबर की संतानों को सबक सिखाने को कहा गया था। वो लेख मैं आज तक भुला नहीं सका। किस्सा यूं है कि बेहद गरीबी और बेरोज़गारी के दिनों में Ashwini Kumar Shrivastava जी ने मुझे नौकरी के लिए जागरण भेजा था। शायद 2010 का अगस्त रहा होगा। संकोच में मैं चला गया। आजकल इंडिया टुडे के प्रभारी अंशुमान तिवारी तब वहीं थे। उन्होंने मेरे सीवी पर वेतन लिखा और अगले दिन राजीव सचान के पास जाकर जॉइन करने को कहा।
अगले दिन मन पर बड़ा बोझ था। मैं सचान के पास नहीं गया। सचान का फोन आया। मैंने कल के लिए टाल दिया। मन मार के अगले दिन उनके पास गया। उन्होंने बधाई दी। मैंने उन्हें 2002 के उसी लेख की याद दिलाई और कहा कि मेरा बिल्कुल मन नहीं है। वो बोले, अजीब आदमी हो, नौकरी रखी है और कहते हो मन नहीं है! बड़ी मुश्किल से उन्हें मैं जॉइन नहीं करने को कंविंस कर सका। दिल पर भयंकर बोझ टाइप था। जॉइन कर लेता तो गड्ढा हो जाता। खैर, याद नहीं पड़ता कि अश्विनी भाई से मैंने सच कहा था या कोई बहाना बनाया।
बीते 16 साल में मुझे जागरण के बहिष्कार की कोई नई वजह खोजने की ज़रूरत नहीं पड़ी। पहली छाप ही काफी थी। ऐसे तमाम अनुभव और लोगों के भी होंगे। जागरण के जनविरोधी चरित्र की और पुरानी गवाहियां हमारे बीच मौजूद होंगी। फिर सवाल उठता है कि हिंदी का प्रगतिशील कहा जाने वाला छत्ता रोमांचप्रेमी है या स्मृतिभ्रंश का शिकार? बात-बात पर बच्चों जैसा रिसियाना, बहिष्कार का नारा उछालना- क्या जागरण आज पैदा हुआ है या आपने आज ही आंख खोली है?
मान लें कल वो फ़र्ज़ी खबर न छपी होती तो? क्या तब भी बहिष्कार अभियान चलाया जाता? आप कैराना और शामली का ज़हर भूल गए, कि नए ज़हर की ज़रूरत पड़ गई? भूल गए यूपी का फर्ज़ी एग्जिट पोल और डॉ. कफील को बदनाम करने वाली रिपोर्टिंग? पुराना पापी अगर नया पाप न करे तो क्या आप उसे भूल जाएंगे? शुक्र मनाइए कि जागरण आज भी पहले जैसा ही है, जो लगातार नए पाप कर के हमें चेता रहा है। दिक्कत हमारी है कि हम हर नए पाप से उसकी पहचान किये जा रहे हैं। पुराने भूल जा रहे हैं।
जिन्होंने भी ‘बिहार संवाद’ के बहिष्कार का आह्वान किया उन्हें फिर भी सदिच्छा से प्रेरित माना जा सकता है। उनकी स्मृति पर सवाल हो सकता है, मंशा पर नहीं। असल सवाल उन लेखकों पर है जो नौजवानों के आह्वान के बाद बहिष्कार कर के चौड़े हो रहे हैं। मने, न्यूनतम नैतिक आचार के लिए भी क्या न्यौता पुजाया जाएगा अब? दो दिन हल्ला मचने के बाद विरोध का झंडा बुलंद करने वाले बड़े लेखकों की मंशा पर ही मुझे बुनियादी शक़ है।
पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के उपरोक्त स्टेटस पर आए ढेर सारे कमेंट्स में से एक प्रमुख कमेंट यूं है :
Ashwini Kumar Srivastava बहुत पुरानी याद दिलाई। जिस दौर की यह बात है, उस वक्त मीडिया जगत में अभिषेक नाम का यह पत्रकारीय बारूद शायद दिल्ली में किसी की नजर में आया नहीं था। लेकिन मैं तो एक-दो मुलाकात में ही भांप गया था कि यह विस्फोटक सामग्री है और इससे पहले कि यह कहीं बेतरतीब तरीके से यहां वहां दग कर जाया हो जाये, इसे मीडिया में एक दिशा दी जाए। लेकिन तब मैं भी यह नहीं भांप पाया था कि भाई यह क्रांतिकारी व्यक्तित्व वाला शख्स है और नौकरी मटेरियल तो कतई नहीं है…और कम से कम जागरण जैसे संस्थान के लिए तो नहीं ही है।
खैर, Anshuman Tiwari जी बहुत भले इंसान हैं और जागरण में रहकर भी वह जागरण के कई और लोगों जैसी सोच या व्यक्तित्व नहीं रखते। आर्थिक मामलों की जबरदस्त समझ रखने वाले अंशुमन जी बेजोड़ रिपोर्टर भी रहे हैं इसलिए मैं उनका हमेशा ही सम्मान करता आया हूँ। मुझे तो आज पता चला कि असली मामला यह था वरना उस वक्त तो अपने अभिषेक गुरू ने कुछ जोरदार बहाना ही बनाया था। लेकिन जो हुआ, वह अच्छा हुआ…अभिषेक जागरण में जाकर पतित होने से बच गए और अंशुमन जी जागरण में अभिषेक के जाने के बाद होने वाले धमाके से… हालांकि बाद के बरसों में मीडिया के बाकी लोगों की ही तरह मैं भी अभिषेक के क्रांतिकारी स्वभाव को अच्छी तरह से जानने-समझने लगा था। बल्कि एक दो बार तो मैं खुद इसका शिकार होते होते बचा, जब नवभारत टाइम्स में अभिषेक ने बतौर कलीग जॉइन किया।
इसके बावजूद, अभिषेक से मेरा स्नेह सदा ही बना रहा है और बदस्तूर मैंने उसके किसी बड़े बुजुर्ग की तरह हमेशा ही यह प्रयास किया कि इसके पैरों में नौकरी की बेड़ियां डाल दी जाएं ताकि मीडिया के कई मठाधीश इस विस्फोटक सामग्री की चपेट में न आ जाएं। लेकिन अभिषेक ने मेरी पेशकश को हमेशा ठुकरा कर खुद ही एक से बढ़कर एक नौकरियां अपनी योग्यता के बल पर हासिल कीं और किसी भी नौकरी को अपने सिद्धांतों और सोच के सामने ढेले भर की भी अहमियत नहीं दी।अद्भुत है अभिषेक का व्यक्तित्व और बेमिसाल है अपनी विचारधारा व सोच के प्रति ईमानदारी। ऐसी ईमानदारी मैंने सिर्फ एक ही और शख्स में देखी, वह है आईआईएमसी का मेरा सहपाठी और वरिष्ठ पत्रकार Satya Prakash Chaudhary। ये दोनों अद्भुत ही जीव हैं। सारे जीवन जिन सिद्धान्तों, सोच और विचारधारा को माना, उसे न सिर्फ दिल से माना बल्कि अपने जीवन में फिर उससे कभी समझौता नहीं किया…चाहे कितने प्रलोभन मिले हों, सेलरी, पद या संस्थान के।
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