Nirendra Nagar : मां नहीं रहीं। मां को बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती करना पड़ता। दो सप्ताह की कोशिशों के बावजूद डॉक्टर उन्हें बचाने में नाकामयाब रहे। Acinetobacter baumannii नामक बैक्टीरियम ने लाखों की तादाद में माँ के फेफड़ों पर हमला कर दिया था। इन जीवाणुओं का एक ही तोड़ था – Colistin और डॉक्टरों ने आख़िर के कुछ दिनों से माँ को वह इंजेक्शन देना शुरू कर भी दिया था।
डाक्टरों ने यह आगाह भी कर दिया था कि इस इंजेक्शन के बावजूद दुनिया भर में 50 प्रतिशत लोग ही Ventilator Associated Pneumonia नामक इस रोग में बच पाते हैं। मुझे लगा, माँ शायद बचनेवालों की जमात में शामिल होगी। हम ग़लत निकले।
माँ यदि अपनी उम्र पूरी करके जाती, बिना कष्ट भोगे जाती, सबसे बातें करते हुए जाती तो आपके ईश्वर से मुझे शिकायत नहीं होती। लेकिन वह पिछले पंद्रह दिनों से केवल आँखों से बात कर पा रही थी और वह भी कुछ मिनटों के लिए। क्या कहना चाहती थीं, हम पूरी तरह समझ भी नहीं पाते थे। उम्मीद थी, सही दवा शुरू हो गई है तो अगले पंद्रह दिनों में वह बिलकुल ठीक हो जाएगी और तब हम जी भरकर बातें करेंगे। लेकिन इन ख़ूनी बैक्टीरिया ने वह मौक़ा ही नहीं दिया।
एक छोटे-से जीवाणु से हम और डॉक्टर ही नहीं हारे, आपका ईश्वर भी हार गया। बहुत कमजोर निकला आपका ईश्वर। और यदि कमजोर नहीं था तो लापरवाह था, निर्मम था। इसलिए यह न लिखें कि ईश्वर मेरी माँ की आत्मा को शांति प्रदान करे।
अलविदा माँ! अभी जब दूर से तुमको जलते हुए देख रहा हूँ तो मन में यही अफ़सोस है कि काश, मैं हर साल और अधिक छुट्टियाँ लेकर बाँसवाड़ा आता और तुमसे और ज़्यादा बातें करता। काश कि ये पंद्रह दिन जो मैंने तुम्हारी जानलेवा बीमारी के दौरान दिए, वे पहले ही दिए होते।
नवभारत टाइम्स समेत कई बड़े अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर की एफबी वॉल से.