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प्रूफ रीडरों की जरूरत तो अनंतकाल तक रहेगी

लोकमत में जब नौकर हुआ, तब काम करने की त्रिस्तरीय व्यवस्था थी। पहले खबर लिखो, उसे इंचार्ज देखते थे। इंचार्ज के खबर को संपादित करने के बाद उसे कंपोजिंग में भेज दिया जाता था। कंपोजिटर उसे कंपोज करने के बाद प्रूफ रीडर को दे देता था। प्रूफ रीडर उसे पूरी तरह पढ़ते थे। पढ़ने का उनका स्टैंडर्ड गजब का था। शब्द उनके, तथ्य हमारे। वो दरअसल थे तो प्रूफ रीडर लेकिन मैं मानता हूं कि वे रीयल एडीटर थे।

<p>लोकमत में जब नौकर हुआ, तब काम करने की त्रिस्तरीय व्यवस्था थी। पहले खबर लिखो, उसे इंचार्ज देखते थे। इंचार्ज के खबर को संपादित करने के बाद उसे कंपोजिंग में भेज दिया जाता था। कंपोजिटर उसे कंपोज करने के बाद प्रूफ रीडर को दे देता था। प्रूफ रीडर उसे पूरी तरह पढ़ते थे। पढ़ने का उनका स्टैंडर्ड गजब का था। शब्द उनके, तथ्य हमारे। वो दरअसल थे तो प्रूफ रीडर लेकिन मैं मानता हूं कि वे रीयल एडीटर थे।</p>

लोकमत में जब नौकर हुआ, तब काम करने की त्रिस्तरीय व्यवस्था थी। पहले खबर लिखो, उसे इंचार्ज देखते थे। इंचार्ज के खबर को संपादित करने के बाद उसे कंपोजिंग में भेज दिया जाता था। कंपोजिटर उसे कंपोज करने के बाद प्रूफ रीडर को दे देता था। प्रूफ रीडर उसे पूरी तरह पढ़ते थे। पढ़ने का उनका स्टैंडर्ड गजब का था। शब्द उनके, तथ्य हमारे। वो दरअसल थे तो प्रूफ रीडर लेकिन मैं मानता हूं कि वे रीयल एडीटर थे।

प्रूफ की त्रुटियों को दुरुस्त करने के साथ-साथ वह संपादन भी करते थे। उसके बाद उनसे ओके होने के बाद पेजीनेशन सेक्शन में पेज जाता था। वहां आप खबरों को सिंगल, डीसी, टीसी….जो चाहें, जैसे चाहें वैसे लगा लें। फाइनली जब अखबार छपता था तब उसमें प्रूफ वाली शर्मसार करने वाली गलतियां नहीं होती थी। अखबार पढ़ने में मजा आता था। 1999 में, जब मजीठिया वेतन आयोग तो इस आयोग ने प्रूफ रीडर का पद ही समाप्त कर दिया। इसका बड़ा नुकसान हुआ।

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बीते दिनों की याद इसलिए आ रही है क्योंकि कांगड़ा में नौकरी के दौरान हर अखबार को पढ़ने का मौका मिल रहा है। कोई अखबार ऐसा नहीं जिसमें प्रूफ की गलतियां न हों। खुबसूरत ले आउट के बीच जानदार खबर। पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता है गोया मटन खाते-खाते दांतों के बीच में कंकड़ फंस गया हो। यह कंकड़ प्रूफ की गलतियां ही हैं। हर अखबार में ये गलतियां हैं। दिल्ली के अखबारों में तो संपादकीय में ब्लंडर जा रहा है।

आधुनिक दौर के अखबार मालिकों ने प्रूफ रीडर का पद समाप्त कर कंटेंट और भाषा के असली पहरेदार को मौत की नींद सुला दिया। आज भी कई अखबारों में प्रूफ रीडर (असल में इनका पदनाम उप संपादक है लेकिन पढ़ते ये प्रूफ ही हैं) हैं पर वहां अलग किस्म की गलतियां हैं। प्रूफ रीडर जो हमारे जमाने में हुआ करते थे, कोई 25 साल पहले, उनकी बात ही निराली थी। लोकमत में दयाशंकर जी सरीखे दो-तीन प्रूफ रीडर थे जिनसे छोटी सी छोटी गलती भी छुपती नहीं थी। आज वैसे प्रूफ रीडर रह कहां गए।

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इधर के दौर में खबरों की चेपा-चेपी के बीच पता ही नहीं चलता कि खबरों में प्रूफ की गलतियां हैं या गलतियों में प्रूफ है। सब जगह स्यापा है। यह स्यापा रात की नींद उड़ाने के लिए काफी है। क्या हम लोग अखबार में एक-दो प्रूफ रीडर नहीं रख सकते। जरा सोचिएगा।

ANAND SINGH
Resident Editor
हिमाचल दस्तक
कांगड़ा, (हिप्र)
9817754567
[email protected]

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0 Comments

  1. अरुण श्रीवास्तव

    August 23, 2016 at 8:20 am

    आनंद भाई आप भी गुजरे जमाने की बात कर रहे हैं। आज मालिक प्रूफ रीडर क्या सब एडीटर रिपोर्टर तक नही रखना चाहता। उसकी बस चले तो एक ही व्यक्ति से रिपोर्टिंग भी कराये, खबरें भी एडिट कराये , पेज भी लगवाये , पेज भी चेक कराये , प्लेट भी बनवाये और मशीन भी चलवाये और अखबार भी बनवाये । इसलिए कि आज मालिकानो का एक सूत्री कार्यक्रम मुनाफा और सिर्फ मुनाफा है। ऩई व्यवस्था ने सबकुछ गड्ड-मड्ड कर दिया है । इसके आप और हम हैं । हमने किसी चीज का विरोध नही किया।
    आशा है कि आप अपने लिखे को बहस का रूप देंगे।

  2. अरुण

    August 23, 2016 at 7:33 pm

    छमा करिएगा जल्दी में कुछ गल्तियां रह गई है जैसे इसके लिए हम अाप भी दोषी हैं। कई और भी होंगी।

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