Connect with us

Hi, what are you looking for?

टीवी

राजदीप चाहते तो प्रणब मुखर्जी से माफी मांगने वाला हिस्सा इंटरव्यू की एडिटिंग के दौरान हटवा सकते थे!

Nitin Thakur : प्रभु चावला का एक प्रोग्राम ‘सीधी बात’ आजतक पर आता था। एक दिन प्रभु चावला ने अपने कोंचनेवाले अंदाज़ में एक नेता को छेड़ दिया। नेताजी ने गरम होकर ऑनएयर ऐसा बहुत कुछ कह डाला जो आगे ख़बर भी बना। अगले दिन एक लड़का दूसरे को कह रहा था- ‘कल तो उस नेता ने प्रभु चावला को चुप ही करा दिया। ऐसी-ऐसी सुनाई कि प्रभु चावला मुंह देखता रह गया..कुछ बोल भी नहीं सका। इन पत्रकारों को तो ऐसे ही सुनानी चाहिए’ दूसरा लड़का चुप खड़ा था। पहले वाला और भी बहुत कुछ बोला।

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script><p>Nitin Thakur : प्रभु चावला का एक प्रोग्राम 'सीधी बात' आजतक पर आता था। एक दिन प्रभु चावला ने अपने कोंचनेवाले अंदाज़ में एक नेता को छेड़ दिया। नेताजी ने गरम होकर ऑनएयर ऐसा बहुत कुछ कह डाला जो आगे ख़बर भी बना। अगले दिन एक लड़का दूसरे को कह रहा था- 'कल तो उस नेता ने प्रभु चावला को चुप ही करा दिया। ऐसी-ऐसी सुनाई कि प्रभु चावला मुंह देखता रह गया..कुछ बोल भी नहीं सका। इन पत्रकारों को तो ऐसे ही सुनानी चाहिए' दूसरा लड़का चुप खड़ा था। पहले वाला और भी बहुत कुछ बोला।</p>

Nitin Thakur : प्रभु चावला का एक प्रोग्राम ‘सीधी बात’ आजतक पर आता था। एक दिन प्रभु चावला ने अपने कोंचनेवाले अंदाज़ में एक नेता को छेड़ दिया। नेताजी ने गरम होकर ऑनएयर ऐसा बहुत कुछ कह डाला जो आगे ख़बर भी बना। अगले दिन एक लड़का दूसरे को कह रहा था- ‘कल तो उस नेता ने प्रभु चावला को चुप ही करा दिया। ऐसी-ऐसी सुनाई कि प्रभु चावला मुंह देखता रह गया..कुछ बोल भी नहीं सका। इन पत्रकारों को तो ऐसे ही सुनानी चाहिए’ दूसरा लड़का चुप खड़ा था। पहले वाला और भी बहुत कुछ बोला।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दूसरे को जवाब ना देता देख मुझे मजबूरन बीच में बोलना पड़ा- ‘बीच में बोलने के लिए माफ करना लेकिन क्या तुम्हें समझ आया कि ये जीत प्रभु चावला की ही थी। लोग एंकर का भाषण सुनने के लिए तो टीवी नहीं देखते। ना एंकर की कोशिश होती है कि वो भाषण दे। एंकर की जीत ही इसमें है कि वो सामनेवाले से ऐसा कुछ बुलवा ले जो वो बोलने से बच रहा हो। नेताजी का योजनाबद्ध संयम तुड़वाना ही प्रभु चावला की कोशिश थी। जब तक वो संयम नहीं टूटा प्रभु चावला सवाल कर रहे थे लेकिन जैसे ही बांध टूटा तो फिर प्रभु चावला का काम हो गया और वो चुप्पी लगाकर सुनते रहे। इसे एंकर की बोलती बंद होना नहीं कहते..बल्कि सामनेवाले की ढोलक फोड़ना कहते हैं’

खैर मुझे जो समझ आया वो ज्ञान दे दिया..बाकी तो सब ज्ञानी हैं ही यहां।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आज ये ज्ञान मुझे देने की ज़रूरत इसलिए भी महसूस हुई क्योंकि दो-एक दिन पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का इंटरव्यू राजदीप सरदेसाई ने लिया। इंटरव्यू के दौरान राजदीप ने प्रणब मुखर्जी को एक जवाब के बीच में टोक कर कुछ पूछ लिया। शायद मुखर्जी अपना जवाब मुकम्मल करना चाहते थे लेकिन अचानक हुई टोकाटाकी से उन्हें हल्का गुस्सा आ गया। पुराना नेता, पकी उम्र और सर्वोच्च पद पर आसीन रहने के मिले जुले रुतबे से मुखर्जी ने जो कुछ कहा उसके बीच राजदीप ने अपनी गलती तुरंत मानी और गरिमापूर्ण ढंग से माफी मांग ली। आगे मुखर्जी ने अपना इंटरव्यू अच्छे से दिया और आखिर में खुद भी राजदीप के प्रति थोड़ा कठोर होने के लिए खेद व्यक्त किया।

बावजूद इसके राजदीप ने मुखर्जी से कहा कि मैं इसे सकारात्मक ढंग से लेता हूं। कुछ पेशेवर ट्रोल्स और मीडिया से नफरत पाल बैठे लोगों ने इसे राजदीप का मज़ाक बनाने में इस्तेमाल किया, जबकि ये सबक पत्रकारिता और राजनीति दोनों के नवागंतुकों के लिए था। समय आ गया है जब नेताओं और पत्रकारों को आपसी सम्मान रीस्टोर करना चाहिए। नेताओं को समझना होगा कि वो सत्ताधारी हैं। आज़ाद पत्रकारिता को सांस मिलती रहे तो ही उनका शासन इतिहास का उजला अध्याय माना जाएगा, और पत्रकारों को समझना पड़ेगा कि उनका काम सवालों का जवाब हासिल करना है ना कि हमलावर मुद्रा में सामने वाले को रौंद डालना। बाकी तो जिन लोगों को ना लोकतंत्र समझना है, ना राजनीति और ना पत्रकारिता ये पोस्ट उनके लिए नहीं है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सोशल मीडिया के चर्चित युवा लेखक नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से. उपरोक्त स्टेटस पर आए ढेर सारे कमेंट्स में से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं…

अविनाश विद्रोही सबसे बड़ी बात है राजदीप उस भाग को काट सकते थे क्योंकि वो लाइव नही था बाबजूद उसके उन्होंने उस अंश को लोगो को दिखाने का साहस किया ये भी एक तरह की अच्छी रिपोर्टिंग ही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Sanjaya Kumar Singh लेकिन भक्त बेचारे इतना जानते तो भक्त क्यों होते ….

Ayush Dubey Bas ye akal sab Mein hoti to sab samajhdar Na kehlaate.

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur कुछ लोगों को सब समझ है लेकिन जानबूझकर अनजान बनते हैं। उनको जो सिद्ध करना होता है सारा ज़ोर वही सिद्ध करने में लगाते हैं।

Puneet Gaur Pranav Babu has habit of scolding, even now senior Congress leaders mentioned it many times, so but his Rajdeep conduct was good, As far as cutting off the portion is concerned, it’s not possible, whole channels credibility would have been in limbo after that (whatever is left) remember Namo interview with DD

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur हां मुखर्जी का ऐसा स्वभाव भी है लेकिन बावजूद इसके अंत में उनका खेद प्रकट करना उनकी उदारता ही दर्शाता है। उन्हें इसकी भी ज़रूरत नहीं थी। बाकी चैनल के पास कोई क्लिप काट देने का पूरा अधिकार और सुविधा होती है।

रोशन मैं पत्रकारिता का छात्र हूं. ‘हमारा काम सवालों का जवाब हासिल करना है ना कि हमलावर मुद्रा में सामने वाले को रौंद डालना’, यह सबक आजीवन याद रखूंगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Kamlesh Rathore राजदीप ने अपनी गलती मानी वही बडी बात है नहीं तो आज कल के बेलगाम एंकर कहाँ सुनते किसी की। दूसरा उसे ऑनएयर किया वो बडी हिम्मत है। (वैसे वो नेता जी कौन थे सीधी बात वाले?)

Nitin Thakur नेता और जिससे कहा जा रहा था कि प्रभु चावला की बोलती बंद हो गई दोनों की पहचान गुप्त है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Ritu Raj Misra आजाद पत्रकारिता का अर्थ गुलाम इंटरव्यूई नहीं होता . नेता ने अगर कुछ बोल दिया तो वो भी संविधान के दायरे में आता है .

Nitin Thakur कहां लिखा गया कि असंवैधानिक है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Ritu Raj Misra अगर संवैधानिक है तो किसी भी थर्ड पार्टी का मंतव्य इसे परिवर्तित करने का महज एक दृष्टिकोण भर है . मिडिया अपने स्वतंत्रता के अधिकार का बहुत जिक्र करती है जबकि उसके पास और भी अधिकार हैं और भी कर्त्तव्य . जब हम मीडिया में स्वतंत्रता की बात करते हैं तो उसका अर्थ लगभग लगभग उच्छ्न्खलता होता है. मीडिया के पास दो चीजें हैं बाज़ार के नियम और एथिक्स. बाज़ार ताकतवर होता है और एथिक्स को रौंद देता है तो बचता है सिर्फ बाज़ार . मीडिया में आतंरिक नियमन के तरीके कमजोर है. मैंने किसी पर अनुशासनात्मक कार्यवाही होते हुए नहीं देखी गैर-जिम्मेदार खबरों पर . लगभग लगभग सभी संस्थाओं को इन्टरनल डिसिप्लिन के लिए कंडक्ट रूल होते हैं . मैंने नहीं देखा कि उन पर कभी कोई कार्यवाही होती है. क्या मीडिया को खुद आर टी आई के अन्दर नहीं आना चाहिए खुद इतनी बड़ी बड़ी बातें करने वाले बिलकुल अपारदर्शी और कमजोर लोग है . मीडिया अपनी आतंरिक कमियों से ढह रहा है . धीमे धीमे मीडिया शुद्ध रूप से मीडिया ही रह जायेगा वह एक कांच का टुकड़ा या लेंस होगा जिसकी नैतिक अथारटी शून्य होगी.

Nitin Thakur खबरों को लेकर मीडिया अकेला नियम नहीं बनाता है। सरकार के विभागों से उसके पास लगातार नोटिस और नोटिफिकेशन आते रहते हैं। उसके मुताबिक ही खबरें चलती हैं। पूरी तरह सरकार को अधिकार देने में डर यही है कि फिर जो सरकार आएगी वही सारे मीडिया को डीडी की तरह चलाएगी। नेहरू ने एक बार कहा था कि मीडिया थोड़ी गड़बड़ी करे तो भी मैं उसकी आज़ादी के पक्ष में हूं। स्वाभाविक है गड़बड़ी से उनका मतलब तब पेड खबरें चला लेने से नहीं रहा होगा, बल्कि वो खबरों को लेकर ही ऐसा कह रहे होंगे। आज भी ज़िम्मेदार मीडिया संस्थान किसी खबर को यूं ही नहीं चलाते। उनके पास कोई ना कोई आधार होता है। हां खबरों के चयन और एंंगल को एडिटोरियल सेंस पर छोड़ा जाता है जिसे किसी भी तरह की चुनौती देने का सीधा मतलब मीडिया की आज़ादी में दखल ही है। वैसे गलत खबरों पर लीगल नोटिस आते रहते हैं और सबको जवाब देना होता है। हर संस्थान के पास वकीलों की टीम है। लोग नहीं जानते कि मीडिया संस्थान हर दूसरे दिन कहीं ना कहीं किसी खबर पर केस लड़ते हैं। आसाराम, केजरीवाल, निर्मल बाबा के चेलों ने तो सीरीज़ में केस दायर किए थे। लोकतंत्र हैं उनको अधिकार है और उसी अधिकार के तहत ज़िम्मेदार संस्थान केस लड़ रहे हैं। इसके इतर कल-परसों में कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हुई छुटपुट वेबसाइट्स की बात अलग है । इनमें बहुत एजेंडा वेबसाइट हैं लेकिन न्यूज़ वेबसाइट्स की तरह बिहेव करती हैं। इन्होंने मीडिया की गिरती साख में और बट्टा लगाया है। हां, आरटीआई में मीडिया को आना चाहिए ये सही है। फंडिंग वगैरह का ब्यौरा जानने का सबको अधिकार होना चाहिए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Rashid Mohd राजदीप सरदेसाई ख़ुद में एक अच्छी शख्शियत है और एक मंझे हुए पत्रकार है।

Dharamveer Katoch राजदीप जानते हैं कौन सी बोल खेलनी है और कौन सी छोड़नी है,आख़िर दिलीप सरदेसाई जैसे बल्लेबाज के बेटे हैं…अब मालिकों के इशारों पर कठपुतलियों की तरह नाचने वाले इस बात को समझेंगे?

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur मुझे पता नहीं लगा कि खेलनी और छोड़नी जैसा इसमें क्या था। सवाल पूछने के लालच में और कई बार काउंटर क्वेश्चन में ओवर लैपिंग होती है। जवाब देने वाले की लय टूट जाती है। माफी मांग कर उन्होंने इंटरव्यू को सीधा सीधा चलने दिया है।

Dharamveer Katoch आज के योद्धा पत्रकार कभी मान सकते हैं कि उन्हें माफ़ी मांग लेनी चाहिये,उन्हें तो मानों दुनियां का अंतिम सत्य हाथ लग गया है!

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur हां ये बड़ी दिक्कत तो है ही।

Anuj Agrawal रविशंकर जी को ये इंटरव्यू देखना चाहिये, और उसके बाद बाजपेयी जी को दिया अपना इंटरव्यू, पुण्य सर के संयम काबिलेतारीफ था उस इंटरव्यू में…

Advertisement. Scroll to continue reading.

Shamim Uddin Ansari प्रभु चावला कोई अच्छे इंटरव्यू कर्ता नहीं थे। अरशद वारसी ने भी उनकी ख़ूब ख़बर ली थी।

Nitin Thakur अपनी अपनी पसंद है। मैं यहां रेटिंग नहीं दे रहा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

नवनीत कुमार अगर आजकल एडिटिंग होना बंद हो जाये तो कमाल हो जाये! उमर अब्दुल्ला भी एक बार ऐसे ही भड़क गए थे प्रभु जी से। तब काफी छोटे थे हम लोग लेकिन तीन पांच समझने लगे थे। उस समय प्रभु जी ने ऐसी डांट लगाई की अब्दुल्ला एकदम चुप हो गए।

Nitin Thakur चैनल मेजबान होते हैं और दूसरे लोग मेहमान। ऐसे में एंकर्स को विनम्रता बरतनी चाहिए, दूसरी बात ये है कि पत्रकार यूं भी कोई पुलिस वाला नहीं होता कि ज़ोर जबरदस्ती से बुलवा ले.. वो समझदारी से ही जवाब निकलवा सकता है। तीसरी बात ये कि कई पत्रकार नेताओं के मुकाबले बहुत विद्वान होते हैं लेकिन उनका काम अक्सर कई मौकों पर ज्ञान झाड़ना नहीं होता। उमर अब्दुल्ला तो वाकई प्रभु चावला के मुकाबले तब बहुत कम ज्ञान रखते होंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

नवनीत कुमार जी बिल्कुल उस समय अब्दुल्ला काफी यंग थे। जबकि प्रभू सर वरिष्ठ थे। और धाकड़ भी थे।

Ashok Pandey ठाकुर साहेब इसे आप चाहे सामने वाले की ढोल फोड़ना कहे या उकसा कर सामने वाले से कुछ कहलवाना , लेकिन एक बात तो सत्य है कि ऐंकर अक्सर अपनी सीमा लाँघ जाते हैं , एक सवाल के जवाब से पहले दूसरा सवाल , वो भी बिलकुल आक्रामक अंदाज में। ऐंकर को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऐंकर की ही ढोल फोड़ने को आमादा हो जाते हैं।मुझे राज ठाकरे का इंटरव्यू याद है और उस पत्रकार का चेहरा भी। खैर राजदीप सर देसाई का अंदाज पूर्व राष्ट्रपति के साथ जैसा रहा , कईयों के लिए सबक होगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur मैंने तो खुद ही माना है कि ये पत्रकारों के लिए भी एक सबक है। मैं कौन सा बचाव कर रहा हूं कि आप ये कमेंट लिखने को मजबूर हैं। बाकी रहे राज ठाकरे तो वो गुंडे हैं। उनसे सबको डरना भी चाहिए।

Ashok Pandey ठाकुर साहब मैने ऐसा क्या लिख दिया जो आपको बुरा लग गया ..

Advertisement. Scroll to continue reading.

Nitin Thakur बुरा लगने के काबिल आपने कुछ नहीं लिखा पांडे जी, मैंने बुरा माना भी नहीं है। मैंने बस इतना भर लिखा है कि मैं आपकी सीमा लांघने की बात से सहमत हूं तभी तो लिखा है कि इससे सबक लेना चाहिए।

Mohammed Saood Khan बहुत उम्दा Nitin Thakur bhai… बस आपकी आखिरी लाइन गलत है.. असल में ये पोस्ट लोकतंत्र और पत्रकारिता ना समझने वालों के लिए ज़्यादा ज़रूरी है 🙂

Advertisement. Scroll to continue reading.

Prashant Mishra आजकल क्यों ऐसा पेश किया जा रहा कि पत्रकार लोहा ले रहे राजनेताओं से? क्या ये सिर्फ़ TRP के लिए है या पत्रकारों की महत्वाकांक्षा पूरी करने का माध्यम मीडिया हो गया है? मुझे लगता है निष्पक्ष पत्रकारिता के चोले में पत्रकार अपना नैसर्गिक भाव भूल रहे हैं, और राजनीतिक एजेंडा तय करने की कोशिश करते नजर आ रहे।

Neeraj Rawat ऐसा ही रविश कुमार ने किरन बेदी के साथ किया था और …बेदी जी की सिरी राजनेतिक समझ तार तार हो गई थी ऐसे बहुत से उदाहरण है। …अच्छी पत्रकारिता के..

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

0 Comments

  1. rajk

    October 16, 2017 at 3:20 pm

    मीडिया की निष्पक्षता को लेकर बड़ी बहसें हो रही हैं आजकल…. माना कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है, लेकिन एक सवाल मैं उन लोगों से भी पूछना चाहता हूं, जो मीडिया के लिए तमाम इंची टेप लेकर खड़े हैं कि एक दर्शक के तौर पर वे खुद कितने निष्पक्ष हैं ? मुझे नहीं लगता कि सोशल मीडिया और यहां-वहां निष्पक्षता का राग अलापने वाले ज्यादातर ‘बुद्धिजीवी’ निष्पक्षता के मापदंड पर खुद भी खरे उतर पाएंगे या नहीं ! जिन्हें मोदी से एलर्जी है, वे रवीश के भक्त हैं और जो कभी जी न्यूज पर चले गए तो उन्हें उल्टी-दस्त लग जाती है. इसी तरह जिन्हें इंडिया टीवी वाले रजत शर्मा का मोदी-प्रेम पसंद है, वे एनडीटीवी को गालियां बकते मिल जाएंगे. … और दावा दोनों ही ऐसा करेंगे जैसा कि उनके जैसा निष्पक्ष कोई है ही नहीं. फिर सर्टिफिकेट बांटते फिरेंदे कि फलां पत्रकार तो बड़ा ही निष्पक्ष है और फलां तो बड़ा पक्षपाती….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement