देव श्रीमाली-
राजेन्द्र खंडेलवाल नही रहे। ये खबर हमारे उसी काल के पत्रकार दोस्त संजय मजूमदार ने दी तो झटका सा लगा। कोरोना काल में वे अक्सर फोन करते रहते थे। कुछ समय से उनकी तबीयत नाशाद थी लेकिन दुरुस्त हो रही थी कि काल के क्रूर गाल ने उन्हें अपने में समाहित कर लिया।
ग्वालियर के पत्रकारों की नई पीढ़ी के लिए सवाल हो सकता है- कौन राजेन्द्र खंडेलवाल? लेकिन अस्सी से नब्बे के दशक के पत्रकारों और पाठकों के जेहन में मध्यम कद के स्कूटर में किक लगाकर सड़को पर खबरों की तलाश में भागते राजेन्द्र का चेहरा सदैव अंकित मिलेगा। हम लोग आचरण में वर्षो तक कार्यरत रहे।
वे हमारे गुणी संपादक डॉ राम विद्रोही के नजदीक भी थे क्योंकि खंडेलवाल नई सड़क पर रहते थे और डॉ विद्रोही जी कुछ फर्लांग दूर जनकगंज में। उस दौर में आचरण में सशक्त टीम थी । राकेश अचल, सत्य प्रकाश मिश्रा, रविंद श्रीवास्तव, राजेन्द्र खंडेलवाल , देव श्रीमाली, संजय मजूमदार, विवेक श्रीवास्तव, शकील अख्तर, रूप सिंह कश्यप , कमल शर्मा ,दिनेश गुप्ता , अलकेन्द्र सहाय , डॉ राकेश पाठक, अज़ीज़ अहमद और भी कई नाम।
सब के सब अपने फन में तुर्रम खां। रात का समापन इंदरगंज के गोपाल के होटल पर होता था। मैं अल्प तन्ख्वाहभोगी था और सबसे छोटा भी लिहाजा मुझे कभी भी खाने का भुगतान नही करना होता था। ऐसी परंपरा थी कि छोटे से पैसे खर्च नही कराए जाएंगे। जिसकी बायलाइन स्टोरी छपती पार्टी उसकी तरफ से होती थी। राजेन्द्र कभी कभी दूसरे का भी भुगतान करते थे।
राजेन्द्र भाई व्यावसायिक घराने की पृष्ठभूमि से थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता भी उसी धारा की थी लेकिन पत्रकारिता से प्यार उन्हें इस ओर खींच लाया। पान खाने के शौकीन खाने और खिलाने के भी शौकीन थे। अपनी मेहनत से उन्होंने खबरों के लिए अपने शानदार और आत्मीय श्रोत तैयार किये थे जो अपराध जगत की अंदर की खबरे उन तक आसानी से पहुंचाते थे। श्रीलंका के लिट्टे के मुखिया प्रभाकरन के चंदेरी किले में होने की खबर हो या तब के खालिस्तानी आतंकवादी हरजिंदर सिंह जिंदा के इस अंचल में छुपे होने और फिर भाग निकलने की खबर देश मे पहली बार उन्होंने ही लिखी और आचरण अखबार ने छापी थी।
बाद में उन्होंने माधव नगर में एक स्कूल खोला । मैं भी उसके उदघाटन में गया था लेकिन वह भी नही चल सका और कर्ज भी दे गया। बाद में अचानक उनका फोन आया वे सिलीगुड़ी पहुंच गए है और चाय के बागान में काम करने लगे है। पहले वे कर्मचारी बने और फिर उन्होंने स्वयं का काम शुरू किया और फिर अच्छा चलने लगा।
कुछ वर्ष पहले डॉ विद्रोही जी जब ट्रेन से उस क्षेत्र से निकले तो सूचना पाकर राजेन्द्र सैकड़ो किमी दूर स्टेशन पर नाश्ता पानी लेकर खड़े मिले तो वे गदगद हो गए। उन्होंने ग्वालियर आकर बताया तो मुझे भी अच्छा लगा । वे फेसबुक के जरिये निरंतर मेरे या सभी पुराने पत्रकार साथियों से संपर्क में रहते थे । कभी कभार फोन पर बात भी करते थे और हर बार बातचीत का अंत आमंत्रण से होता था- यहां आओ न देव भाई । मज़ा आ जायेगा ।
उनका आमंत्रण स्वीकार हर बार किया लेकिन उस पर अमल अब अनंत तक अधूरा रहेगा । विगत दिनों सिलीगुड़ी में उनका दुःखद और असामयिक निधन हो गया । संघर्ष से सफलता निकालने का माद्दा रखने वाले राजेन्द्र खंडेलवाल अब नही रहे। लेकिन मुझे आज ये बताने में कतई संकोच नही है कि मैंने समाचार श्रोत तैयार करने की रीति- नीति में उनका ही अवलोकन किया जिसने मुझे आज यहां तक पहुंचाया।
हरीश दुबे
March 10, 2021 at 3:03 am
राजेंद्र खण्डेलवाल जी के साथ हमने भी वर्षों तक कार्य किया। कई मधुर यादें हैं। शत शत नमन।
हरीश दुबे
March 10, 2021 at 3:06 am
खण्डेलवाल जी को शत शत नमन