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सुख-दुख

राजीव कटारा जैसे बेमिसाल मोती आसानी से नहीं मिलते!

-क़मर वहीद नक़वी-

राजीव कटारा जैसे बेमिसाल मोती आसानी से नहीं मिलते। उन्हें हमने ऐसे खो दिया, इसका बड़ा मलाल है और रहेगा।

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1986 में जब हम लोग साप्ताहिक ‘चौथी दुनिया’ को शुरू करने के लिए ऐसे पत्रकार ढूँढ रहे थे, जिन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव हो या न हो, लेकिन जिनमें पत्रकारिता को लेकर एक अलग तरह का जज़्बा हो, तब पहली बार राजीव कटारा से मुलाक़ात हुई और तुरन्त ही वह ‘चौथी दुनिया’ का हिस्सा बन गये।

‘चौथी दुनिया’ केवल एक अख़बार नहीं था, बल्कि हिन्दी पत्रकारिता में एक विलक्षण प्रयोग था, सिर्फ़ कंटेंट के तौर पर ही नहीं, बल्कि पत्रकारिता के पेशेगत ढाँचे को लेकर भी वह एक प्रयोग था, छोटी-सी टीम, मामूली संसाधन लेकिन कहीं कोई दफ़्तरशाही नहीं।

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राजीव बेहद ख़ुशनुमा और जीवन के हर मामले में 100 टंच खरे और ईमानदार इनसान थे। अपने काम को लेकर पूरी तरह गम्भीर, कहीं कोई कसर नहीं छोड़ते थे। पढ़ना-लिखना, समझना, सीखना और पत्रकारिता के उसूलों से इंच भर भी नहीं डिगना, राजीव पूरी ज़िन्दगी इसी तरह जिये। न किसी के प्रति कभी कोई दुर्भावना, न क्रोध और न किसी प्रकार की राजनीति में शामिल होना। लेकिन जो बात ग़लत है, आप राजीव से कभी उसे ‘सही’ नहीं कहलवा सकते थे। जो ग़लत है, सो ग़लत है, चाहे वह बात कहीं से भी आयी हो।

वह कुछ दिनों के लिए टीवी में भी आये और 1995 में ‘आज तक’ की शुरुआती टीम का हिस्सा बने, लेकिन उन दिनों टीवी की 90 सेकेंड की स्टोरी की सीमा में बँधना उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा और वह प्रिंट में वापस लौट गये। इस तरह की सीमाओं से उन्हें हमेशा ही परेशानी होती थी।

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राजीव जैसे प्रतिभासम्पन्न, प्रतिबद्ध, पेशे और जीवन के हर सम्बन्धों के प्रति सौ फ़ीसदी ईमानदार और बेहद संवेदनशील पत्रकार बिरले ही मिलते हैं। वह वाक़ई एक बेमिसाल मोती थे, जिन्हें हमने असमय ही खो दिया। श्रद्धाँजलि।

-अकू श्रीवास्तव-

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सुबह ऐसे ही जब फेसबुक खोला, बुरी खबर ने अंदर तक हिला दिया। यह सोचना भी मुश्किल था राजीव कटारा नहीं रहे। राजीव से रिश्तों पर अगर बात की जाए तो मेरे पास यादों के खजाने हैं और उससे ज्यादा उस आदमी की भलमनसाहत के किस्से। हम तो दिल्ली में कादम्बिनी में साथ काम करते थे तो उनका व्यवहार और उनका कंसर्न आपको अपनेपन का एहसास दिलाता था। लेकिन जब मैं दिल्ली में नहीं था तो भी मैं उनके ज्ञान का मुरीद था। उनके दो कॉलम मैं से बहुत कम ही ऐसे होंगे जो मैंने नहीं पढ़े होंगे ।अपने आप को मोटिवेशनल गुरु बताने वाले लोग उनसे कुछ सुन सकते थे उनसे कुछ सीख सकते थे/हैं। सच कहूं तो मैंने उनका नमक खाया है। दिल्ली में हिंदुस्तान बिल्डिंग में दोपहर का खाना हम साथ करते थे। इसके अलावा ज्ञान का नमक भी मैंने उनसे चखा था। उनको श्रद्धांजलि और ईश्वर से प्रार्थना की कटारा परिवार को यह दुख सहने की क्षमता दे।

-राजेश प्रियदर्शी-

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निर्मल मन वाले, अत्यंत सज्जन राजीव कटारा जी का निधन बेहद दुखद है. हमेशा उन्होंने छोटे भाई की तरह स्नेह दिया, आज तक उनके मुँह से कोई ऐसी बात नहीं सुनी जो किसी भी तरह से, किसी के लिए भी अप्रिय हो. संत की तरह पूरा जीवन जीने वाले कटारा जी से पिछले महीने फ़ोन पर बात हुई थी, कोरोना का कोहरा छँटते ही मिलने का वादा हुआ था, लेकिन यह नहीं होना था. यह दुर्योग है कि जिन दो लोगों के साथ मैंने आजतक के बिल्कुल शुरुआती दौर में काम करके इतना कुछ सीखा वे अब इस दुनिया में नहीं हैं. पहले अजय चौधरी गए और अब राजीव कटारा.

लंबे समय कादंबिनी के एडिटर रहे कटारा जी को कोरोना ने हमसे छीन लिया. वे और मैं बिल्कुल साथ बैठकर टीवी बुलेटिन की कॉपियाँ लिखा करते थे 1996 में. उनके आजतक छोड़ने और मेरे लंदन जाने के बाद भी उनसे संपर्क बना रहा.

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उनको जानने वाले सभी लोग मेरी ही तरह दुखी होंगे क्योंकि वो थे ही ऐसे कि जिसका साथ छूटना किसी बहुत क़ीमती चीज़ के खो जाने जैसा है. कटारा जी की पुण्य स्मृति को सादर नमन.

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