सत्येंद्र पीएस-
पाखंड, पोंगापंथ, शोषण के खिलाफ सशक्त आवाज रहे राजकिशोर आजीवन वंचितों, महिलाओं और शोषित तबके के पक्ष में आवाज उठाने के लिए जाने जाते है। अपनी पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए उन्होंने निजी सुख सुविधाओं को कुर्बान किया। सिद्धांतों से समझौता न करके अपनी शर्तों पर जीने वाले वह देश के चुनिंदा पत्रकारों में से एक थे।
1990 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मण्डल कमीशन रिपोर्ट लागू की तो एसपी सिंह के अलावा राजकिशोर उस दौर के बड़े विचार सम्पादकों में शामिल थे, जिन्होंने पिछड़े तबके के आरक्षण के पक्ष में भरपूर कलम चलाई।
1991 के उदारीकरण के बाद देश में पत्रकारिता का माहौल बदल रहा था। अखबारों ने परोक्ष घोषणा कर दी कि वह विज्ञापनदाताओं के मुताबिक खबर देंगे। उन दिनों राजकिशोर के लेख देश मे सर्वाधिक पढ़े जाते थे। लेकिन यह माहौल बनाया गया कि भारी भरकम सम्पादकीय लेखों के अब कोई पाठक नहीं हैं।
उसी समय से राजकिशोर का संस्थानात्मक पत्रकारिता से टकराव शुरू हुआ। नौकरी उन्होंने छोड़ दी या छुड़ा दी गई, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन उसके बाद उन्होंने नौकरी नहीं की। अनुवाद और विभिन्न अखबारों में लेख, किताबें लिखकर परिवार का खर्च चलाते रहे।
इसका खामियाजा उन्हें अपनी निजी जिंदगी में चुकाना पड़ा। उन्हें अफसोस बना रहता था कि परिवार का भरण पोषण वह उस तरीके से कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं, जैसा कि वह चाहते हैं।
यह सब होने के बावजूद उन्होंने अपने पत्रकारीय कर्म से कभी समझौता नहीं किया। समाजवादी विचारधारा के राजकिशोर न तो कभी सत्ता के करीब गए, न किसी समाजवादी सत्तासीन से कोई नजदीकी बनाई। वह मृत्यु के पहले तक लेखन में सक्रिय रहे। उनका आखिरी लेखन बीआर अम्बेडकर के एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स पर था। उन्होंने उसका अनुवाद ही नहीं किया, विस्तार से विभिन्न बिंदुओं पर तथ्यपरक टिप्पणियां लिखीं, जो उस किताब को अहम बनाती है। यह पुस्तक उनके मृत्योपरांत प्रकाशित हो सकी।
2014 में आरएसएस भाजपा के उभार के बाद वह एक वैकल्पिक राजनीति के पक्षधर बन गए। उनका मानना था कि मौजूदा राजनीतिक दलों से जनता की निराशा की वजह से साम्प्रदायिक उभार का यह दौर देखने को मिल रहा है।
हमारे समय के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और सबसे ज्यादा पढ़े गए संपादक-लेखक राजकिशोर निजी जीवन में नास्तिक थे। वे किसी धर्म के विरोधी नहीं थे, इसलिए अगर कोई उन्हें धार्मिक आयोजन मे बुलाता था, तो अधार्मिक होने के बावजूद वे चले भी जाते थे।
मरने के बाद भी राजकिशोर तो राजकिशोर ही रहे। अंतिम विदाई में ब्राह्मण पुजारी को जगह नहीं। अस्थि कलश या किसी और पाखंड का स्थान नहीं।
जब उन्हें अंतिम विदाई दी जा रही थी तो किसी ने विद्युत शवदाह गृह पर उनकी पत्नी से पूछा कि कर्मकांड करने के लिए क्या ब्राह्मण को बुला लें, तो उनका जवाब गौर से सुनने लायक था।
उन्होंने कहा, “राजकिशोर जी को पाखंड पसंद नहीं था. वे धार्मिक संस्कारों को नहीं मानते थे. मुझे उनके न रहने के बाद भी, उनके विचारों का आदर करना चाहिए। यहां ब्राह्मण को कर्मकांड के लिए बुलाने की जरूरत नहीं है. न ही यहां से अस्थि ले जाने की जरूरत है।” राजकिशोर की बेटी ने भी यही राय दी। कर्मकांड नहीं होगा।
वैचारिक रूप से ऐसी दृढ महिला के सामने किसी पाखंड के लिए कोई स्थान नहीं था।राजकिशोर जी की विदाई उनके विचारों के मुताबिक ही हुई।
राजकिशोर एक ऐसे योद्धा के रूप में याद किये जाते रहेंगे, जिन्होंने कभी सिद्धांतो से समझौता नहीं किया। निजी जिंदगी में अभाव झेलते रहे, लेकिन उनकी कलम हमेशा समाज के उस तबके के पक्ष में चलती रही, जो सत्ता और समाज के ताकतवर तबके के सताए हुए लोग होते थे।