लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार राज कुमार सिंह की दो कविताएं ‘इंडिया इनसाइड’ मैग्जीन की साहित्य वार्षिकी-2018 में प्रकाशित हुई हैं. एक पत्रकार जो हर पल समाज, समय और सत्ता पर नज़र रखता है, उन्हें वह खबरों के जरिए तो उकेरता लिखता ही है, जो कुछ छूट जाता है, बच जाता है, अंतस में, उसे वह कविता में ढाल देता है.
राज कुमार सिंह टीवी और अखबार दोनों में लंबे समय से सक्रिय हैं. फिलहाल लखनऊ में रहते हुए नवभारत टाइम्स अखबार में राजनीतिक संपादक के रूप में सक्रिय हैं. पढ़िए उनकी दोनों कविताएं…
1- चश्मा—
मेरे चेहरे और दुनिया के बीच
एक और दुनिया है
जो मेरे चश्मे ने बनाई है
ये तीसरी दुनिया साल दर साल
चश्मे के कांच की तरह मोटी हो रही है
मेरा चेहरा अब मेरे चश्मे का चेहरा है
आंखें चश्मे के हिसाब से देखती हैं
माथा चश्मे के हिसाब से सोचता है
दुनिया को मैं चश्मे के नंबरों से मापता हूं
घटते-बढ़ते, उतरते-चढ़ते
उम्र के साथ बढ़ रहा है चश्मे का दखल
ये दिल तक पहुंच गया है
धुंधलके की भी कीमत होती है
मेरा चेहरा इसे चुका रहा है
एक दिन खत्म हो जाएगी
मेरे अंदर और बाहर की दुनिया
बस बची रहेगी ये तीसरी दुनिया
वैसे ही जैसे रह जाएगा मेरा चश्मा मेरे चेहरे के बाद भी
मेरे बाद हो सके तो देखना मेरे चश्मे से
शायद ये दुनिया तुम्हें कुछ अलग दिखाई दे.
2- जड़ें–
हम ऐसी जड़ें हैं
जिन्हें बढ़ने के लिए
न तो बहुत खाद-पानी चाहिए
और न ही बहुत गहराई
गमलों में सिकुड़ जाती हैं मनीप्लांट की तरह
लान में फैल जाती हैं दूब की तरह
हम ऐसी जड़ें हैं जहां भी रहते हैं फैल जाते हैं थोड़ा-थोड़ा
धरती हो या दिल उतर जाते हैं थोड़ा भीतर
कर देते हैं थोड़ा नम
जकड़ कर बचा लेते हैं मिट्टी और मन को बहने से
हमारी जड़ें जड़ नहीं रहतीं
हम खानाबदोश लोग
अपनी जड़ों को झोले में लेकर चलते हैं
जहां भी रुके रोप देते हैं
और इस तरह सारे खानाबदोश
जुड़ जाते हैं एक दूसरे की जड़ों से
जल-थल-नभ की सीमा को तोड़कर
वो दौर और था जब लोग जड़ों से कट जाते थे
ये दौर और है अब जड़ें कटती नही हैं
बिखर जाती हैं, गुंथ जाती है, पकड़ लेती हैं
लोग भले ही कट जाएं, टूट जाएं
पर जड़ें जुड़ी रहती हैं और जुड़ी रहती हैं.
-राज कुमार सिंह
https://www.youtube.com/watch?v=c3W8P_afGK8