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सुख-दुख

हे राम तुम्हारे कितने रूप!

शंभूनाथ शुक्ल-

कम्बन रामायण का एक प्रसंग है। विभीषण राम की शरण में आए हैं, मंथन चल रहा है कि इन पर भरोसा किया जाए या नहीं। सुग्रीव भी तय नहीं कर पा रहे हैं न जामवंत। कई वानर वीर तो विभीषण को साथ लेने के घोर विरोधी है, उनका कहना है कि राक्षसों को कोई भरोसा नहीं। क्या पता रावण ने कोई भेदिया भेजा हो।

राम को विभीषण की बातों से सच्चाई तो झलकती है, लेकिन राम अपनी ही राय थोपना नहीं चाहते। वे चुप बैठे सब को सुन रहे हैं। सिर्फ बालि का पुत्र अंगद ही इस राय का है कि विभीषण पर भरोसा किया जाए। तब राम ने हनुमान की ओर देखा। हनुमान अत्यंत विनम्र स्वर में बोले- “प्रभु आप हमसे क्यों अभिप्राय मांगते हैं? स्वयं गुरु वृहस्पति भी आपसे अधिक समझदार नहीं हो सकते। लेकिन मेरा मानना है कि विभीषण को अपने पक्ष में शामिल करने में कोई डर नहीं है। क्योंकि यदि वह हमारा अहित करना चाहता तो छिपकर आता, इस प्रकार खुल्लम-खुल्ला न आता। हमारे मित्र कहते हैं कि शत्रु पक्ष से जो इस प्रकार अचानक हमारे पास आता है, उस पर भरोसा कैसे किया जाए! किन्तु यदि कोई अपने भाई के दुर्गुणों को देखकर उसे चाहना छोड़ दे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। आपकी महिमा से विभीषण प्रभावित हो, तो इसमें आश्चर्य कैसा! परिस्थितियों को देखते हुए मुझे विभीषण पर किसी प्रकार की शंका नहीं होती”।

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अब राम चाहते तो विभीषण के बारे में अपना फैसला सुना देते, लेकिन उन्होंने अपने समस्त सहयोगियों की राय ली। यही उनकी महानता है और सबकी राय को ग्रहण करने की क्षमता। वे वानर वीरों को भी अपने बराबर का सम्मान देते हैं। (कंबन की तमिल रामायण का यह अंश, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी की पुस्तक दशरथ-नंदन श्रीराम से है। चक्रवर्ती जी की इस अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद उनकी पुत्री और महात्मा गाँधी की पुत्रवधू लक्ष्मी देवदास गाँधी ने किया है)

राम कथा का यह नैतिक और मार्मिक प्रसंग राम की प्रासंगिकता बढ़ा देता है। ऐसे राम जो सर्वेसर्वा हैं, लेकिन वे अपनी मनमानी नहीं चलाते, भला क्यों न पूज्य हों! यही कारण है कि राम का नाम ही ईश्वर का पर्याय बन गया। राम के लिए तुलसी ने कहा है, रामहिं केवल प्रेम पियारा! अर्थात् राम को भक्त का प्रेम चाहिए। प्रेम जो श्रद्धा और विश्वास से आता है। यही श्रद्धा और विश्वास राम की प्राप्ति का माध्यम है। वे राम जो सबको प्रीतिकर हैं। उन्हीं को हम याद करते हैं, दोनों नवरात्रों में। जहां चैत्र के नवरात्रों में राम नवमी का पूजन होता है, क्योंकि उसी दिन राम पैदा हुए थे तो क्वार (अश्विन) की नवरात्रों के दसवें दिन राम रावण पर विजय हासिल करते हैं। रावण जो बुराई का प्रतीक है, उसका संहार करते हैं।

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पौराणिक मान्यता के अनुसार विजयादशमी के रोज़ राम ने रावण का वध किया था। कहीं-कहीं इसे महिषासुर वध के रूप में मनाते हैं। वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है किंतु उसके अच्छे-बुरे पहलुओं को समझने का प्रयास कभी नहीं किया गया। राम के चरित्र का उज्ज्वल पक्ष क्या है और स्याह पक्ष कौन-सा है, जब तक यह नहीं समझा जाएगा, तब तक इस तरह लकीर पीटने से क्या फ़ायदा! नौ दिन तक राम लीला हुई और दसवें दिन रावण फुँक गया। बस क़िस्सा ख़त्म। होना तो यह चाहिए, कि इस पूरे आख्यान को भारत में उखड़ती हुई मातृसत्ता और पनपते हुए सामन्तवाद के रूप में देखे जाने का प्रयास किया जाता। तब शायद हम अधिक बेहतर ढंग से अपने पुराणों को समझ पाते। लेकिन इसके बावजूद राम के चरित्र का एक अत्यंत उज्ज्वल पक्ष हम नहीं देख पाते और वह है राम के द्वारा शत्रु पक्ष के प्रति अपनायी गई नीति। राम ने विभीषण को बिना किसी लाभ के शरण दी थी। वह तो बाद में विभीषण उनके लिए उपयोगी बना।
दरअसल समाज में सदैव दो तरह के लोग होते हैं। एक लिबरल जो सामाजिक उदारवाद के हामी होते हैं। वे ऊँच-नीच की भावना से परे और समाज में पिछड़ चुके लोगों के उत्थान के लिए प्रयासरत रहते हैं। ये लोग थोथी नैतिकता के विरोधी तथा प्रेम और सौहार्द को बढ़ावा देते हैं। दूसरे वे जिन्हें कट्टरपंथी कहा जाता है। ये लोग प्राचीन मान्यताओं को जस की तस अमल में लाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और मानते हैं कि समाज में ऊँच-नीच तो विधि का विधान है। पिछड़े और वंचित तबके के प्रति इनका व्यवहार दुराग्रही होता व स्त्रियों को खुल कर जीने या जाति, बिरादरी अथवा समुदाय से बाहर जा कर विवाह करने की छूट देने के विरोधी होते हैं। ठीक इसी के अनुरूप इस तरह के लोगों के अपने-अपने राजनीतिक दल होते हैं। मोटे तौर पर इन्हें लिबरल और कंजरवेटिव कह सकते हैं। लेकिन कोई भी समाज विकास तब ही करता है, जब उसके अंदर लिबरल विचार के लोगों की बढ़त हो। कोई धार्मिक है या अधार्मिक अथवा आस्तिक है या नास्तिक इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता। धार्मिक होकर भी व्यक्ति सामाजिक रूप से उदार हो सकता है और एकदम नास्तिक होकर भी वह कट्टरपंथी विचारों का पैरोकार। असल बात है कि वह चीजों को लेता किस तरह है।


फ़्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक “परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य का उदय” में ग्रीक पुराणों में वर्णित स्त्री-पुरुष संबंधों की नैतिकता पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि उस समय के समाज के मूल्यों और नैतिकता को आज के नैतिक मूल्यों से जोड़ कर हम व्याख्यायित करें तो इसका अर्थ है कि हम खुद अनैतिक हैं। इसी तरह विश्वनाथ काशीनाथ रजवाड़े ने ‘भारतीय विवाह परंपरा का इतिहास’ में लिखा है कि समाज और उसके मूल्य उत्तरोत्तर तरक़्क़ी करते हैं। जो कल नैतिक था, वह आज अनैतिक है। किंतु भारतीय समाज का कट्टरपंथी तबके में अपने मिथकीय चरित्रों से इतना मोह है कि वह प्राचीन मूल्यों को ढोने को आतुर है।

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आज के त्योहारी सीजन में तो यही दिखता है। नवरात्रि में लोगों को अपने पौराणिक चरित्रों के साथ ऐसी आसक्ति जागती है, जैसे उनका वश चले तो उन चरित्रों को जीवंत कर दें। लेकिन सिर्फ़ दिखावे के तौर पर क्योंकि यह उन्हें भी पता है कि उन पौराणिक चरित्रों की नैतिकता आज के समय के लिए क़तई व्यावहारिक नहीं हैं।
इसलिए हमें अपने पौराणिक चरित्रों को भी इतिहास और समाज के बदलते मूल्यों के संदर्भ में लेना चाहिए। समाज बदलता है तो मूल्य और नैतिकता भी। आज हम उस प्राग-ऐतिहासिक काल से बहुत आगे बढ़ गए हैं। इसीलिए अब मिथकों के काल में जीने का मतलब है कि हम हज़ारों वर्ष पीछे जा रहे हैं। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि राम ऐतिहासिक पुरुष तो नहीं थे किंतु वे अपने समय की सत्ता को स्थापित कर रहे थे। वह समय था स्त्री-पतन का और दासत्त्व को स्थापित करने का। दुनिया भर में पराजित लोगों को स्लेव या दास बनाए जाने के उदाहरण मिलते हैं। इसीलिए ताड़का वध से लेकर शूर्पणखा के नाक-कान काटने के क़िस्से वाल्मीकि रामायण में हैं तो सीता की अग्नि परीक्षा, सीता वनवास के भी।

लेकिन परवर्ती रामायणों में उस समय के मानकों के अनुसार बहुत सारे प्रसंग ग़ायब होते रहे। जैसे अग्नि परीक्षा को तुलसी दास ने माया करार दिया और सीता वनवास को वे गोल कर गए। तमिल कवि कम्बन (12वीं शताब्दी) ने कई प्रसंग हटा दिए और कई जोड़ दिए। ऐसा ही कई अन्य रामायणों में भी हुआ। लेकिन राम के चरित्र के साथ शम्बूक वध भी जुड़ा और स्त्रियों के प्रति दोयम दर्जा अपनाने का भाव भी। हर रामायण में वे प्रजा वत्सल और समदर्शी व न्यायी कहे गए हैं, फिर उनका चरित्र शूद्र व स्त्री के प्रति भेद-भाव वाला कैसे रहा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

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इसलिए फ़्रेडरिक एंगेल्स की तरह इस सच्चाई को स्वीकार करिए कि राम के आदर्श आज के लिए उपयुक्त नहीं हैं। हमें उन्हीं को लेना चाहिए जो चिरंतन सत्य हैं। जो हमें शरण में आए व्यक्ति की रक्षा की प्रेरणा देते हैं। जहां शत्रु रावण के प्रति भी आदर का भाव है इसीलिए राम अपने भाई लक्ष्मण को युद्ध में घायल पड़े रावण के पास भेजते हैं कि लक्ष्मण! आज विश्व का सबसे बड़ा विद्वान और बलशाली नरेश मरणासन्न है, जा कर उससे कुछ ज्ञान लो। ऐसे राम सदैव लुभाते रहेंगे। धनुर्धारी और राक्षसों और निरीह वानरों का अकारण वध करने वाले, महिला के नाक-कान काटने वाले, पत्नी के सतीत्त्व की अग्नि परीक्षा लेने वाले राम से विरक्ति होगी ही।

इंडोनेशिया की रामायण में बताया गया है, कि राक्षस लोग विज्ञान के बड़े आविष्कारक थे और ये दूरभाष के ज्ञाता थे इसीलिए इन्हें जब पकड़ा जाता था तो इनकी पहली सजा के तौर पर इनके कान काटे जाते थे ताकि ये केंद्र से संपर्क में न रह सकें। शूर्पणखा पर पहला यह प्रयोग हुआ था। इस यंत्र का शोधकर्ता कुंभकर्ण था। रावण की सेना के दस डिवीजन थे। लंका की सुरक्षा हेतु हवाई यंत्रों की देखरेख वह स्वयं करता था। उसकी हवाई सेना वानरों की हवाई सेना की तुलना में ज्यादा मजबूत और सिद्घ थी। इसलिए लंका पर हवाई हमला करना या थल मार्ग से हमला करना आसान नहीं था। यही कारण है कि राम ने लंका पर हमला करने के लिए छापामार युद्घ की तकनीक अपनाई। यहीं रावण की सेना चूक गई क्योंकि राक्षस इस छापामार व्यूह रचना से अनभिज्ञ थे।

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रावण की परंपरागत सेना राम की गुरिल्ला नीति से घबरा गई। राम की सेना के वानर जाते और रावण की सेना में पलीता लगाकर चले आते। इससे रावण की सेना को बहुत नुकसान हुआ। यूं राक्षस राज रावण की सेना इतनी बहादुर थी कि राम के लिए यह आसान नहीं था कि वे रावण की सेना को परास्त कर सकें। इसीलिए उन्होंने रावण को पराजित करने के लिए छल, छद्म, भय और प्रीति का संबल लिया। रावण के भाई विभीषण को अपनी तरफ मिला कर राम ने वह दांव फेका जो रावण ने कभी सोचा तक नहीं था। राम अगर कूटनीति और कपट नीति का सहारा नहीं लेते तो रावण को हराना असंभव था। लेकिन रावण ने अपने अनाचार और आततायी होने के कारण अपने ही घर में अपने भाई तक को उसने अपना शत्रु बना लिया था। यही कारण था कि भाई विभीषण रावण से मुक्ति पाने के लिए राम की मदद को राजी हो गया। जाहिर है लंका में विभीषण अकेले नहीं रहे होंगे बल्कि असंख्य विभीषणों की मदद राम को रावण के विरुद्घ मिली होगी।

उस समय ऋषि-मुनियों के जो आश्रम थे उनमें निरंतर शोध होता रहता था। ये शोध केंद्र युद्घ कौशल को उन्नत करने हेतु खोले गए थे। रामकथा में एक उद्घरण है कि राम की सेना ने लंका को चारों तरफ से घेरा हुआ है पर सूर्य व्यूह के चलते लंका की सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद थी और राम की सेना लाख कोशिश करने के बाद भी लंका में प्रवेश नहीं कर पा रही थी। तब अगस्त्य मुनि ने आकर राम को स्वयं आदित्य द्वारा रचा गया हृदय स्रोत सिखाया था। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में जो मंत्र-तंत्र का जिक्र मिलता है वह दरअसल युत्र कला ही है। अब सोचिए अगर सूर्य व्यूह को भेदने की कला स्वयं भगवान सूर्य द्वारा रचित हृदय स्रोत से राम को न पता चलती तो रावण को मार कर भी उनकी सेना लंका में प्रवेश नहीं कर पाती। इसके पहले रावण को मारना भी आसान नहीं था। लंका नरेश रावण को तमाम सिद्घियां प्राप्त थीं इसी के तहत अगर उनके सारे शीश काट दिए जाते फिर भी उनका प्राणांत मुश्किल था। तब विभीषण ने ही राम को वह मंत्र बताया था कि प्रभु रावण की नाभि पर वार करें क्योंकि उसे अमरत्व की विद्या आती है।

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रामलीला में सीता स्वयंवर
क्वार की नवरात्रों में होने वाली रामलीला में सबसे रोचक प्रसंग है, धनुष भंग का। सीता स्वयंवर हेतु दरबार में उस विशालकाय शिव धनुष को रखा जाता है। पृथ्वी भर से पधारे सभी महान और बलशाली राजा शिव धनुष तोड़ने के इरादे से उसके क़रीब जाते हैं। लेकिन तोड़ना तो दूर वे उसे हिला तक नहीं पाते। इसके बाद शुरू होता था जनक विलाप। यह कन्या के पिता का दुःख है. राजा जनक मंच पर आकर रोते हुए कहते हैं, कि हाय! विधाता ने क्या मेरी कन्या सीता के लिए उसके उपयुक्त कोई वर नहीं लिखा? क्या यह पृथ्वी वीरों से ख़ाली है? जो इतने बड़े शूरवीर राजा शिव धनुष को तोड़ना तो दूर उसे तिल भर खिसका तक नहीं सके।

राजा जनक का यह ताना सुन कर लक्ष्मण मंच पर आते हैं। वे कहते हैं, कि महाराज जनक आपको तो जगत में ज्ञानी और मोह-माया से मुक्त विदेह के रूप में जाना जाता है। लेकिन आप पुत्री को लेकर इतने व्याकुल हो गए कि कुछ भी बोलने लगे। आप ने यह कैसे कह दिया कि पृथ्वी वीरों से ख़ाली है? क्या आपको पता नहीं, कि पृथ्वी में जब तक रघुवंश का कोई भी व्यक्ति विद्यमान है, तब तक इस पृथ्वी को वीरों से हीन नहीं कहा जा सकता। और यहाँ तो स्वयं रघुवंश शिरोमणि मेरे बड़े भाई राम बैठे हुए हैं।

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उन्होंने इतनी कम उम्र में ही मरीचि जैसे असुरों को भगा दिया है। ताड़का का वध किया है। वे इतने वीर हैं, कि कोई भी उनके समक्ष टिक नहीं सकता। आपको उनके रहते ऐसे वचन बोलना शोभा नहीं देता। भैया राम तो अगर मुझे ही आदेश कर दें तो मैं यह धनुष तो क्या, समूचा ब्रह्मांड ही किसी गेंद की भाँति उछाल सकता हूँ। लक्ष्मण के क्रोध से राजा जनक की सभा स्तब्ध रह जाती है. और तब अपने गुरू विश्वमित्र की आज्ञा से राम उठते हैं। वे लक्ष्मण को चुप रहने का संकेत करते हैं। तथा धनुष के क़रीब जाकर उसे एक ही झटके से उठा लेते हैं. इसके बाद उसकी प्रत्यंचा खींचते हैं, धनुष टूट जाता है।

इसके बाद सीता मंच पर आती हैं, और राम के गले में वरमाल डालती हैं और राम विवाह संपन्न हो जाता है। एक तरफ़ मंच पर राम विवाह हो रहा है, मंगल गीत गाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ़ मंच में परशुराम को तपस्यारत दिखाया जाता है, जिनका शिव धनुष के टूटने के कारण जो ध्वनि हुई उसके चलते ध्यानभंग हो जाता है। वे नेत्र खोलते हैं और अपनी चमत्कारिक शक्तियों से जान जाते हैं, कि राजा जनक के महल में रखा शिव धनुष टूट गया है। वे क्रोधित हो उठते हैं। ग़ुस्से में वे शिव स्तोत्र का पाठ करते हैं-
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥
जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:॥

शिव स्तोत्र की यह लयबद्ध ध्वनि इतनी प्रभावोत्पादक होती थी, कि इसकी ध्वनि गूंजते ही लोग भाग कर लीला देखने आ ज़ाया करते थे। परशुराम का अभिनय करने वाला जो भी पात्र जितनी अधिक आवाज़ के साथ इसका पारायण करे, उसे उतना ही विद्वान समझा जाता था। परशुराम को मन की गति से कहीं भी पहुँच जाने का वरदान प्राप्त था, इसलिए पालक झपकते ही वे मिथिला आ जाते हैं। वहाँ उपस्थित सभी राजाओं की घिग्घी बँध जाती है। परशुराम बहुत क्रोधी ऋषि थे, और उनके बारे में विख्यात था, कि पूरी पृथ्वी को उन्होंने 21 बार क्षत्रिय विहीन किया था। हो सकता है, इसका आशय रहा हो, कि उन्होंने 21 बार अत्याचारी शासकों का नाश किया था। लेकिन अब वे इस खून ख़राबा से दूर मंदराचल पर्वत पर तपस्या करते हैं। इसलिए राजा लोग निश्चिंत थे। किंतु अचानक उनके आ जाने से सब लोग घबरा गए। राजा जनक उनके पास जाकर उनकी आवभगत करते हैं।

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परंतु जैसे ही परशुराम की नज़र जैसे ही टूटे हुए शिव धनुष “पिनाक” पर पड़ती है, वे क्रोधित हो उठते हैं। वे राजा जनक को कहते हैं, कि जनक तुम अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें बंद करो, यह बताओ कि भगवान शिव का यह धनुष किसने तोड़ा? मैं उस व्यक्ति का तत्काल वध कर दूँगा। राजा जनक तो इतना सुनते ही सन्नाटे में आ जाते हैं। वे सोचने लगते हैं, कि क्या उनकी बेटी ब्याहते ही विधवा हो जाएगी? क्योंकि परशुराम की क्रोधाग्नि से कोई बच नहीं सकता था, और युद्ध में उनसे कोई जीत नहीं सकता था। वे उनके क्रोध को शांत करने के लिए खूब अनुनय-विनय करते हैं। पर परशुराम बिफरते ही जाते हैं। तब राम स्वयं उनके समीप आकर प्रणाम करने के बाद कहते हैं, कि हे महावीर महर्षि! इस शिव धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई दास है।

अभी तक इस रामलीला में राधेश्याम कथावाचक द्वारा लिखी गई रामायण के संवाद बोले जाते थे, लेकिन इस दृश्य के साथ ही मंच के कोने में जमी व्यास पीठ से तुलसी के रामचरित मानस की चौपाइयाँ गूँजने लगती हैं.
नाथ संभु धनु भंजनि हारा। होइहि कोउ इक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥

राम की विनम्रता और लक्ष्मण की चपलता को इस लीला में खूब सहेजा जाता है। अंत में परशुराम राम के समक्ष विनत हो जाते हैं।

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