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सुख-दुख

पंकज पचौरी की मूर्खता बनाम रवीश कुमार का अहंकार

रवीश बाबू, इतना स्मार्ट बनना और अपमानित करना गुड बात नहीं

-दयानंद पांडेय-

एक समय मैं रवीश कुमार के अनन्यतम प्रशंसकों में से एक था। उन की स्पेशल रिपोर्ट को ले कर उन पर एक लेख भी लिखा था सरोकारनामा पर कभी। रवीश तब मेरे इस लिखे पर न्यौछावर हो गए थे। मुझे भी अच्छा लगा था उन का यह न्यौछावर होना । यह लेख अब मेरी एक किताब में भी है। मेरी मातृभाषा भी भोजपुरी है इस नाते भी उन से बहुत प्यार है। लेकिन बीते कुछ समय से जिस तरह सहजता भरे अभिनय में अपने को सम्राट की तरह वह उपस्थित कर रहे हैं और लाऊड हो रहे हैं , एकतरफा बातें करते हुए और कि अपने अहमक अंदाज़ में लोगों का भरपूर अपमान हूं या हां कह कर कर रहे हैं और कि एक ढीठ पूर्वाग्रह के साथ अपने को प्रस्तुत कर रहे हैं जिस का कि किसी तथ्य और तर्क से कोई वास्ता नहीं होता वह अपनी साख, अपनी गरिमा और अपना तेवर वह बुरी तरह गंवा चुके हैं।

रवीश बाबू, इतना स्मार्ट बनना और अपमानित करना गुड बात नहीं

-दयानंद पांडेय-

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एक समय मैं रवीश कुमार के अनन्यतम प्रशंसकों में से एक था। उन की स्पेशल रिपोर्ट को ले कर उन पर एक लेख भी लिखा था सरोकारनामा पर कभी। रवीश तब मेरे इस लिखे पर न्यौछावर हो गए थे। मुझे भी अच्छा लगा था उन का यह न्यौछावर होना । यह लेख अब मेरी एक किताब में भी है। मेरी मातृभाषा भी भोजपुरी है इस नाते भी उन से बहुत प्यार है। लेकिन बीते कुछ समय से जिस तरह सहजता भरे अभिनय में अपने को सम्राट की तरह वह उपस्थित कर रहे हैं और लाऊड हो रहे हैं , एकतरफा बातें करते हुए और कि अपने अहमक अंदाज़ में लोगों का भरपूर अपमान हूं या हां कह कर कर रहे हैं और कि एक ढीठ पूर्वाग्रह के साथ अपने को प्रस्तुत कर रहे हैं जिस का कि किसी तथ्य और तर्क से कोई वास्ता नहीं होता वह अपनी साख, अपनी गरिमा और अपना तेवर वह बुरी तरह गंवा चुके हैं।

अब समझ में आ गया है कि उन की सहजता और सरलता एक ओढ़ी हुई और एक बगुला मुद्रा है। इस बगुले में एक भेड़िया छुपाने की दरकार उन्हें क्यों है, यह समझ में बिलकुल नहीं आता। उन्हें सोचना चाहिए कि अगर वह सौभाग्य या दुर्भाग्य से एक सफल एंकर न होते तो होते क्या? उनकी पहचान भी भला तब क्या होती? उनका ब्लॉग ‘कस्बा’ भी कहां होता? पर एक एंकर की यह संजीदा गुंडई और इस कदर ज़िद उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्बाद करती है। किसी भी संवाददाता या एंकर का काम पूर्वाग्रह या पैरोकारी नहीं ही होती। उस के अपने निजी विचार या नीति और सिद्धांत कुछ भी हो सकती है पर रिपोर्टिंग या एंकरिंग में भी वह झलके या वह इसी ज़िद पर अड़ा रहे यह न उस के लिए, न ही उस के पाठक या दर्शक या श्रोता के लिए भी मुफ़ीद होता है। रवीश से पहले इसी एन डी टी वी पर एक समय पंकज पचौरी भी थे । बड़ी सरलता और सहजता से वह भी पेश आते थे। हां,  रवीश जैसी शार्पनेस उन में बिलकुल नहीं थी। तो भी उनका हुआ क्या? मनमोहन सिंह के सूचना सलाहकार बन कर जिस मूर्खता और जिस प्रतिबद्धता का परिचय उन्होंने दिया, अब उन्हें लोग किस तरह याद करेंगे भला? रवीश कुमार को भी यह जान लेना चाहिए कि वह भी कोई अश्वत्थामा नहीं हैं। न ही भीष्म पितामह। विदा उन्हें भी लेना है। पर किस रूप में विदा लेना है यह तो उन्हीं को तय करना है। लेकिन उन्हें इतिहास किस रूप में दर्ज कर रहा है यह भी लोग देख ही रहे हैं , वह भले अपने लिए धृतराष्ट्र बन गए हों। उनकी गांधारी ने भी आंख पर भले पट्टी बांध चुकी हो।

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लेकिन समय का वेदव्यास उन की मुश्किलों और उन की होशियारियों को जस का तस दर्ज कर रहा है। नहीं होशियार तो अपने को शकुनी और दुर्योधन ने भी कम नहीं समझा था। तो बाबू रवीश कुमार इतना स्मार्ट बनना इतनी गुड बात नहीं है। आप की कुटिलता अब साफ झलकने लगी है, लगातार, निरंतर और सारी सहजता और सरलता के बावजूद। समय रहते छुट्टी ले लीजिए इस कुटिलता से। नहीं बरखा दत्त की केंचुल आप के सामने एक बड़ी नजीर है। बाकी तो आप समझदार भी बहुत हैं और शार्प भी। पर आप की समझदारी और शार्पनेस पर आप का पूर्वाग्रह बहुत भारी हो गया है। या कि आप की नौकरी की यह लाचारी है यह समझना तो आप ही पर मुन:सर है।

क्यों कि रवीश बाबू नौकरी तो हम भी करते हैं सो नौकरी की लाचारी भी समझते हैं। पर अपनी अस्मिता को गिरवी रख कर नौकरी हम तो नहीं ही करते, न ही हमारा संस्थान इस के लिए इस कदर कभी मजबूर करता है। जिस तरह आप मजबूर दीखते हैं बार-बार। और अपनी सहजता – सरलता और शार्पनेस के बावजूद आप लुक हो रहे हैं लगातार। अटल जी के शब्द उधार ले कर कहूं तो यह अच्छी बात नहीं है। इतने दबाव में नौकरी नहीं होती। मुझे जो इस वैचारिक दबाव और क्षुद्रता में नौकरी करनी हो तो कल छोड़नी हो तो आज ही छोड़ दूं। क्यों कि बाकी दबाव तो नौकरी में ठीक हैं, चल जाती हैं । मैं ही क्या हर कोई झेलता है जब तब। हम सभी अभिशप्त हैं इसके लिए। साझी तकलीफ है यह। घर-परिवार चलाने के लिए यह समझौते करने ही पड़ते हैं, मैं भी नित-प्रतिदिन करता हूं । पर अपनी आइडियोलाजी, अपने विचार, अपनी अस्मिता के साथ समझौता तो किसी भी विचारनिष्ठ आदमी के लिए मुश्किल होती है। मुझे भी। आप को भी होनी चाहिए। हां, कुछ लोग कंडीशंड हो जाते हैं। आप भी जो हो गए हों तो बात और है।

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31 मई 2012 को रवीश कुमार के बारे में दयानंद पांडेय ने जो कुछ लिखा अपने ब्लाग पर वह इस प्रकार है….

क्या बात है रवीश जी! बहुत खूब!!

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-दयानंद पांडेय-

क्या बात है रवीशजी! हालांकि हमारे ही क्या अधिसंख्य लोगों के घर आप अकसर आते ही रहते हैं। तो भी हमारी आप की वैसी मुलाकात नहीं है| पर मैं तो सच कहूं आप से अकसर मिलता ही रहता हूं। आप से आप की आवाज़ से। आप की आवाज़ जैसे बांध सी लेती है। कई बार आप को सुनते हुए लगता है कि मैं एक साथ मोहन राकेश, निर्मल वर्मा और मनोहर श्याम जोशी को पढ रहा होऊं। ऐसा आनंद देते हैं आप और आप का नैरेशन। सच कहूं तो मुझे ओम पुरी, कमाल खान और रवीश कुमार की आवाज़ बहुत भाती है। निधि कुलपति की साड़ी और उनका सहज अंदाज़ जैसे सुहाता है। पुण्य प्रसून वाजपेयी का खबरों को कथा की तरह बल्कि किसी फ़िल्म की तरह पेश करने का अंदाज़ भी मुझे भाता है। कई बार लगता है जैसे गुरुदत्त की कोई फ़िल्म देख रहा होऊं।

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प्रसून जी से एक बार फ़ोन पर मैंने कहा भी कि आप को फ़िल्म बनानी चाहिए। तो वह हंसने लगे। इस चीख पुकार और भूत-प्रेत, अपराध, क्रिकेट, धारावाहिकों की छाया और लाफ़्टर शो के शोर के भूचाली दौर में आप लोग ठंडी हवा के झोंके सा सुकून देते हैं। देते रहिए। नहीं अब तो आप का एनडीटीवी इंडिया भी कभी- कभी इस फिसलन का संताप देता ही है, देने ही लगा है। खासतौर पर जिस तरह एक शाम हेडली की तसवीर चीख-चीख कर सस्पेंस की चाशनी में भिगो-भिगो कर परोसी है कि बड़े-बड़े तमाशेबाज़ पानी मांग गए। बाज़ार की ऐसी मार कि बाप रे बाप जो कहीं भूत होता-हवाता हो तो वह भी डर जाए। यहां तक कि रजत शर्मा और उनका चैनल भी। आजतक वाले भी। कौवा चले हंस की चाल तो सुनता रहा हूं पर हंस भी कौआ की चाल चलने लगे यह तो हद है। ब्योरे और भी बहुतेरे हैं पर क्या फ़ायदा?

ऐसे में रवीश कुमार, कमाल खान, पुण्य प्रसून वाजपेयी और हां, निधि कुलपति की नित-नई सलीकेदार साड़ी और उनका अंदाज़ मन को राहत-सी देते हैं। गोया अपच और खट्टी डकार के बीच पुदीन हरा या हाजमोला मिल गया हो। और हां, कभी मन करे तो इस पर भी कभी कोई स्पेशल रिपोर्ट ज़रूर करने की सोचिएगा कि चैनलों में इतने साक्षर, जाहिल और मूर्ख लोग कैसे और कहां से आकर बैठ गए। पर क्या कहें, आज- कल आप भी तो स्पेशल रिपोर्ट कहां करते दिखते हैं। बाज़ार की मार है यह कि रूटीन में समा जाने की नियति?

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न मन करे तो मत बताइएगा। पर ऐसे तो आपकी लोच बिला जाएगी ! फिर कैसे कोई इसी ललक के साथ बुलाएगा कि फिर आइएगा। क्योंकि यह दुनिया बडी ज़ालिम है। अरहर की दाल सौ रूपए किलो भूल चली है। गांधी को भूल गई। चैनल और कि अपना समाज भी भगत सिह को भूल अमर सिंह को याद रखने लगा। अमर सिंह की दलाली भी लगता है, अवसान पर है। तो उन्हें भी हम जल्दी ही भूल जाएंगे। वैसे भी इस कृतघ्न समाज में संबंध अब पर्फ़्यूम से भी ज़्यादा गए-गुज़रे हो चले हैं। कि महक आई और गई। लोग मां-बाप भूल जा रहे हैं तो यह तो रिपोर्टिंग के संबंध हैं। आप, आप की आवाज़, आप का नैरेशन, स्पेशल रिपोर्ट छोटे परदे से गुम हो गई, जिस दिन गुम हुई, आप भी गुम। फिर संस्मरण,डायरी और आत्मकथा के हिस्से हो जाएंगे यह सब।

मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा होगा!

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इब्राहिम अल्काज़ी को जानते ही होंगे आप। उन के पढाए सिखाए बहुतेरे अभिनेताओं को पद्म पुरस्कार कब के मिल गए। ओम शिवपुरी, मनोहर सिंह, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी सुरेका सीकरी, उत्तरा बवकर, नीना गुप्ता से लगायत जाने कितने नामी-बेनामी लोगों ने क्या-क्या पा लिया। पर नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के संस्थापक इब्राहिम अल्काज़ी जैसे थिएटर और पेंटिंग के श्लाका पुरूश को अब पद्म पुरस्कार मिला है। छॊडिए अपने बिहार में महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री को याद कीजिए।उन को भी अब पद्मश्री मिली तो वह बिफर गए। अपमान लगा उन को यह।

खैर छोडिए भी मैं भी कहां भूले बिसरे लोगों की याद में समा गया। अभी तो आप हैं आप की आवाज़ है, कोने- कोने से मिल रहे आमंत्रण हैं। मज़ा लीजिए। क्यों कि बच्चन जी लिख ही गए हैं कि इस पार प्रिये तुम हो, मधु है, उस पार न जाने क्या होगा !

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हां, पर स्पेशल रिपोर्ट ले कर आइएगा ज़रूर। हम भी देखेंगे घर में अपने रजाई ओढ कर अगर बिजली आती रही तो! आमीन!

लेखक दयानंद पाण्डेय की लिखीं कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.

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0 Comments

  1. anupam

    November 27, 2014 at 4:10 am

    This article has no substance and more of the personal views of the author. I read it till end to see some logic/examples/reasoning etc…..but found nothing !!

  2. rajesh kumar

    November 27, 2014 at 5:26 am

    dayanand pandey hain kaun???

  3. dalpat

    November 27, 2014 at 6:06 am

    लेख में जो कुछ कहा गया है सैट प्रतिशत सही है.रविश कुमार में अहंकार भारोभार छलक रहा है.अपने आप को बहुत होंशियार और चालाक समजने पर लोग इसकी ठिठौली तक करते है शायद उस तक न पहुंचती हो.पूर्व में जब पंकज पचौरी ऐसा करते थे . ऐसे ही लोगो को कोंग्रेस सरकारी पद मिडिया प्रभारी बनादिया करते थे. पर अब ऐसे मसखरे लोगो के लिए सरकार में पद नहीं है. इसी के चलते बौखला कर ये ऐसी उल जलुलाता दर्शा रहा है.पूर्वाग्रह तो छलकता ही है. ndtv के बहुतेरे लोग किसी वर्ग विशेष का ध्यान बहुत रखते हा इसका कारण स्पष्ट है उनमे से बहुतेरे लोगो ने वर्ग विशेष से शादी रचाई है. फिल्मो में जब तक एक वर्ग विशेष की भूमिका /पात्र अच्छा न दिखाया जाए फिल्म पूरी नहीं होती ऐसा ही ndtv में होता है . ये पब्लिक है ये सब जानती है. ndtv काले धन के हेरफेर में फसी है.

  4. Vishnu Rajgadia

    November 27, 2014 at 1:50 pm

    इस आलेख का सन्दर्भ समझ नहीं पा रहा इसलिए इस पर कोई राय नहीं दे रहा लेकिन जहाँ तक रविश कुमार की बात है तो इन दिनों उनके सिवा टीवी चैनलों में देखने सुनाने लायक कुछ नहीं.

  5. anand

    November 27, 2014 at 5:41 pm

    ravish patrakarita me lalu prasad sarikhe ho gai hai.mashkhare,gapod,aur be-tuke.

  6. arif m

    November 29, 2014 at 5:25 am

    Dayanand pandey ji is jealious of popularity of ravish ,irshya vash ravish ki lokpriyata se jal gaye pandey ji
    ye lekh sirf inka niji personal jalan ka agenda hai

  7. अश्विनी

    December 10, 2014 at 1:35 pm

    मैंने भी कुछ दिन रवीश जी के साथ काम किया है। मेरे सम्बन्ध भी ठीक रहे, लेकिन मेरी राय भी कुछ ऐसी ही है। ये बात सही है कि रवीश कुमार में दम्भ कूट-कूट कर भरा है। जब वो कुछ नहीं थे, सिर्फ एक मामूली रिपोर्टर के रुप में उनकी पहचान थी। तब भी वो बेहद अहंकारी थी। विशेष तौर पर जूनियर्स के साथ उनका बर्ताव बहुत ही खराब हुआ करता था। साथ ही वो अपनी चापलूसी करने वालों को बहुत पसंद किया करते थे।

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