कुछ दिनों पहले ये तस्वीरें और इनसे संबंधित खबर इंटरनेट पर देख पढ़ कर शाक्ड रह गया. चीन में टारगेट न पूरा करने पर कर्मचारियों को घुटने के बल रेंगने चलने को कहा गया. यह सब पब्लिकली किया गया. कर्मचारी नौकरी बचाए रखने के चक्कर में न सिर्फ सार्वजनिक तौर पर घुटने पर रेंगे बल्कि लोगों ने जब इसकी तस्वीरें खींची तो प्रतिरोध तक नहीं किया. कई कर्मचारियों के आंसू निकल गए. उन्हें कोई दूसरा कर्मचारी सांत्वना देने लगा. ये सब कुछ तस्वीरों में कैद है. इन तस्वीरों को इंटरनेट पर खबर के साथ ज्यादातर पोर्टलों चैनलों ने प्रसारित प्रकाशित किया.
कई खबरें तस्वीरें आती हैं और चली जाती हैं. कुछ पर मीडिया तूफान खड़ा कर देता है. कुछ को यूं ही जाने देता है. ये मीडिया का सेलेक्टिव चूजी नजरिया है. कारपोरेट और पूंजीवाद परस्त मीडिया उन मुद्दों पर चुप्पी साध लेता है जिनके कारण कारपोरेट और पूंजीवाद की साख पर नकारात्मक असर पड़ता हो. टारगेट पूरा न करने पर घुटनों के बल रेंगने चलने वाली खबर भी इसी किस्म की थी. क्या इस प्रकरण की तस्वीरें उस तस्वीर की भयावहता से तनिक भी कम है जिसमें एक बच्चे की लाश औंधे मुंह समुद्र किनारे पड़ी मिली थी. बच्चे की तस्वीर के कारण शरणार्थी समस्या को पूरी दुनिया की मीडिया ने जोर-शोर से उठाया था. तब लगा था कि मीडिया ने कितना जोरदार काम किया. लेकिन टारगेट पूरा न करने के कारण कर्मचारियों को घुटनों के बल रेंगने चलने की तस्वीरों पर दुनिया भर की मीडिया ने चलताऊ रवैया अपनाया. वजह?
वजह सिर्फ ये कि अमेरिका हो या चीन, भारत हो या ब्रिटेन, हर जगह कारपोरेट, मल्टीनेशनल कंपनीज में कार्यरत कर्मियों को टारगेट पूरा करने के लिए भयंकर प्रकट-अप्रकट किस्म के दबाव झेलने पड़ते हैं. इसी का नतीजा होता है कि कंपनियां टारगेट न पूरा करने वालों को फौरन फायर कर देती हैं और उनकी जगह किसी दूसरे ज्यादा योग्य को रख लेती हैं. आप कहने को तो कह सकते हैं कि जो योग्य होगा वह सरवाइव करेगा, लेकिन क्या कभी आपने अपने दिल से पूछा है कि आखिर ये कैसी दुनिया है, ये कैसी व्यवस्था है जिसमें योग्यता का सिर्फ एक पैमाना कंपनीज के धंधे के टारगेट (वो चाहे तकनीकी हो या रेवेन्यू से जुड़ा) को पूरा करना ही माना जाता है. मनुष्य होने का मकसद क्या है? इस सवाल पर जब मैं खुद सोचता गुनता हूं तो पाता हूं कि चाहे जो मकसद हो, लेकिन यह मकसद तो कतई नहीं है कि आप किसी के नौकर पूरी उम्र बने रहें, एक घर से निकलें और उसी घर में आकर समा जाएं, दो चार बच्चे पैदा करें और पूरी उम्र उनकी रखवाली देखभाल करते रहें. ये सब कार्य तो हैं, लेकिन जीवन के मकसद कतई नहीं हो सकते.
जीवन का मकसद सच कहें तो कोई एक नहीं हो सकता. हर शख्स अपनी चेतना के उदात्त स्तर पर जो सोच तय कर पाता है, उसी हिसाब से अपना मकसद तय करता है लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर व्यक्ति की चेतना कौन तय करता है, कौन निर्मित करता है, कौन अपग्रेड या डिग्रेड करता है. इसका जवाब जब देने जाएंगे तो उंगली व्यवस्था पर उठेगी. और, जब व्यवस्था की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि दुनिया में जो व्यवस्था इस समय या काफी समय से मुख्य व्यवस्था के बतौर निर्मित संचालित है वह कारपोरेट परस्त, पूंजीवाद परस्त है. इस व्यवस्था ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि हम आप अंतत: किसी पूंजीपति, किसी सेठ, किसी धनवान के टूल यानि यंत्र बन जाएं. उसके लिए काम करें, उसके लिए सोचें, उसके लिए जिएं. क्या यही जिंदगी है? अगर यही जिंदगी है तो ऐसी जिंदगी पर लानत है. मैं निजी तौर पर अब सोचता हूं (यह सोच आठ नौ साल से किसी का नौकर न बने रहने के कारण निर्मित हो पाई है) कि जीवन का मकसद अगर आप डिफाइन नहीं कर पा रहे हैं तो पहला काम तय कर लें. वह यह कि बेहिसाब घूमिए. बिना भय के. बिना योजना के. बिना स्वार्थ के. आप जितना धरती नाप सकते हैं, जितना भटक सकते हैं, जितना मोबाइल रह सकते हैं, उतना चलिए. साथ ही, खूब पढ़िए. प्रकृति, अंतरिक्ष, ब्रह्मांड, विचारधारा, व्यक्ति, जीव-जंतु, अंतरिक्ष, सागर… सबके बारे में जानने की कोशिश करिए.
ये घूमना और पढ़ना दोनों मिलकर तय मानिए कि आपको जिंदगी की राह, मकसद, दिशा दिखा बता देंगे. और, आपकी संवेदना, चेतना, ज्ञान का लेवल जितना उन्नत होगा, उतनी ही जल्दी आप अपने जीवन के मकसद को समझ पाएंगे. गौतम बुद्ध अपने रुटीन के सुख-ऐश्वर्य से बस एक बार अलग हुए और उन्हें जीवन का मकसद समझ आ गया. उन्होंने मरे हुए आदमी, कमर झुकी बुढ़िया आदि को देखा और समझ गए कि वो जो खुद जीवन जी रहे हैं, वह कंप्लीट, असली जीवन कतई नहीं है. जीवन बहुत बड़ा है और इसमें ढेर सारे दुख भी हैं. तब गौतम बुद्ध अपने जीवन के मकसद को समझने के लिए निकल पड़े थे. भटकने लगे, घूमने लगे, खोजने लगे. और, उन्हें एक रोज रास्ता मिल गया. वो रोज रास्ता तलाश पाए उससे उनके समकालीन दौर और आज तक न जाने कितने लोग लाभान्वित हुए और अपने अधूरेपन को खत्म कर पूर्णता की तरफ चल पाए. मैं ये नहीं कहता कि हर कोई जो भटकेगा, घूमेगा वह बुद्ध बन जाएगा. लेकिन उसे जीवन को संपूर्णता में समझने व उसे अपने हिसाब से परिभाषित संचालित करने का मौका तो मिल ही जाएगा. क्या पता आपको मिला सबक हम जैसों ढेरों मुश्किल में पड़े लोगों को राह दिखा सके.
फिलहाल तो इन तस्वीरों को देखिए और इनमें खुद को तलाशिए. आप भले न घुटने के बल चलने रेंगने को मजबूर किए गए हों लेकिन क्या हालात इनसे थोड़ी भी अलग आपकी है. कोई सच में घुटने के बल रेंगने को मजबूर किया जाता है और कोई आत्मा को मारते रहने को मजबूर कर दिया जाता है ताकि उसके अंदर सोचने, प्रतिरोध करने, बोलने की क्षमता खत्म हो जाए और फुलटाइम गुलाम, बिना दिल-दिमाग वाला 24×7 गुलाम बन जाए. अगर आप अपनी नौकरी में अपने मन का, अपने दिल का नहीं सुन पाते, एक अदृश्य जनविरोधी आत्माविरोधी, आजादी विरोधी आदेश को पालन करने के लिए अनजाने में ही मजबूर कर दिए जाते हैं तो आप तय मानिए, घुटने के बल तो नहीं लेकिन अपनी आजादी की कीमत पर आत्मा की जमींदोज कर आनलाइन घिसट रहे हैं.
इन तस्वीरों को जब देखा था तो बहुत देर देखता सोचता रह गया था. उसी वक्त सोचा था कि इस पर लिखूंगा. लेकिन आजकल जाने कैसा हो गया है मन कि कुछ अपनी तरफ से लिखने बताने सुनाने का मन नहीं करता. इसके पीछे वजह ये कि आखिर किसको मैं सुनाना बताना चाहता हूं? जिनको सुनाना बताना चाहता हूं वो खुद इतने दर्द भरे, परेशान, घिरे हुए लोग हैं कि उनके भीतर खुद ढेर सारे गम दुख संकट हैं और वे इसे किसी अपने को जताने बताने को बेकरार हैं. फिर भी, आज बहुत रोज बाद जीवन और जीवन के मकसद को लेकर लिख रहा हूं. आप भी इस मसले मुद्दे पर कुछ सोचेंगे लिखेंगे और मुझे बताएंगे तो अच्छा लगेगा. मेरा पता [email protected] है. चाहें तो नीचे कमेंट बाक्स के जरिए अपनी बात कह लिख सकते हैं. फिलहाल तो ये तस्वीरें देखिए, एक-एक कर, नीचे लिखे Next पर क्लिक करके, और फिर कुछ समय इन पर सोचने महसूसने पर खर्च करिए.
टारगेट पूरा न कर पाने पर चीनी कंपनी के बॉस ने दी घुटनों के बल रेंगने की सजा
चीन में एक जगह है झेझोऊ. यह हेनान प्रांत में पड़ता है. झेझोऊ शहर में एक कपड़े बेचने वाली कंपनी का सेल्स स्टाफ अपना टारगेट पूरा करने में नाकाम रहा. तब कर्मचारियों को बॉस ने घुटनों के बल रेंगने को कह दिया. आदेश का पालन करते हुए कर्मचारी रेंगने लगे. बॉस ने कर्मचारियों को वह जगह भी बताया जहां उन्हें रेंगना था. झील के किनारे बने लकड़ी की टाइल्स वाले रास्ते पर घुटने के बल चलना था. इस सजा के बाद जब झेझोऊ शहर में रूई झी के सामने सेल्स टीम के कर्मचारी घुटने के बल चलने लगे तो चश्मदीद दंग रह गए.
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Sanjeev Singh thakur
October 17, 2015 at 11:18 am
so called educated society ki asabhyata ki prakashta. Lanat hai aise vikas par.