आज तड़के नेपाल के एक पत्रकार मित्र से बात हुई। भूकम्प की रिपोर्टिंग को लेकर वे बहुत परेशान थे। कह रहे थे कि नेपाल के पत्रकारों के पास संसाधन नहीं हैं कि वे दुर्गम इलाकों में जाकर रिपोर्ट कर सकें जबकि भारतीय वायुसेना के माध्यम से घूमकर खबर देने वाले भारतीय पत्रकार भारत सरकार के जनसंपर्क विभाग की तरह काम कर रहे हैं।
दूसरी दिक्कत यह है कि चूंकि भारत सरकार यहां राहत का काम कर रही है, इसलिए उसके प्रचार तंत्र पर सवाल खड़ा करना भी नेपाली पत्रकारों के लिए नैतिक स्तर पर कठिनाई खड़ी कर रहा है। नतीजा, जो हो रहा है वह सब दिख नहीं रहा और जो दिख रहा है, वह वही है जिसे भारत सरकार दिखाना चाह रही है।
यह कहते वक्त मेरे दिमाग़ में कश्मीर की बाढ़ में सेना द्वारा दी गई मानवीय मदद की अतिरंजित छवियां घूम रही हैं। हम सब जानते हैं कि उसके बाद चुनावों में क्या हुआ था। कश्मीर तो फिर भी भारत का हिस्सा है, ध्यान रखें कि नेपाल अपना मोहल्ला नहीं है। नेपाल एक सम्प्रभु राष्ट्र है, जहां के लोगों ने बीते एक दशक में इसे राजशाही से गणतंत्र तक लाने के लिए कुर्बानियां दी हैं।
इतनी बड़ी आपदा पर फिलहाल कोई भी राजनीतिक टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा, लेकिन सेना के विमानों में बैठे मीडिया द्वारा मानवीय राहत के गुब्बारे में भरी जा रही हवा को एक बार तो तौलना बनता है। क्या एकाध मित्र इस पहल के लिए तैयार हैं? क्या यह संभव है कि चार-पांच पत्रकारों का एक समूह बनाकर काठमांडू में हफ्ता भर अपने संसाधनों से डेरा डाला जाए और ज़मीन पर जो कुछ हो रहा है, उसकी तटस्थ रिपोर्टिंग की जाए? जहां कहीं जगह मिले, अपनी रिपोर्टों को वहां भेजा जाए? जवाब चाहिए।
अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वॉल से
vikash Singh
April 30, 2015 at 11:28 am
Ghar baithe aap bhi tippni kar rahe hain ?