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आयोजन

पूर्वोत्तर यात्रा-6 : नदी के बीच दुनिया के सबसे बड़े टापू की सैर

वह 28 नवम्बर 2015 की सर्द सुबह थी। सुबह 6 बजे तक एलिफेंट सफारी के लिए काजीरंगा अभ्यारण्य के दूसरे छोर तक पहुचना था। टीम लीडर किरण जी कि हिदायत के मुताबिक सभी पत्रकार साथी सुबह 5.30 बजे तक बस में सवार हो चुके थे। हमें 30 किलोमीटर की दूरी तय कर एलिफेंट सफारी स्टेशन पहुँचना था। तय समय से हम पहुँच गए पर जंगल की सैर कराने वाले हाथी और महावत अभी नहीं पहुचे थे। आधे घंटे के इंतज़ार के बाद दो हाथी सामने से आते हुए दिखाई दिए। बताया गया कि एक बार में 6 से 7 लोग ही एलिफेंट सफारी के लिए जा सकेंगे। इस दिए हमने दो टीम बनाई। हाथी पर सवार हो कर 1 घंटे तक जंगल में घूमने की फ़ीस 800 रूपये प्रति व्यक्ति थी। मुझे लगता है अपने देश में पर्यटको से सुविधाओं के लिए भारी कीमत वसूली जाती है। खैर पहली और शायद आखिरी बार यहाँ तक आये थे लिए जंगल घूमने के लिए हाथी पर सवार हो गए। पहली खेप में मेरा भी नंबर लग गया। मैं सुरेंद्र जी हथियारबंद गार्ड के साथ हाथी पर सवार हो कर जंगल भ्रमण के लिए रवाना हो गए।

वह 28 नवम्बर 2015 की सर्द सुबह थी। सुबह 6 बजे तक एलिफेंट सफारी के लिए काजीरंगा अभ्यारण्य के दूसरे छोर तक पहुचना था। टीम लीडर किरण जी कि हिदायत के मुताबिक सभी पत्रकार साथी सुबह 5.30 बजे तक बस में सवार हो चुके थे। हमें 30 किलोमीटर की दूरी तय कर एलिफेंट सफारी स्टेशन पहुँचना था। तय समय से हम पहुँच गए पर जंगल की सैर कराने वाले हाथी और महावत अभी नहीं पहुचे थे। आधे घंटे के इंतज़ार के बाद दो हाथी सामने से आते हुए दिखाई दिए। बताया गया कि एक बार में 6 से 7 लोग ही एलिफेंट सफारी के लिए जा सकेंगे। इस दिए हमने दो टीम बनाई। हाथी पर सवार हो कर 1 घंटे तक जंगल में घूमने की फ़ीस 800 रूपये प्रति व्यक्ति थी। मुझे लगता है अपने देश में पर्यटको से सुविधाओं के लिए भारी कीमत वसूली जाती है। खैर पहली और शायद आखिरी बार यहाँ तक आये थे लिए जंगल घूमने के लिए हाथी पर सवार हो गए। पहली खेप में मेरा भी नंबर लग गया। मैं सुरेंद्र जी हथियारबंद गार्ड के साथ हाथी पर सवार हो कर जंगल भ्रमण के लिए रवाना हो गए।

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जीप से आप जंगल के बीच बने रास्तो से ही गुजर सकते हैं पर हाथी हमें जंगल के बीच लेकर जा रहा था। जंगल झाड़ियो के बीच से होकर गुजरना अच्छा लग रहा था। पर आधा घंटा बीतने के बाद भी अब तक हमें गैंडे के दर्शन नहीं हुए थे। इस बीच जंगली सूअर, हिरन जैसे छोटे मोटे जानवर ही दिखाई दिए। अब धीरे धीरे एक घंटे का सफ़र समाप्त होने को था। हाथी हमें लेकर वापस लौटने लगा। तभी झाड़ियो के बीच एक गैंडा दिखाई दिया। सिर्फ उसका थोडा सा सिर हमें दिखाई दे रहा था। उसे झाड़ियों से बाहर लाने के लिए महावत ने उस पर गुलेल चलाई पर यह दाव उल्टा पड़ गया, वह और घने जंगल में छिप गया। हमारी एलिफेंट सफारी पूरी हो चुकी थी। दुसरे बैच के हमारे साथी हाथी पर सवार होने के लिए तैयार खड़े थे। हमें एक घंटे तक उनके लौटने का इंतज़ार करना था। वरिष्ठ फोटोग्राफर मोहन बने जी हमारे साथ ही एलिफेंट सफारी कर आये थे। इसलिए अपने दूसरे बैच वाले साथियों के इंतज़ार के लिए बने काका भी मेरे साथ थे। इंडियन एक्सप्रेस से स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले बने काका ने आयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने की वह मशहूर तस्वीर खिंची थी, जो दुनियाभर के पत्र पत्रिकाओं में छपी और आज भी छपती रहती है।

मैंने बने काका से आग्रह किया की वे बताये कि कैसे उस दिन उन्होंने वह ऐतिहासिक फ़ोटो खिंची थी। बने काका ने बताया कि किस तरह वे आयोध्या में कारसेवा को कवर करने के लिए कई दिनों पहले फैज़ाबाद पहुँच गए थे। कैसे वह फ़ोटो निकालने में कामयाब रहे और उसे मुंबई ऑफिस पहुचाने के लिए लखनऊ जाना पड़ा। क्योकि उस वक्त इंटरनेट नहीं था। फ़ोटो को लैब में डेवलप करने के बाद फ़ोटो वाले फैक्स मशीन से भेजना पड़ता था। उस वक्त केवल ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटो बन पाते थे। 6 दिसम्बर की घटना और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका जी की चर्चा में एक घंटे का समय आराम से कट गया। दूसरे बैच में गए चंद्रकांत शिंदे जी ने बताया कि हमें तो बिल्कुल पास से गैंडा दिखाई दिया। मुझे लगा कि चंदू जी हमें चिढ़ाने के लिए शेखी बघार रहे।

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मुझे विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने मोबाइल से निकाली गई तस्वीरे दिखाई तब मुझे मानना पड़ा की दूसरी बैच वाले हमसे ज्यादा किस्मत वाले निकले। खैर गेस्ट हाउस पहुँच कर हमें अपनी अगली मंजिल माजुली के लिए निकलना था। इस लिए सब जल्दी से बस में सवार हो गए। आसाम गए और वहाँ के चाय बागानों में फ़ोटो नहीं खिंचाई तो पूर्वोत्तर यात्रा अधूरी रह जायेगी। रास्ते में हम चाय बागान के किनारे एक चाय स्टोर पर रुके। यहाँ तरह तरह की चाय पत्ती बिक्री के लिए उपलब्ध थी। सबने चाय की खरीदारी की। काजीरंगा के आसपास के इलाके में आप को हर जगह लकड़ी के गैंडे का मॉडल बिकते हुए दिखाई देगा। स्टोर के सामने भी एक सज्जन ने ऐसी दुकान सजा रखी थी। मोलभाव की ज्यादा गुंजाइस नहीं दिखी तो 250 रुपये में मैंने एक गैंडा खरीद लिया। पत्रकार साथियों के साथ मैने भी थोड़ी चाय  खरीदी और पास में स्थित चाय बागान में जाकर फ़ोटो निकला।

सिकुड़ रहा माजुली द्वीप

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दोपहर को हमें माजुली के लिए रवाना होना था। इसके लिए बस सहित बोट पर सवार होना था। वाहनों सहित यात्रियों को इस पार से उस पार पहुचाने वाली बड़ी-बड़ी नावे ब्रम्हपुत्र नदी में चलती हैं। हमें जिस बोट से जाना था, उसके लिए तय समय पर ब्रम्हपुत्र के घाट पर पहुचना था। इस लिए गेस्ट हाउस पहुँच कर अपना अपना सामान उठाये और चल दिए नदी के बीच स्थित दुनिया के सबसे बड़े द्वीप पर रात बिताने। दुनियाभर में समुंद्र के बीच सैकड़ो टापू है, जिन पर  पूरे के पूरे देश बसे हैं पर असम के जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बना यह टापू दुनिया में नदी के बीच बना सबसे बड़ा टापू है। पर यह टापू भी संकट में है। कभी 1278 वर्ग किलोमीटर में फैला यह टापू अब सिकुड़ कर 557 वर्ग किलोमीटर का रह गया है। इस द्वीप पर बसे 23 गांवो में करीब 2 लाख लोग रहते हैं।
अपनी विशेषताओं के चलते दुनिया भर में मशहूर माजुली का अस्तित्व अब साल दर साल आने वाली बाढ़ और भूमिकटाव के चलते खतरे में पड़ रहा है। विश्व धरोहरों की सूची में इसे शामिल कराने के तमाम प्रयास भी अब तक बेनतीजा रहे हैं। राज्य सरकार ने इस द्वीप को बचाने की पहल के तहत कुछ साल पहले माजुली कल्चरल लैंडस्केप मैनेजमेंट अथारिटी का गठन किया।

बरसात के चार महीनों के दौरान बाहरी दुनिया से इस द्वीप का संपर्क कट जाता है। इस द्वीप की अस्सी फीसदी आबादी रोजी-रोटी के लिए खेती पर निर्भर है। माजुली के रोहित बरूआ कहते हैं कि माजुली के लोग अपना पेट पालने के लिए खेती पर निर्भर हैं। लेकिन हमारे ज्यादातर खेत पानी में डूब गए हैं। यह द्वीप अपने वैष्णव सत्रों (मठ) के अलावा रास उत्सव, टेराकोटा और नदी पर्यटन के लिए मशहूर है. मिसिंग, देउरी, सोनोवाल, कोच, कलिता, नाथ, अहोम,नेराली और अन्य जातियों की मिली-जुली आबादी वाले माजुली को मिनी असम और सत्रों की धरती भी कहा जाता है। असम में फैले लगभग 600 सत्रों में 65 माजुली में ही हैं। यहाँ वैष्णव पूजास्थलों को सत्र कहा जाता है।

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माजुली के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि यहां जितनी नावें हैं उतनी शायद इटली के वेनिस में भी नहीं हैं। द्वीप का कोई भी घर ऐसा नहीं है जहां नाव नहीं हो। यहां नावें लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं। लोग कार, टेलीविजन और आधुनिक सुख-सुविधा की दूसरी चीजों के बिना तो रह सकते हैं लेकिन नावों के बिना नहीं। हर साल आने वाली बाढ़ पूरे द्वीप को डुबो देती है. इस दौरान अमीर-गरीब और जाति का भेद खत्म हो जाता है। महीनों तक नावें ही लोगों का घर बन जाती हैं. उस समय माजुली में आवाजाही का एकमात्र साधन भी लकड़ी की बनी यह नौकाएं ही होती हैं। अगर इस द्वीप को बचाने के लिए जल्दी ही ठोस कदम उठाये जाने की जरुरत है।

हम घाट पर पहुचे तो पता चला कि बोट आने में 15 मिनट का समय लगेगा। चाय पीकर हमने यह समय काटा। तब तक हमारी बोट किनारे पर लग चुकी थी। हमने पहले अपनी मिनी बस को बोट पर सवार किया और फिर हम भी दो मंजिल नाव पर सवार हो गए। गए। चाय- नाश्ता कर हमने यह समय काटा। तब तक हमारी बोट किनारे पर लग चुकी थी। हमने पहले अपनी मिनी बस को बोट पर सवार किया और फिर हम भी दो मंजिला नाव पर सवार हो गए। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ नाव की छत पर आसन जमाया। नदी में हमें इस पार से उस पार की यात्रा नहीं करनी थी। बल्कि बीच नदी में स्थित इस द्वीप पर पहुचाने के लिए हमारी नाव नदी के बीचो बिच चल रही थी। अथाह जल के बीच बोट की छत पर यह जल यात्रा मन को सकून देने वाली थी। इस दौरान सारे साथियों ने जमकर फोटोग्राफी की। एक घंटे की जल यात्रा के बाद हम माजुली पहुच गए थे। यहाँ के एक धर्मशाला में हमारे रहने की व्यवस्था थी। बोट किनारे लगी और हम फिर से बस में सवार हो गए। कुछ मिनटों की सड़क यात्रा के बाद हम धर्मशाला पहुच चुके थे।

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लेखक विजय सिंह ‘कौशिक’ दैनिक भास्कर (मुंबई) के प्रमुख संवाददाता हैं. इनसे ईमेल [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.

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