वाराणसी। प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि कुछ चीजें रह जाती हैं जिसकी कसक जीवन भर, आखिरी सांस तक बनी रहती है। मेरे जीवन की कसक कोई पूछे तो कई सारी चीजों में एक है फादर कामिल बुल्के से न मिल पाने, न देख पाने की कसक। मैं उन दिनों बनारस में था जब वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे। धर्मवीर भारती, रघुवंश से अक्सर उनकी चर्चा सुनता था लेकिन उनसे न मिल पाने का सुयोग घटित न होना था तो न हुआ। वे तुलसी के हनुमान थे। हनुमान ने जो काम राम के लिए किया है, तुलसीदास और रामकथा के लिए वही काम फादर कामिल बुल्के ने किया।
केदारनाथ सिंह मंगलवार को पराड़कर स्मृति भवन में अयोध्या शोध संस्थान और सोसाइटी फार मीडिया एण्ड सोशल डेवलपमेण्ट के संयुक्त तत्वाववधान में फादर कामिल बुल्के जयन्ती समारोह में विचार व्यक्त कर रहे थे। इस मौके पर उन्होंने पत्रकार-कवि आलोक पराड़कर द्वारा सम्पादित ‘रामकथा : वैश्विक सन्दर्भ’ का लोकार्पण किया। श्री सिंह ने कहा कि फादर बुल्के के शोध ग्रन्थ रामकथा की काफी चर्चा रही है। वास्तव में इस ग्रन्थ से हिन्दी में तुलनात्मक साहित्य की शुरूआत होती है। उन्होंने इस ग्रन्थ में देश-विदेश की रामकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया है। वे बड़े शैलीकार भी थे। श्री सिंह ने कहा कि हिन्दी के उनका अनुराग इस कारण हुआ क्योंकि उन्होंने बेल्जियम में फ्रेंच के विरूद्ध फ्लेमिश की लड़ाई देखी थी। उन्होंने कहा कि फादर बु्ल्के ने कहीं लिखा है कि अगर मैं हिन्दी की सेवा में नहीं लगता तो फ्लेमिश का क्रान्तिकारी होता।
समारोह में काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.सर्वजीत राय ने कहा कि फादर कामिल बुल्के वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने देश में हिन्दी में शोध करने की शुरूआत की। इसके पहले विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी में शोध होते थे। हिन्दी विद्वान जितेन्द्र नाथ मिश्र ने कहा कि बेल्जियम में फ्लेमिश की उपेक्षा से द्रवित फादर बुल्के ने हिन्दी की उपेक्षा देखकर उसकी सेवा का निर्णय किया। वे कई भाषाओं के जानकार थे। उदय प्रताप कालेज के हिन्दी के पू्र्व विभागाध्यक्ष रामसुधार सिंह ने कहा कि रामकथा जैसा शोध आजतक नहीं हो सका है। समारोह में काशी विद्यापीठ के सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुरेन्द्र प्रताप, बिशप फादर यूजिन जोसेफ के प्रतिनिधि ने भी विचार व्यक्त किए। इस मौके पर वाणी प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अरुण माहेश्वरी भी उपस्थित थे।