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‘हंस’ को राजेंद्र यादव के निधन के साथ ही बंद हो जाना चाहिए था!

Abhishek Srivastava


‘हंस’ के कंस! ‘हंस’ को राजेंद्र यादव के निधन के साथ ही बंद हो जाना चाहिए था। राजेंद्रजी के जीवित रहते भी हिंदी पर्याप्‍त गरीब थी, लेकिन उनकी उपस्थिति इस बात का प्रमाण थी कि हिंदी में पब्लिक इंटेलेक्‍चुअल के नाम पर कम से कम एक बड़ा आदमी तो है। वे गए और सब उधार का हो गया। उनके निधन के पांच साल बाद आज जब मैं हंस के सालाना जलसे में गया, तो देखा कि हिंदी दरिद्र हो चुकी है। इस दरिद्रता के तमाशबीन अब भी उतने ही हैं जितने पहले थे।

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विमर्श में जितना अद्यतन ज्ञान जेएनयू के हिंदी विभाग के एमए छात्र का होता है, हिंदी का बौद्धिक विमर्श उससे कहीं नीचे सड़ गल रहा है। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी वाले तीसमारखां हैं। छह वक्‍ताओं में पांच अंग्रेज़ी के ही थे। दो ने अंग्रेज़ी में ही बात रखी। दिलचस्‍प ये रहा कि प्रताप भानु मेहता को छोड़ किसी ने विषय को नहीं छुआ और मेहता ने भी जिस तरह से छुआ, उसे छूना नहीं छुआना कहते हैं।

इसी लोकतंत्र से नेहरू पैदा होते हैं। इसी से लोहिया। इसी से इंदिरा। इसी से ठाकरे। इसी से लालू। इसी से मायावती। इसी से मोदी। एक ही लोकतंत्र अलग-अलग समय पर अलग-अलग संततियों को जन्‍म देता है। कोई नालायक, कोई हुनरमंद, कोई मतिमंद। नैतिकता का पैमाना लोकतंत्र का सत्‍ताशीर्ष तय करता है। रावण के दस सिर हैं। काटते रहिए। असल माल नाभि में है। नाभि है पूंजीवाद। पूंजीवाद तय करेगा कि इस देश का लोकतंत्र किसको जन्‍म देगा। पूंजी का संकट जितना गहरा, पैदाइश उतनी हरामी।

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अफ़सोस, कि ‘उधार’ की हिंदी और ‘अवसरों’ की अंग्रेजी का समूचा मंचीय विमर्श इस एक शब्‍द ‘पूंजीवाद’ को ही भूल गया। कांचा इलैया जाति पर पिले रहे। इंदिरा जयसिंह जजों पर। प्रो. कृष्‍ण कुमार भाषा पर। सईदा हमीद ने फ़ैज़ को सुना दिया और हर्ष मंदर बंधुत्‍व की चिंता में परेशान। बचे प्रताप भानु मेहता, तो ‘सच्‍चा’ लिबरल दिखने की कवायद में उन्‍होंने एक साथ वाम और अस्मिता के विमर्श को निशाने पर ले लिया। कायदे से कहें तो मेहता ने अपने ‘सस्‍ते और आउटडेटेड’ आर्टिकुलेशन से मंच लूट लिया था, लेकिन हिंदीवाले इतने दरिद्र हैं कि इसे भी अप्रिशिएट नहीं कर पाए। ज्‍यादातर कृष्‍ण कुमार की रेडियोधर्मी आवाज़ में फंसे रह गए।

केवल भारी-भरकम पैनल बैठा देने से विमर्श नहीं होता। लड़ाने के लिए भी दृष्टि चाहिए। मौज लेने के लिए भी। और सुनने के लिए भी। राजेंद्र जी विट और विज्‍़डम का संगम थे। उनसे संवाद करने के लिए पाव भर विट और विज्‍़डम की जरूरत होती थी। अपने काले चश्‍मे के भीतर से वह सफेद हंस सब पर निगाह रखता था। उनके मुंहलगे-मूर्ख दरबारी भी पर्याप्‍त रट्टा मार के आते थे। उनके बाद ‘हंस’ के नए वारिस गयाजी के सेठ हुए। सेठाश्रयी विमर्श कैसा होता है? सब अनर्गल बात होती है, बस ढोंड़ी नहीं टोयी जाती। ढोंड़ी समझते हैं? ढोंड़ी मने पूंजीवाद, जो इस बार के विषय का असल निशाना होना था लेकिन किसी ने भूल कर भी इसका नाम नहीं लिया। सब ऊपर-ऊपर तैरते रहे। पत्‍ते चुनते रहे। राजेंद्रजी जो थे, जैसे थे, पल्‍लवग्राही नहीं थे।

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हिंदी के लोग साठ के दशक की पढ़ाई से काम चला रहे हैं। अंग्रेज़ी वाले अस्‍सी के दशक की पढ़ाई का बखान कर के उनके सामने श्रेष्‍ठ हुए जा रहे हैं। हिंदी में कोई पढ़ने, लिखने, बोलने वाला बचा नहीं। अंग्रेज़ी के औसत लोग हिंदी में मुफ्त का यश पा रहे हैं। कुल मिलाकर विमर्श के नाम पर हंस जैसे कार्यक्रम एक मुट्ठी भर पिछड़े हुए, कुंठित और आत्‍महीन समुदाय को और दरिद्र बनाते जा रहे हैं। यह समुदाय इसी दरिद्रता में बरसों से आत्‍मतुष्टि खोज रहा है। इसलिए जितनी जल्‍दी हो, इस हंस को उड़ जाना चाहिए। अगर काम में रचनात्‍मकता नहीं है तो केवल नाम से कुछ नहीं बनने वाला। श्रेष्ठिजन को को नाम-धर्म का पालन करते हुए ‘संजय’ की तरह दूरदर्शी बन गयाजी में निर्णायक पिंडदान कर आना चाहिए। घायल हंस को मिट्टी लेपकर दोबारा जिंदा करने वाला सिद्धार्थ अब नहीं आने वाला।

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से. इस पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ प्रमुख यूं हैं…

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Sudhakar Ravi : आप अपने हर एक पोस्ट में बहुत नेगेटिव रहते हैं। आपकी आलोचना की भाषा में मुझे शुचिता का आभाव दिखता है। संजय सहाय सेठ हैं इसलिए ‘असाहित्यिक’ हो गयें. यह तर्क कहाँ तक उचित है ? आज के समय में सबसे बड़ा बाजार आपके पॉकेट में है. आप ना बाजार से बच सकते हैं ना पूंजीवाद से.

Abhishek Srivastava : मैं सेठ को श्रेष्ठि लिख देता तो शुचिता कायम रहती?

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Priya Darshan : अभिषेक जी, बाकी तो आपकी राय है, लेकिन ‘गया जी के सेठ’ पर मुझे लगता है, आपत्ति दर्ज करानी चाहिए, सो करा रहा हूं। संजय सहाय को राजेंद्र यादव ने ही अपनी टीम में शामिल किया था।‌ और उनके खाते में हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियां हैं।

Abhishek Srivastava : मैंने कब कहा कि राजेंद्र जी के बाद हंस का पतन शुरू हुआ? हंस का पतन उनके रहते 2010 में ही शुरू हो गया था जब राजेंद्रजी ने मंच पर दरोगा कुलपति को बुलाया था, या कहें कुछ और प्रसंगों में उससे भी पहले। संजय सहाय का चयन भी राजेंद्रजी का ही प्रेरोगेटिव है। खाते में कुछ अच्‍छी कहानियों के चलते या धन के चलते, ये आप बेहतर बता सकते हैं।

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Priya Darshan : ये मैं नहीं, वही बेहतर बता पाते।‌ मेरा एतराज उनको बस सेठ कहे जाने पर था।

Abhishek Srivastava : चलिए सेठ नहीं, श्रेष्ठि कह देते हैं।

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Satyam Shrivastava : बहुत शानदार। एकदम हमारे मन की बात कह दी भाई। एक बार मुझे भी देवी शंकर अवस्थी सम्मान के अवसर पर इन कूपमंडूकों को करीब दो घंटे सुनना पड़ा था और तभी यह भरोसा हो गया था कि विशेषकर साहित्यकारों/विश्वविद्यालयों की हिंदी जमात आत्मगौरव और पूरे घमंड के साथ कुंठा का शिकार हो चुकी है और अब देश काल को समझना इनके बूते नहीं रहा।

Shashi Bhooshan : स्वाभाविक होश रहता है सुबह सुबह। इसे पढ़कर जोश में आ गया हूँ। जोश यहां तक जोर मार रहा है कि हटाओ यार दुनिया का पर्दा। लगकर पढ़ो कुछ साल ढंग से …

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Akhilesh Pratap Singh : कहां पड़े हैं इस चक्कर में हैं…कोई नहीं है टक्कर मे….कोई सेठ मिले तो साधिए…जलसा तानिए….जिन पर रो रहे हैं, उनको भी बुलाइए…बाद में अपनी बात भी रखिए महराज….बाकी अब ये मत कहिएगा कि चलिए मिलकर कोई महीन साहित्यिक सेठ ढूंढा जाए…

Hamid Ali Khan : भाई, यह स्थिति तो दुनिया भर के साहित्य के साथ हैं। पूंजीवाद ने सबको लील लिया है। आज साहित्य का आमजन या हालात से कुछ लेना-देना नहीं है। एशिया से लेकर यूरोप, अमेरिका,लातानी अमरीका, आस्ट्रेलिया आदि में यही सब हो रहा है।

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Santosh Kumar : अगर हंस का मंच भी इतना दरिद्र है तो संकट सघन है।

Mohd Arif : हमारे एक साथी Meraj Ahmad भी कल गए थे सुनने के लिए , वापस लौटकर वो भी ऐसा ही कुछ बयान कर रहे थे लेकिन आपने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया। हंस भी तो पत्रकारों में कम ही बचे हैं

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Nirbhay Devyansh : जैसी संगत वैसी पंगत …यादव जी भी कुल मिलाकर यही सब कर रहे थे …लेकिन अापने भविष्यगामी दिशा की ओर संकेत किया है …जो जरूरी है …

Shree Prakash : कभी-कभी मैं सोचता हूं कि राजेन्‍द्र जी ने अपने रहते, अपनी कद-काठी की परंपरा में बेहतर एडिटर, जिसकी खुद की पहचान उसके दायरे के बाहर की दुनिया में भी हो, क्‍यों नहीं बनाया?

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विभांशु केशव : हिंदी साहित्य (दिल्ली) पर आरोपित किया जाता रहा है- ‘‘हिंदी साहित्य लीक छोड़कर नहीं चलना चाहता है। इसलिए यथार्थहीन हो जाता है। नया दर्शन स्वीकार नहीं करता। इसलिए प्रदर्शन अधिक करता है। यथार्थवादी पुरखों की जयंती और पुण्यतिथि के दिन यथार्थवाद को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। यथार्थवाद को शत-शत नमन करता है। यथार्थ का वर्णन करने वाले प्रदर्शन नहीं करते, इसलिए हिंदी साहित्य उनकी खोज-खबर नहीं लेता। समकालीन साहित्य में वे कोने में पड़े हुए हैं। यही कारण है कि ये विश्व साहित्य में प्रभावी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाता।’’ हिंदी साहित्य पर लगाए जाने वाले इन कथित आरोपों से मैं असहमत हूँ (इसीलिए आरोप के पहले कथित लगाया है)। समकालीन हिंदी साहित्य में यथार्थवाद आकाश में तारों की तरह बिखरा पड़ा है।

कथित आरोप लगाने वालों के लिए यथार्थ की परिभाषा, उसका दर्शन जो भी हो, वे ही जानें, मैं जिस यथार्थ की बात कर रहा हूँ, उस पर प्रकाश डालता हूँ-

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हिंदी के साहित्यकार यथार्थवादी हो रहे हैं। रहे भी हैं। हिंदी साहित्य के समकालीन परिदृश्य में यथार्थवादी साहित्यकारों की संख्या पूँजी कृपा के लेखकों, कवियों, सम्पादकों और प्रकाशकों की तरह बढ़ी है। वे बिना डरे यथार्थ का वर्णन कर रहे हैं। इनका यथार्थ भूत के लोटे में रखा हुआ है। ये विचारधारा के झंडे को वस्त्र की तरह पहनते हैं, पर झंडे की जगह अपना एजेंडा ऊँचा करते हैं। भूत के लोटे में यथार्थ की अस्थियाँ रखी हुई हैं। लोटे के काँपने की स्थिति में अस्थियों को चोट लगती है। बचाव के लिए अस्थियों को क्षेत्रवाद, जातिवाद और शिष्यों की राख के मखमली गद्दे में लपेटा गया है। लोटे में बौद्धिक घुसपैठ की आतुर अस्थियाँ भी होती हैं। वे कड़बड़ाकर लोटाधारी को याद दिलाती हैं- तुम्हारे इलाके का हूँ। जाति और गोत्र भी मिलते हैं। घुसपैठ की उम्मीदवारी पर पूरी तरह खरा उतरता हूँ। योग्यता जाँचने के बाद लोटाधारी अस्थियों को घुसपैठ का उचित अवसर उपलब्ध कराता है। साहित्य की सीमा पर लगी कँटीले तारों की बाड़ उठा देता है। रेंगते हुए अस्थियाँ सीमा के अंदर पहुँच जाती हैं। फिर वे भूत का लोटा लेकर दिल्ली से गया वाया बनारस, साहित्य को तृप्त करती हैं। अपने नाम के अनुसार प्रगतिशीलता नए को स्वीकारने में लचीली है। खुले विचारों का होने के कारण प्रगतिशीलता की सीमा निर्धारित नहीं है। निर्धारित न होने के कारण सीमा पर कँटीले तार की बाड़ नहीं लगी है। खुली सीमा है। सीमा खुली होने के कारण घुसपैठ में आसानी होती है। प्रगतिशीलता के खुले विचारों को सार्थक करने के लिए कई नंगे भी सीमा के अंदर निछद्दम टहल रहे हैं। लचीलेपन का लाभ लेते हुए बौद्धिक घुसपैठिए प्रगतिशीलता को यदा-कदा संपादित भी करते हैं।

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