मजीठिया वेजबोर्ड लागू होने के बाद लगभग हर अखबार से बड़ी संख्या में पत्रकार/गैर पत्रकार लोग निकाले गए। दैनिक जागरण ने थोक में ( कई किश्तों में) कर्मचारी निकाले गए। अन्य अखबारों के कर्मचारियों या पत्रकार यूनियन ने किसी तरह का कोई विरोध नहीं किया। अमर उजाला, भास्कर, राजस्थान पत्रिका सहित लगभग सभी अखबार से बड़ी संख्या में पत्रकारों/गैर पत्रकारों की छंटनी श्रम कानूनों को बलाय ताक पर रखकर की गई। 25-25 साल से मुश्तकिल नौकरी करने वाले को भी बिना आरोप के, बिना पूर्व नोटिस के एक माह का वेतन देकर निकाल बाहर किया।
ताजा मामला लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा की है। इस यूनिट के स्थापनाकाल से जुड़े एसपी सिंह (वाराणसी वाले नहीं), अजय कुमार श्रीवास्तव, कुमार पीयूष, संजीव कुमार, अनिता तिवारी (संपादकीय), सुरेश कुमार (लाइब्रेरियन), वीरेंद्र कुमार त्रिपाठी, विजय दीक्षित आदि को एक साधारण सी नोटिस पर (कि अब आपकी आवश्यकता नहीं है) काम से निकाल दिया। ये सभी के सभी सालों से सहारा की सेवा कर रहे थे। अब सवाल यह उठता है कि, सालों से सेवा करने वाले स्थाई कर्मचारियों को एक झटके में किस श्रम कानून के तहत निकाला गया। अपने कुछ ऐसे कर्मचारियों को सहारा प्रबंधन ने निकाल बाहर कर दिया जिन्होंने मजीठिया के तहत वेतन और अन्य परिलाभों की मांग की थी।
देहरादून यूनिट के कुछ कर्मचारी ऐसे भी थे जिनका मामला श्रम विभाग में विचाराधीन था और उन्हें महीनों से वेतन आधा दिया जा रहा था। क्या ऐसा भी श्रम कानून है कि, आप वेतन न दीजिए और जब वह मांगे तो नौकरी से निकाल दीजिए। हाल में निकाले गए सहारा के पत्रकारों/गैर पत्रकारों को प्रबंधन ने पूरा बकाया नहीं दिया। जितने माह की सेलरी बाकी है उतनी संख्या में चेक दिये हैं। यह है सहारा प्रबंधन का “फुल ऐंड फाइनल पेमेंट” का नायब तरीका। वैसे यह सहारा का पुराना हथकंडा है।
सहाराश्री की गिरफ्तारी के बाद एक स्कीम के तहत प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से पैसे जमा कराये। पैसा वापसी की अवधि थी तीन साल। तीन साल बाद जब कर्मचारी सभी नहीं जिन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था वो पैसा लेने गए तो उन्हें जी भर कर टहलाया और पैसे भी पूरे नहीं, मूलधन ही दिये। ब्याज के पैसे को पुनः 18 माह के लिए जब्त कर लिया। वैसे भी सहारा लेने में विश्वास करता है देने में नहीं। अपने मीडियाकर्मियों को कई से डीए नहीं मिल रहा है। आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार डीए देना अनिवार्य है। देने को तो सहारा में एलटीसी का भी रिवाज है पर मिलती उन्ही को है जो प्रबंधन के करीबी होते हैं। 10 साल से ज्यादा हो गए देहरादून संस्करण के। एलटीसी मिली सिर्फ अनूप गैरोला को। क्यों?
राष्ट्रीय सहारा 16 फरवरी को अपनी 27वीं और मातृ संस्था सहारा इंडिया 40वीं वर्षगांठ मना रहा है वह भी “संकल्प वर्ष” के रूप में। एक वह सहारा है जो जो अपने स्थापनाकाल के 25वें वर्ष में एकमुश्त 25% वेतनवृद्धि की थी और एक यह है। इस प्रबंधन ( वैस प्रबंधन बदला नहीं) के पास अपने को वेतन या बकाया वेतन देने के लिए पैसा नहीं है और हर टीवी चैनलों पर विज्ञापन देने “विश्वास की बहती धारा, हम हैं सहारा” के लिए पैसे हैं।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
saharian
February 16, 2018 at 2:58 am
Sahara India ka bhawnatmak pariwar ka fanda ka pardafash ho gaya hai. ek taraf karamchari nikal rahe ho dusri taraf kaam khoj rahe ho. aise mahaul me ye sab kaise hoga. sahara ka jumla samne aa gaya hai.