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कई वर्षों से स्ट्रिंगर ही बने रहने से दुखी सतेंद्र डंडरियाल ने राष्ट्रीय सहारा को बॉय बॉय कहा

वर्षों से परमानेंट न होने और मानदेय में बढ़ोत्तरी न होने से आजिज आ चुके सतेंद्र डंडरियाल ने भी आखिर राष्ट्रीय सहारा देहरादून को बॉय बॉय कर दिया। सतेंद्र छह-सात साल से स्ट्रिंगर के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। अब तक जितने भी संपादक आए, सभी ने स्ट्रिंगर को परमानेंट करवाने का वादा किया लेकिन वे जब तक रहे, अपनी ही नौकरी बचाते रहे। किसी ने इनका मुद्दा नहीं उठाया। सात-आठ वर्षों में इनका मानदेय नाममात्र का बढ़ा। इन्हीं वजहों से अब तो संवाद सूत्र तक सहारा छोड़ रहे हैं।

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0 Comments

  1. vishnu

    August 16, 2015 at 9:39 am

    varanasi unit me bhi kam karnewale stringero ke vetan me 5 salo me ek rupey ki bhadotri nahi ki gayi hai. keval parmanent karne ka aaswasan dekar khub kaam liya ja raha hai. yese stringero ki aah jaya nahi jayegi. Kyo ki uppar wale ki lathi jab chalti hai to acche-acche jamin par aa jate hai.

  2. purushottam asnora

    August 17, 2015 at 1:32 am

    स्टींगर का मुद्दा न अखबारों के मालिकों संपादकों के लिए विचारणीय है और न ही स्वयं उन स्टींगरों के लिए जो वर्षों-वर्षों से उन अखबारों के बधुवा बने हुए हैं जिनके लिए उनकी हैसियत कीडे-मकौंडों से अधिक नही है। पत्रकारों की यूनियनें भी स्टींगर के मामले में चुप हैं।
    अखबार का मालिक धन कुबेर बनना चाहता है जो शोषण से ही संभव है। संपादक दो टके की औकात से अधिक नहीं है जिसे अपनी नौकरी बचाने के साथ मालिक की जी हुजुरी कर कमा के देना है। यूनियन भी सोचती हैं कुछ होना तो है नहीं इसलिए राग ही क्यों अलापा जाय। स्टींगर स्वयं में इतना हत्तोत्साहित है कि अपनी बात रख ही नही सकता। यदि रखे तो बाहर का रास्ता तैयार है।
    जो मगरमच्छ माननीय सर्वोंच्च न्यायालय के आदेश की परवाह न कर रहे हों उनके लिए स्टींगर क्या होता है? इसीलिए पत्रकारिता का अवमूल्यन हुआ है, लोकतंत्र का चैथा स्तंभ अपनी गरीमा खो रहा है और वह मालिकों की धन लिप्सा और संपादकों के टुच्चेपन के चलते। छोटे स्तर पर पत्रकारिता का झंडा उठाये लोगों का समय नही है। हां वे फलां या फलां पत्र के पत्रकार होने का भ्रम पाल लोगों को भी भ्रमित करते रहें अच्छी बात है।

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