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ब्रज की होली और नारी सशक्तिकरण

कान्हा यानी श्रीकृष्ण का हर वह कर्म जो समाज परिवर्तन की प्रगतिशील चेतना से जुड़ा सरोकार है, जिसे भक्त लीला कहते है। ब्रज में होली की उन्मक्त परंपरा नारी प्रगतिशीलता और सशक्तीकरण से जुड़ा संदेश हैं। जिसे हम सामाजिक रूप से लागू करने में अपने को विफल पाते हैं। होली रूपी नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के कृष्ण के संदेश को महज धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा बना रख छोड़ा है। घर की चार दीवारी में कैद रहने वाली ब्रज गोपियों को हाथ में लठ्ठ पकड़ा गोपों के ऊपर प्रहार की प्रेरणा में आत्मरक्षा और आत्म सम्मान का संदेश निहित है। महिलाओं को लेकर कृष्ण के प्रगतिशील समाज निर्माण के संदेश को नित्य आचरण में उतारने में संकोच इस बात की पुष्टि करता है कि हम कृष्ण को मानते हैं, पर कृष्ण की नहीं मानते हैं। प्रगतिशीलता की दृष्टि से आज का समाज कृष्णकाल के मुकाबले पुरुष अंह की बेड़ियों में जकड़ा है। कृष्ण रूपी महानायक को व्यापक सामाजिक सरोकारों से काटकर धार्मिक आवरण में निज ‘आनंद और मुक्ति’ का सुलभ साधन बना लिया है। कृष्ण नाम पर ‘भोग और आनंद’ की संस्कृति आज बाजार के रूप में खड़ी है।

कान्हा यानी श्रीकृष्ण का हर वह कर्म जो समाज परिवर्तन की प्रगतिशील चेतना से जुड़ा सरोकार है, जिसे भक्त लीला कहते है। ब्रज में होली की उन्मक्त परंपरा नारी प्रगतिशीलता और सशक्तीकरण से जुड़ा संदेश हैं। जिसे हम सामाजिक रूप से लागू करने में अपने को विफल पाते हैं। होली रूपी नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के कृष्ण के संदेश को महज धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा बना रख छोड़ा है। घर की चार दीवारी में कैद रहने वाली ब्रज गोपियों को हाथ में लठ्ठ पकड़ा गोपों के ऊपर प्रहार की प्रेरणा में आत्मरक्षा और आत्म सम्मान का संदेश निहित है। महिलाओं को लेकर कृष्ण के प्रगतिशील समाज निर्माण के संदेश को नित्य आचरण में उतारने में संकोच इस बात की पुष्टि करता है कि हम कृष्ण को मानते हैं, पर कृष्ण की नहीं मानते हैं। प्रगतिशीलता की दृष्टि से आज का समाज कृष्णकाल के मुकाबले पुरुष अंह की बेड़ियों में जकड़ा है। कृष्ण रूपी महानायक को व्यापक सामाजिक सरोकारों से काटकर धार्मिक आवरण में निज ‘आनंद और मुक्ति’ का सुलभ साधन बना लिया है। कृष्ण नाम पर ‘भोग और आनंद’ की संस्कृति आज बाजार के रूप में खड़ी है।

कृष्ण द्वारा महाभारत जैसे युद्ध  की अनिवार्यता के मूल में द्रोपदी के भरी सभा में अपमान  को लेकर द्रोपदी के शपथ की संकल्प सिद्धी है। राधा से विछोह की आजीवन पीड़ा मन में लिए सतत संघर्ष यात्रा कृष्ण को निष्काम कर्मयोगी के रूप में स्थापित करती है। हम कृष्ण को अपनी भावभूमि पर ही समझने की असफल कोशिश करते हैं न कि कृष्ण की भावभूमि पर। कृष्ण को समझने और न समझने का यह अंतर सहानुभूति और समान अनुभूति की तरफ है। कहा भी गया है कि ‘जाकी न फटी बिवाई, वो कहा जाना पीर पराई।’ यही नुक्ते और खामिया कृष्ण को समझने में अवरोध का काम कर रहे हैं। कृष्ण के विचार और सरोकारों को उनकी ही भावभूमि पर जाकर ओर आचरण में उतारने का जोखिम उठाना होगा। जिसके लिए हम तैयार नहीं है क्योंकि कृष्ण के नाम पर हमें रास और छप्पन भोग ही नजर आते हैं।

कभी हमने कृष्ण में  ऐसे महानायक को खोजने का साहस नहीं किया, जो मौजूदा समाज और व्यवस्था में व्याप्त महाभारत कालीन जैसे परिदृश्य को उजागर कर उसके विरुद्ध कोई संकल्प मन में क्यों नहीं पलता। कृष्ण का गीता का संदेश हमारे अंदर ‘अपनों’ के प्रति अर्जुन की भांति मौजूद विशाद योग गांडीव नहीं उठाने देता। तब कृष्ण को जानने और समझने के दावे कथित ही माने जाएंगे। क्योंकि कृष्ण तो आज भी अपने लोकधर्म के विचारों की सामयिकता के साथ एक जीवंत महानायक है इसी विराट स्वरूप के दर्शन करने से हम डर रहे हैं।

vivek dutt mathuriya
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