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भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को जनता के बड़े तबके से अलगाव के कारणों की छानबीन करनी चाहिए : अखिलेंद्र प्रताप सिंह

पांच राज्यों के चुनाव पर कुछ बातें लोगों के सामने उभरकर आ रही थीं। केरल में वाम मोर्चे की सरकार बनेगी, असम में भाजपा सरकार बना सकती है और पश्चिम बंगाल में ममता की वापसी हो सकती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि केरल में वाम मोर्चे को, असम में भाजपा को और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को इतनी अधिक सीटें मिलेंगी। दोनों प्रमुख द्रविड़ पार्टियों में तमिलनाडु में इतनी कांटे की टक्कर होगी, ऐसा भी नहीं सोचा जा रहा था। बहरहाल, पांच राज्यों के चुनावों में जो बात उभरकर आयी है वह यह है कि कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव में और गिरावट आयी है और भाजपा राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही है। हालांकि, कांग्रेस के मत प्रतिशत में कोई खास गिरावट नहीं है। असम में आज भी वह भाजपा से आगे है। पश्चिम बंगाल में उसका वोट बढ़ा है, पांडिचेरी में उसकी सरकार बनी है और तमिलनाडु में भी लोकसभा चुनाव की तुलना में वोट बढ़ा है और पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में सीटें बढ़ी हैं। वहीं यदि केरल को छोड़ दिया जाए जहां भाजपा के मतों में लोकसभा चुनाव की तुलना में 0.05 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और हर राज्य में लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के मतों में गिरावट हुई है। पांच राज्यों की 824 सीटों में भाजपा को महज 64 सीटें ही मिली हैं फिर भी उसे एक विकासमान पार्टी के बतौर लोग देख रहे हैं जो कांग्रेस को बेदखल करती जा रही है।

पांच राज्यों के चुनाव पर कुछ बातें लोगों के सामने उभरकर आ रही थीं। केरल में वाम मोर्चे की सरकार बनेगी, असम में भाजपा सरकार बना सकती है और पश्चिम बंगाल में ममता की वापसी हो सकती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि केरल में वाम मोर्चे को, असम में भाजपा को और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को इतनी अधिक सीटें मिलेंगी। दोनों प्रमुख द्रविड़ पार्टियों में तमिलनाडु में इतनी कांटे की टक्कर होगी, ऐसा भी नहीं सोचा जा रहा था। बहरहाल, पांच राज्यों के चुनावों में जो बात उभरकर आयी है वह यह है कि कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव में और गिरावट आयी है और भाजपा राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनकर उभर रही है। हालांकि, कांग्रेस के मत प्रतिशत में कोई खास गिरावट नहीं है। असम में आज भी वह भाजपा से आगे है। पश्चिम बंगाल में उसका वोट बढ़ा है, पांडिचेरी में उसकी सरकार बनी है और तमिलनाडु में भी लोकसभा चुनाव की तुलना में वोट बढ़ा है और पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में सीटें बढ़ी हैं। वहीं यदि केरल को छोड़ दिया जाए जहां भाजपा के मतों में लोकसभा चुनाव की तुलना में 0.05 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और हर राज्य में लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के मतों में गिरावट हुई है। पांच राज्यों की 824 सीटों में भाजपा को महज 64 सीटें ही मिली हैं फिर भी उसे एक विकासमान पार्टी के बतौर लोग देख रहे हैं जो कांग्रेस को बेदखल करती जा रही है।

भाजपा ने लोकतंत्र और आम जनता के जीवन के लिए गहरा संकट खड़ा किया है, उसका मुकाबला क्षेत्रीय दलों का समूह वैकल्पिक नीतियों के अभाव में नहीं कर पायेगा। वैसे भी क्षेत्रीय दलों का मोर्चा अपने बूते कभी भी कांग्रेस और भाजपा का विकल्प नहीं बन पाया है। इसीलिए आजकल क्षेत्रीय दलों का एक समूह कांग्रेस से मिलकर ‘संघ मुक्त भारत’ की बात करता है। वहीं दूसरी तरफ कुछ क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ हैं भी और जो नहीं हैं, वे भी पर्दे के पीछे भाजपा से सम्बंध बनाए रखते हैं। अवधारणा के स्तर पर भी अब भाजपा विरोधी गैरकांग्रेसी किसी तीसरे मोर्चे की बात नहीं हो रही है। बहरहाल, फासीवाद से निपटने में आंदोलन की भूमिका सदैव रहती है, इसलिए तमाम कमजोरियों और कमियों के बावजूद वामपंथी दल भारतीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। यह स्वागत योग्य है कि सीपीएम पोलित ब्यूरो ने पार्टी की पश्चिम बंगाल इकाई द्वारा कांग्रेस के साथ समझदारी कायम करने और मिलकर चुनाव प्रचार करने की आलोचना की है। सीपीएम नेतृत्व कांग्रेस और प्रमुख क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठजोड़ न करने और वाम एकता की नीति पर टिका हुआ है। इस सम्बंध में यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि वाम एकता बेहद जरूरी होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। कम्युनिस्ट आंदोलन को कुछ सैद्धांतिक गतिरोध तोड़ने होंगे। कम्युनिस्ट पार्टियां जनसंगठनों का निर्माण करती हैं, उन्हें सांगठनिक स्वायत्ता भी देती हैं लेकिन भारत की विशिष्ट स्थिति में एक बहुवर्गीय लोकतांत्रिक पार्टी निर्माण करने की जरूरत कम्युनिस्ट आंदोलन में नहीं दिखती है।

कम्युनिस्ट पार्टियों को अपनी जनदिशा के साथ जनता के बड़े तबके से अलगाव के कारणों की भी छानबीन करनी चाहिए। इतने वर्षों के कम्युनिस्ट आंदोलन के बावजूद किसानों की बहुत बड़ी तादाद आज भी कम्युनिस्ट आंदोलन के दायरे में नहीं है। तेलंगाना का किसान आंदोलन जो अभी तक का सबसे बड़ा सामंतवाद विरोधी राजनीतिक आंदोलन रहा है, उस दौर में भी संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी किसानों के सभी तबकों को अपने साथ बनाए नहीं रख सकी और न ही किसान आंदोलन का राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली विस्तार हो सका। आज भी किसान गहरे संकट के दौर से गुजर रहे हैं और उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला बढ़ रहा है, फिर भी किसानों का रुझान कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ नहीं है। यही बात नौजवानों के संदर्भ में भी है, बेरोजगारी बढ़ रही है पर नौजवान एक धारा के बतौर कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ नहीं आ रहे है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मार से पीड़ित-छोटे मझोले व्यापारी कम्युनिस्ट आंदोलन से अपना रिश्ता ही नहीं जोड़ पाते। मध्य-निम्न मध्य वर्ग भी इसके अपवाद नहीं हैं।

सब मिलाजुलाकर देखा जाए तो समाज में गहरा संकट है, दमित पहचान समूह भी अपनी आंकाक्षाएं नए ढंग से व्यक्त कर रहा है, उत्पीड़ित समुदाय के लोग भी त्रस्त हैं, लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन कोई विकासमान धारा के रूप में अपनी भूमिका नहीं दर्ज कर पा रहा है। इसकी गहरी छानबीन किए बिना जनता से अलगाव के कारणों को समझ पाना कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए कठिन होगा। अलगाव के कारणों की तलाश ही कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए एक लोकतांत्रिक जन पार्टी के निर्माण की जरूरत का एहसास कराता है। कम्युनिस्ट पार्टी जहां मजदूर वर्ग की पार्टी है, वहीं बहुवर्गीय जन पार्टी उसकी पूरक है। दोनों के हित एक दूसरे से टकराते नहीं वरन आंदोलन को और भी आगे बढ़ाते है। कम्युनिस्ट पार्टी को औद्योगिक मजदूर, खेत मजदूर और वह सभी ताकतें जो श्रम शक्ति बेचकर जिंदा रहती है, के ऊपर केन्द्रित होना चाहिए वहीं जन पार्टी को किसान, छोटे-मोटे उद्यमी, व्यापारी, मध्य वर्ग और नौजवानों के बीच में अपने कामकाज को केन्द्रित करना चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी और जन पार्टी के बीच का सम्बंध सहज और स्वाभाविक होता है, जिसमें लक्ष्य की एकता होती है। कम्युनिस्ट पार्टियां जिस लोकतांत्रिक वाम मोर्चा की संकल्पना करती हैं वह रेडिकल जन पार्टी के बगैर वामपंथी दलों का महज मंच बनकर रह जायेगा। बहरहाल पांच राज्यों के चुनाव का यह स्पष्ट संदेश है कि वामपंथियों को अपनी स्वतंत्र वाम दिशा पर अमल करना चाहिए साथ ही व्यापक जनता से एकताबद्ध होने के लिए किसान आधारित बहुवर्गीय जन राजनीतिक पार्टी के निर्माण में दिलचस्पी लेनी चाहिए।

अखिलेंद्र प्रताप सिंह
राष्ट्रीय संयोजक
आईपीएफ
दिनाक : 02.06.2016

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