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‘बाहुबली’ का अंत बहुत खराब तरीके से होता है, दर्शक ठगा महसूस करता है

Shailesh Bharatwasi : चलिए मिथक और इतिहास के मिश्रण से आलीशान सेट्स, मनोहारी ग्राफिक्स और विराटता के चित्रण से भरपूर फ़िक्शनल फिल्म बनने की शुरुआत तो हुई! भारतीय इतिहास और दंतकथाओं के विराट फिल्मांकन में इतनी संभावना है कि यदि आपके पास संसाधन और निर्देशकीय विवेक हो तो शायद एक सदी तक आप ‘बाहुबली’ जैसी मनोरंजक फ़िल्में बना सकते हैं। ‘बाहुबली’ के दृश्य मन को ख़ूब लुभाते हैं। पूरी फ़िल्म में आप इसके वैभव पर मोहित होते रहते हैं। लेकिन फ़िल्म केवल विराट सेट से तो बनती नहीं है! उसमें कहानी की कसावट और अच्छी-ख़ासी रवानगी भी होनी चाहिए।

<p>Shailesh Bharatwasi : चलिए मिथक और इतिहास के मिश्रण से आलीशान सेट्स, मनोहारी ग्राफिक्स और विराटता के चित्रण से भरपूर फ़िक्शनल फिल्म बनने की शुरुआत तो हुई! भारतीय इतिहास और दंतकथाओं के विराट फिल्मांकन में इतनी संभावना है कि यदि आपके पास संसाधन और निर्देशकीय विवेक हो तो शायद एक सदी तक आप ‘बाहुबली’ जैसी मनोरंजक फ़िल्में बना सकते हैं। ‘बाहुबली’ के दृश्य मन को ख़ूब लुभाते हैं। पूरी फ़िल्म में आप इसके वैभव पर मोहित होते रहते हैं। लेकिन फ़िल्म केवल विराट सेट से तो बनती नहीं है! उसमें कहानी की कसावट और अच्छी-ख़ासी रवानगी भी होनी चाहिए।</p>

Shailesh Bharatwasi : चलिए मिथक और इतिहास के मिश्रण से आलीशान सेट्स, मनोहारी ग्राफिक्स और विराटता के चित्रण से भरपूर फ़िक्शनल फिल्म बनने की शुरुआत तो हुई! भारतीय इतिहास और दंतकथाओं के विराट फिल्मांकन में इतनी संभावना है कि यदि आपके पास संसाधन और निर्देशकीय विवेक हो तो शायद एक सदी तक आप ‘बाहुबली’ जैसी मनोरंजक फ़िल्में बना सकते हैं। ‘बाहुबली’ के दृश्य मन को ख़ूब लुभाते हैं। पूरी फ़िल्म में आप इसके वैभव पर मोहित होते रहते हैं। लेकिन फ़िल्म केवल विराट सेट से तो बनती नहीं है! उसमें कहानी की कसावट और अच्छी-ख़ासी रवानगी भी होनी चाहिए।

फ़िल्म का पहला अर्धांश आपको कई जगहों पर ख़ूब बोर करता है। मन करता है कि गानों को आगे बढ़ा दें। इस पीरियड फ़िल्म में प्रेम की जो बुनावट है लगता है जैसे उसमें कहीं कोई तरावट नहीं है। बहुत फ्लैट तरीक़े से उसे बनाया गया है। कई बार ये भी लगता है कि हो सकता है कि इसकी मूलभाषा में देखने से ये दिक़्क़त न होती हो, लेकिन हिंदी डब से तो कई जगह ख़ूब सारी बोरियत कहानी पर हावी हो गई है। फ़िल्म का दूसरा हाफ बहुत कसा हुआ है। लेकिन जो पहले हिस्से में ख़ूब बोर हो जाए, हो सकता है उसे दूसरे हिस्से तक पहुँचने का मन ही ना हो। दूसरे हिस्से में युद्ध को जिस तरीक़े से दर्शाया गया है, उससे कई सारी अच्छी हॉलिवुडीय फ़िल्मों का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। हालाँकि फ़िल्म का अंत बहुत ही ख़राब तरीक़े से होता है। मैंने हॉलीवुड की कई सारी सीरिज़ वाली फ़िल्में देखी हैं, लेकिन वे किसी भी फ़िल्म का अंत अपूर्णता के साथ नहीं करते। उनमें एक अपूर्ण पूर्णता होती है। यदि आप कोई हिस्सा न देखें हों, या आगे वाले सीरिज़ न देखना चाहें तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लेकिन इस फ़िल्म के अंत में ऐसा लगता है कि जैसे हमारे साथ ठगी हुई है।

जो लोग इसकी तुलना ‘300’ से कर रहे हैं, मुझे लगता है वह ज़्यादती है। फ़िल्म कहीं से भी उससे प्रभावित नहीं है। असल में भारतीय इतिहास में भी इस क़िस्म की अनेक कहानियाँ हैं जिसमें बहुत कम संख्यक सेना ने अपने से कई गुना बड़ी सेना का मुकाबला किया है और जीत हासिल की है। रामायण और महाभारत महाकाव्य के युद्ध भी इसकी मिसाल हैं। फिर हम यह क्यों माने कि महेशमति की 25 हज़ार सेना जब कलिके की लाखों के बाहुबल वाली सेना को अपनी विशेष व्यूह रचना से हराती है तो वो ‘300’ से प्रभावित है! और जब दुनिया में इंसान, उसके इरादे, उसकी बेचैनी, उसकी महात्वाकांक्षा एक हैं तो उसकी वीरकथाओं में कुछ समानताएँ तो होंगी ही ना!

हिंदयुग्म प्रकाशन के कर्ताधर्ता शैलेष भारतवासी के फेसबुक वॉल से.

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