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यूपी में भाजपा ने जाति पर लगाया दांव

-प्रभुनाथ शुक्ल

राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीतिक उथल-पुथल का असर पूरे राष्टीय परिदृश्य पर दिखायी देता है। राजनीति में एक कहावत चर्चित है कि दिल्ली का रास्ता लखनउ से होकर गुजरता है। यानी केंद्र की सत्ता पर झंडा फहराना है तो यूपी की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भाजपा के दिल्ली राजतिलक में इस राज्य की अहम भूमिका रही है। दिल्ली और बिहार में मुंहकी खाने के बाद भाजपा का अगला निशाना यूपी है। क्योंकि राज्य में 2017 में सबसे बड़ा राजनैतिक महासंग्राम होगा। भाजपा ने इसका ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है।

<p><strong>-प्रभुनाथ शुक्ल</strong></p> <p>राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीतिक उथल-पुथल का असर पूरे राष्टीय परिदृश्य पर दिखायी देता है। राजनीति में एक कहावत चर्चित है कि दिल्ली का रास्ता लखनउ से होकर गुजरता है। यानी केंद्र की सत्ता पर झंडा फहराना है तो यूपी की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भाजपा के दिल्ली राजतिलक में इस राज्य की अहम भूमिका रही है। दिल्ली और बिहार में मुंहकी खाने के बाद भाजपा का अगला निशाना यूपी है। क्योंकि राज्य में 2017 में सबसे बड़ा राजनैतिक महासंग्राम होगा। भाजपा ने इसका ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है।</p>

-प्रभुनाथ शुक्ल

राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीतिक उथल-पुथल का असर पूरे राष्टीय परिदृश्य पर दिखायी देता है। राजनीति में एक कहावत चर्चित है कि दिल्ली का रास्ता लखनउ से होकर गुजरता है। यानी केंद्र की सत्ता पर झंडा फहराना है तो यूपी की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भाजपा के दिल्ली राजतिलक में इस राज्य की अहम भूमिका रही है। दिल्ली और बिहार में मुंहकी खाने के बाद भाजपा का अगला निशाना यूपी है। क्योंकि राज्य में 2017 में सबसे बड़ा राजनैतिक महासंग्राम होगा। भाजपा ने इसका ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है।

राज्य के पार्टी अध्यक्ष के सिंहासन पर केशव प्रसाद मौर्य की ताजपोशी कर पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि दिल्ली हमारी है अब यूपी की बारी है। भाजपा पर आम तौर पर अगड़ों के लिए राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। जबकि जमीनी तौर पर ऐसा नहीं है। ठाकुर बनिया और लाला पार्टी का जुमला बन गए थे। इस जुमले से अलग निकलने के लिए पार्टी ने एक नया प्रयोग किया है। केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंप कर भाजपा ने अपने खोल में बदलाव लाने की कोशिश की है। पार्टी का यह नीतिगत फैसला हैं लेकिन यह चुनावों को ध्यान में रख कर किया गया है। मौर्य के नाम की पार्टी में दूर-दूर तक कोई चर्चा नहीं थी। हलांकि यह माना जा रहा था कि आगामी चुनावों को देखते हुए पार्टी राज्य नेतृत्व का चेहरा बदल सकती है। यह भी तयमाना जा रहा था कि यह कमान किसी दमदार ओबीसी नेता को सौंपी जासकती है। इस दौड़ में मौर्य कहीं नहीं थे।

हालांकि पार्टी की यह नीति कितनी सफल होगी यह आनेवाला वक्त बताएगा। क्योंकि यूपी की राजनीति पूरी तरह जाति आधारित है। हलांकि पार्टी को इसका फायदा मिल सकता है लेकिन जितनी उम्मीद है फिलहाल वह नहीं दिखती है। क्योंकि राज्य में भाजपा की सीधा मुकाबला सपा और बसपा से होगा। बिहार की नीति पर अगर राज्य में भी कांग्रेस की गठबंधन नीति सफल हो गयी तो ऐसा नहीं लगता है कि पार्टी का यह फार्मूला बेहद कामयाब होगा। पार्टी यूपी में हिंदुत्व और विकास के एजेंडे से कुछ आगे निकलती दिखती है। हलांकि अभी पार्टी की ओर से मुख्यमं़त्री का चेहरा तय नहीं किया गया है। उस पर भी असमंजस की स्थिति लगती है। लेकिन पार्टी के लिए राज्य में अभी सीएम का सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है। पार्टी राज्य में सपा और बसपा के विकल्प के रुप में उभरने की तैयारी में जुटी है।

राज्य में केशव प्रसाद मौर्य की राजनीतिक हैसियत बहुत बड़ी नहीं है। हलांकि कि वे संघ के बेहद करीबी रहे हैं। जिसका नतीजा है कि उन्हें राज्य के नेतृत्व की कमान सौंपी गयी है। यह उनकी अग्नि परीक्षा होगी। क्योंकि पार्टी ने कुर्मी, शाक्य, कोइरी जैसी पिछड़ी जातियों को लामबंद करने के लिए इस तरह का पांशा डाला है। जबकि राज्य में केशव प्रसाद मौर्य की वह राजनैतिक हैसियत भी नहीं है वह अपने बूते जातिगत आधार पर एक मजबूत आधार पार्टी के लिए तैयार कर पाएं। भाजपा ने सपा और बसपा की जाति आधारित राजनीति की काट के लिए यह नीति चली है। केशव प्रसाद मौर्य इस समय इलाहाबाद के फूलपुर संसदीय सीट से भाजपा के सांसद हैं। जातिगत आधार की समीक्षा करें तो प्रदेश भर में जातिय समीकरण एक समान नहीं है। लेकिन ब्राहमण, मुस्लिम और यादव पूरे प्रदेश में मिलते हैं। जिसका कारण हैं कि संबंधित जातियां राज्य के राजनीतिक परिणाम को प्रभावित करने में खास भूमिका निभाती हैं।

हालांकि सिर्फ एक जाति के भरोसे चुनाव की जंग फतह करना आसान नहीं रहा है। अगर ऐसा होता तो 2012 में बसपा मुखिया मायावती दोबारा सत्ता में आती। लेकिन 2007 में ब्राहमण और दलित गठजोड़ की उनकी सोशल इंजीनियररिंग बेहद कामयाब रही। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसे वह संभाल नहीं पायी। जिसका नतीजा रहा 2012 के आम चुनाव में उनकी नीति ध्वस्त हो गयी और बसपा से नाराज अगड़ी जातियों ने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया। आज की स्थिति में भाजपा और कांग्रेस राज्य की राजनीति में हासिए पर है। पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन के पीछे भाजपा की सोची समझी रणनीति है। वह बिहार और दिल्ली की पराजय के बाद यूपी में किसी भी तरह की जोखिम नहीं लेना चाहती है। जिसका नतीजा है कि भगवा और भाजपा यूपी को लेकर नीतिगत फैसले कर रही है। हालांकि राज्य की कमान किसी अगड़ी जाति के हाथ न सौंप कर भाजपा ने अगड़ी जातियों को नाराज भी किया है। इस बदलाव से पार्टी में लाबिंग से इनकार नहीं किया जा सकता। हलांकि इसका असर आम चुनावों में दिख सकता है।

फिलहाल अभी कुछ कहना मुमकिन नहीं है। राज्य के बुंदेलखंड और पूर्वांचल के इलाकों में लोध, कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा जैसी ओबीसी जातियां अपनी खास अहमियत रखती हैं। राज्य के 16 जिलों में कुर्मी जाति के मतदाओं की संख्या खास है। इनकी आबादी तकरीबन 06 से 10 फीसदी है। जबकि पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह राम मंदिर आंदोलन में पार्टी के सबसे चर्चित चहरे रहे हैं। पार्टी में कल्याण सिंह की खासी अहमियत रही। लेकिन शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन और ढ़लती उम्र के साथ कल्याण सिंह का अब वह रुतबा नहीं रहा। लेकिन लोध जाति में उनकी अच्छी पकड़ रही है। मध्य यूपी में लोध जाति के मतदाताओं की संख्या लगभग 05 से 10 फीसदी तक है। राज्य के कुर्मी, लोध के अलावा कुशवाहा जाति की भी अपनी खास पकड़ रही है। बसपा में कभी बाबूराम कुशवाहा अपनी अलग पहचान रखते थे।

लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप में फंसने के बाद पार्टी में अब स्वामी प्रसाद मौर्य कुशवाहा बिरादरी के खास प्रतीक हैं। राज्य में इस जाति की संख्या तकरकीबन 07 से 10 फीसदी के करीब है। राज्य में तीनों जातियों लोध, कुशवाहा और मौर्य की हिस्सेदारी लगभग बराबर है। जिसके चलते भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को यूपी का नायक बनाया है। राज्य में जातिय आधार की समीक्षा करें तो पूरे राज्य में कुर्मी मतों का आंकड़ा तीन फीसदी से अधिक नहीं है। लेकिन क्षेत्रित स्तर पर यह जातियां राज्य की राजनीति को प्रभावित करती हैं। प्रदेश में यादवों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी से अधिक हैं। जबकि पश्चिम यूपी में साढे़ 11 प्रतिशत जाट आबादी चुनाव परिणाम को बदलने में अपनी अहम भूमिका निभाती है। राज्य में राजनैतिक लिहाज से सबसे संवृद्ध और बुद्धिमान के अलावा सत्ता की केंद्र बिंदू माने जाने वाले ब्राहमणों की आबादी 10 फीसदी है। जबकि आठ फीसदी से अधिक क्षत्रिय हैं। 29 फीसदी अन्य जातियां हैं। राज्य में दलित जातियों में 66 जातियां शामिल हैं। जबकि ओबीसी में यह विभेद करीब 80 तक है।

राजनीति की गणित पलटने वाले मुस्लिमों की तादात 18 फीसदी से अधिक है। इस लिहाज से भाजपा का यह फैसला अहम माना जा रहा है। पार्टी ने जातिवादी नकाब के सहारे राज्य में 2017 का विधानसभा चुनाव जीतना चाहती है। लेकिन इस निर्णय के पीछे केंद्रीय नेतृत्व का फैसला भी अहम है। फिलहाल उन्हें राज्य के पार्टी नेतृत्व की कमान भले सौंप दी गयी है लेकिन सारा निर्णण शीर्ष नेतृत्व ही लेगा। दिल्ली और बिहार के पराजय के बाद शाह के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन यूपी के महासंग्राम में मोदी, शाह और जेटली की तिकड़ी ही चलेगी। भाजपा का यह फैसला कितना अहम होगा यह वक्त बताएगा। लेकिन राज्य में पार्टी अगड़ों के लेबल से बाहर निकलना चाहती है। जाति पर लगाया गया उसका दांव कितना सफल होगा। इसके लिए हमें इंतजार करना होगा। 

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लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क 892400544

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