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अपने मालिक से कुछ क्यों नहीं मांगते पत्रकार, सरकार के आगे कटोरा लिए क्यों खड़े रहते हैं?

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर : एक पराडकर जी हुआ करते थे। अखबार के ही काम से गए लेकिन काशी नरेश का आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। एक आज के पत्रकार हैं। वे अपने निजी काम के लिए भी सूचना विभाग की गाड़ी के ऐड़ी चोटी का जोर लगा देंगे। बच्चे को जिले के नामी गिरामी स्कूल में दाखिला दिलवाने का मामला हो या फीस माफ करवाने का, सारे घोड़े खोल डालेंगे। एक कहावत है भ्रष्टाचार रूपी गंगोत्री ऊपर से नीचे को बहती है। यह फार्मूला अखबार या यूं कहें मीडिया पर पूरी तरह से लागू होता है। पहले छोटे अखबार के छोटे कर्मचारी ही जुगाड़ में लगे देखे जाते थे आज हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने को आतुर रहता है।

<p>विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर : एक पराडकर जी हुआ करते थे। अखबार के ही काम से गए लेकिन काशी नरेश का आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। एक आज के पत्रकार हैं। वे अपने निजी काम के लिए भी सूचना विभाग की गाड़ी के ऐड़ी चोटी का जोर लगा देंगे। बच्चे को जिले के नामी गिरामी स्कूल में दाखिला दिलवाने का मामला हो या फीस माफ करवाने का, सारे घोड़े खोल डालेंगे। एक कहावत है भ्रष्टाचार रूपी गंगोत्री ऊपर से नीचे को बहती है। यह फार्मूला अखबार या यूं कहें मीडिया पर पूरी तरह से लागू होता है। पहले छोटे अखबार के छोटे कर्मचारी ही जुगाड़ में लगे देखे जाते थे आज हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने को आतुर रहता है।</p>

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर : एक पराडकर जी हुआ करते थे। अखबार के ही काम से गए लेकिन काशी नरेश का आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। एक आज के पत्रकार हैं। वे अपने निजी काम के लिए भी सूचना विभाग की गाड़ी के ऐड़ी चोटी का जोर लगा देंगे। बच्चे को जिले के नामी गिरामी स्कूल में दाखिला दिलवाने का मामला हो या फीस माफ करवाने का, सारे घोड़े खोल डालेंगे। एक कहावत है भ्रष्टाचार रूपी गंगोत्री ऊपर से नीचे को बहती है। यह फार्मूला अखबार या यूं कहें मीडिया पर पूरी तरह से लागू होता है। पहले छोटे अखबार के छोटे कर्मचारी ही जुगाड़ में लगे देखे जाते थे आज हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने को आतुर रहता है।

बहरहाल, सेल्फी की तरह यह राष्ट्रीय रोग हो गया है कि पत्रकार भिखारी की तरह कटोरा लिए कुछ मिलने की प्रत्याशा में दिख जाता है चाहे प्रेस कान्फ्रेंश में एक अदद पेन और राइटिंग पैड के लिए हो या सरकारी सुविधा के लिए। पत्रकार संगठनों के लिए अपने सम्मेलनों में मुख्यमंत्री या सूचना प्रसारण मंत्री को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया ही इसलिए जाता है कि उनसे थोक में घोषणाएलं करवा लेंगे। अब यह अलग बात है कि घाघ मंत्री शुभकामना संदेश भिजवा कर थोपे गए इस धर्म संकट से निजात पा लेते हैं।

बात मुद्दे की… पत्रकार या पत्रकार संगठन हमेशा सरकार के आगे कटोरा लिए क्यों खडे रहते हैं? मसलन हमें चिकित्सा सुविधा दे दो सरकार, रियायती दर पर यात्रा की मिलनी चाहिए। सस्ते दर पर मकान मिल जाए तो क्या बात है। पत्रकारों के लिए फोकट में कालोनी बनवा दो माई बाप। सिटी बस में भी फ्री की सुविधा दिलवा हुजूर। अंगुरी धरत पहुंचा पकडना कोई पत्रकारों से सीखे। इन दिनों पत्रकार संगठन अपना (अगर कुछ दिनों बाद अपने परिवार का और अगर यही हाल रहा तो अपनी महिला मित्र का महिला पत्रकार से क्षमा चाहता हूं) बीमा कराने की मांग कर रहे हैं वो भी सरकार से। सवाल यह उठता है कि हम मांगते क्यूं हैं? और मांगते ही हैं तो सरकार से ही क्यों? हमें क्या हक बनता है सरकार से मांगने का? हम सरकारी कर्मचारी हैं क्या? सरकार की जिम्मेदारी है कि वह हमें दे? क्यों दे।

पत्रकार समाचार कवर करने जाता है तो उसे कन्वेंश एलाउंस मिलता है। जिले से बाहर जाने पर टीए डीए और स्थानीय यात्रा भत्ता अलग से तो फिर बस और रेल में मुफ्त यात्रा की सुविधा क्यों? लोकल कन्वेंश के लिए मंत्रियों विधायकों और सूचना विभाग की गाड़ी क्यों? पत्रकार बंधुओं हमारा और हमारे परिवार का किसी भी तरह का बीमा केंद्र या प्रदेश सरकारें क्यों करायें? सस्ता मकान और सस्ती जमीन के लिए हम सरकार की और टकटकी क्यों लगाये रहते/रखते हैं? इसलिए की काम के बदले दाम कम मिलता है। हमें अपने काम का दाम सही मिले तो शायद नहीं निश्चित रूप से हमें कटोरा नहीं फैलाना पड़ेगा।

एक बार फिर मूल मुद्दे पर। हम सरकार के बजाय मालिक या नियोक्ता से क्यों नहीं मांगते। हमारा नियोक्ता सरकार है क्या? इसी से जुड़ा एक और सवाल। अगर हम सरकार मंत्री, सांसद, विधायक , मेयर, सभासद या ग्राम प्रधान से व्यक्तिगत या संगठन के लिए सहयोग लेंगे और वह कोई घपला/घोटाला करेगा तो क्या उसके खिलाफ कुछ लिख पाएंगे। अब यह अलग बात है कि हम पत्रकार अपने मालिक/ संपादक की मर्जी के बिना भी एक लाइन नहीं लिख पाते।

लेखक अरुण श्रीवास्तव राष्ट्रीय सहारा, देहरादून समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं.

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