तेज आर्थिक विकास के सुपरसोनिक दौर में क्रांति की रफ्तार भी तेज होनी चाहिए। शायद इसलिए नेपाल के संसदीय माओवादी क्रांति जल्द पूरा कर लेना चाहते हैं। फौरन से पेशतर। तो क्या अगर इसके लिए कुछ मामूली ‘समझौते’ करने पड़े। जैसे, सर्वहारा की तानाशाही जैसे ‘बदनाम’ नारे को छोड़ना पड़े। ‘लोकतंत्र’ के दौर है तानाशाही की बात करना जड़सूत्रवाद है। ऐसे ही और तर्को के साथ नेपाल का माओवादी आंदोलन खुद को ‘नई’ विश्व मान्यता के अनुरूप ढालने, ‘विश्व जनमत’ का भरोसा जीतने और ‘नई’ तरह की क्रांति करने के काम में व्यस्त है। कुल मिला कर वह मार्क्सवादी या नेपाल के संदर्भ में माओवादी क्रांति को पूरा करने के लिए मार्क्सवाद और माओवाद से समझौता करने, यहां तक कि उससे पीछा छुड़ाने को तैयार है! नतीजतन नेपाल का माओवादी आंदोलन तेजी से विखरता जा रहा है।
नेपाल में माओवादी आंदोलन का बिखराव 2006 से शुरू हुआ। हालांकि सैद्धांतिक विचलन और भी पहले तब शुरू हो चुका था जब पार्टी ने ‘सत्ता के अतिरिक्त सब भ्रम है’ के नारे को ‘सत्ता में साझेदारी’ से बदल दिया था । तो भी जनयुद्ध काल की आवश्यकता और ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ के परिप्रेक्ष में फौरी तौर पर व्यापक गोलबंदी की दृष्टि से देखने से यह विचलन बाद के अन्य विचलनों गौण ही था।
2006 में तत्कालीन नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) ने भारत की मध्यस्थता में राजतंत्र के विरूद्ध सात संसदीय पार्टी के साथ मिल कर आंदोलन करने की घोषणा की। बदलाव के शोर में यह तथ्य छिपा रहा गया कि आंतरिक मामले में बहारी शक्ति की दखलअंदाजी को आमंत्रित कर भविष्य में ऐसी तमाम दखलअंदाजियों के लिए एक बड़ा सुराख खोल दिया गया है। लेकिन आवेग विवेक पर भारी पड़ गया और माओवादी आंदोलन रूप में आरोहण और अंतरवस्तु में अवरोहण की दिशा में तेजी से बढ़ गया। आज जब यह माओवादी पार्टी और अन्य दल नेपाल के आंतरिक मामलों में ‘भारत’ को हस्तक्षेप न करने को कहती हैं तो उसका अर्थ सिर्फ इतना ही होता है कि वे भारत को अपनी ओर से हस्तक्षेप करने को कहती हैं। लेकिन क्या यह संभव है?
2006 में सार्वजनिक होने के बाद और जेल में कैद ‘हार्डलाइनर्स’ के बाहर आने के बाद नेपाल की माओवादी पार्टी में दो लाईन का तीव्र संघर्ष शुरू हो गया। विगत की कमजोरियों को ठीक कर आंदोलन को पटरी में लाने के इरादे से पार्टी के एक बड़े हिस्से ने अंतरसंघर्ष शुरू किया। इस संघर्ष का नतीजा यह निकला कि माओवादी पार्टी के विसर्जनवादी नेतृत्व ने ‘वाम’ एकता के छद्म नारे में पार्टी के अंदर उन तमाम लोगों को भरना आरंभ कर दिया जो जनयुद्ध और माओवादी राजनीति के घोर विरोधी रहे थे। अंततः पार्टी के अंदर जनयुद्ध विरोधियों का बहुमत हो गया। 2012 तक आते आते माओवादी पार्टी के अंदर दो लाईन के साथ साथ चलने का दौर पूरा हो गया। पार्टी टूट गई। नवसंशोधनवादियों के खिलाफ पार्टी के मूल नेतृत्व ने, प्रचण्ड और बाबुराम को छोड़, नई पार्टी का निर्माण किया नेपाल कम्युतिष्ट पार्टी- माओवादी। इस पार्टी ने आरंभ से ही बिखरे माओवादियों को एकताबद्ध करने और नवसंशोधनवादियों के खिलाफ संघर्ष चलाने का प्रयास किया।
साथ संसदवाद और दूसरे संविधान सभा चुनाव का सक्रिय बहिष्कार किया। लेकिन संविधान सभा के चुनाव के बाद इस पार्टी में भी नेतृत्व और कार्यदिशा को लेकर तीव्र विवाद पैदा हो गया। और पार्टी विभाजित हो गई। विभाजन से उपजी निराशा ने ‘माओवादियों की एकता’ की मांग को वामराजनीति के केन्द्र में ला दिया। एकता का प्रश्न क्रांति का प्रश्न बन गया। और किसी भी पार्टी के लिए एकता का विरोध करना असंभव हो गया। ठीक इसी परिस्थिति में वह खेल शुरू हो गया जिसके लिए फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था, ‘‘एकता’ के नारे से हमें भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। जिन लोगों के मुंह से ये शब्द सबसे अधिक सुनाई देता है वे ही लोग सबसे अधिक फूट के बीज बोते हैं।”
क्रांतिकारी दलों के बीच एकता लुभावने नारों की समानता के आधार पर नहीं बल्कि ठोस कार्यदिशा की एकरूपता के आधार पर होती है। एकता इस बात पर निर्भर करती है कि एक होने वाले दलों की रणनीति और कार्यनीति क्या है। इसी को स्पष्ट करने के लिए मोहन वैद्य किरण के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी माओवादी (क्रांतिकारी) ने प्रचण्ड के नेतृत्व वाली एकीकृत नेकपा (माओवादी) के समक्ष ‘एकता के छः आधार’ पेश किए। जिन तीन आधार पर सहमति नहीं बन सकी वे थे- संसदवाद का विरोध करना, क्रांति में बल प्रयोग के सिद्धांत को मानना और नए जनवाद की कार्यदिशा को लागू करना। वास्तव में ये तीन आधार (नेपाल के संदर्भ में) मार्क्सवाद और संशोधनवाद को परखने की कसौटी हैं।
जब लगभग एक साल तक इन आधारों पर वार्ता होने के बावजूद भी एकता की बात नहीं बन सकी तो पार्टी के अंदर महासचिव बादल की अनुवाई में एक ऐसे गुट का विकास होने लगा जो जनयु़द्ध के बाद नेपाली राजनीतिक स्थिति से उत्पन्न निराशापूर्ण माहौल का फायदा क्रांति के आदर्शा का खत्म करने के लिए उठाना चाहता था। तमाम तरह के षड़यत्र रचे गए। पार्टी के मूल नेतृत्व के विरुद्ध एकता का दवाब बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया गया और अंततः पार्टी का विभाजन हो गया। एकता की जल्दबाजी हमेशा फूट का संकेत होती है। नेपाल की माओवादी पार्टी भी इसका अपवाद नहीं रही। बादल पक्ष ने अपनी तमाम शक्ति का इस्तेमाल पार्टी का पूर्ण विलय प्रचण्ड की पार्टी के साथ करने में लगा दिया। जब इस पर सफलता नहीं मिली तो उसने एक हिस्से के साथ पार्टी पर कब्जे का दावा कर प्रचण्ड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी से एकता की घोषणा कर दी।
नेपाल के गैर संसदीय वाम आंदोलन के लिए यह एक बड़ा झटका है। लेकिन इसके सबक भी महत्वपूर्ण है। पहला सबक तो यही है कि मात्र संसदवाद का विरोध करना काफी नहीं है बल्कि संसदीय राजनीति का भण्डाफोड़ करना और जनता को उसकी सीमा के प्रति शिक्षित करना बहुत आवश्यक है। नेपाल की पार्टी ने यहां पहली चूक की। दूसरी गलती दो लाईन संघर्ष के दौर में एकता और संघर्ष के द्वंदवादी नियम की कमजोर समझ थी। जब पार्टी ने 2012 में प्रचण्ड की पार्टी से अलग होकर नए दल का गठन किया था तब प्रचण्ड की पार्टी को नवसंशोधनवादी कहा था। लेकिन जैसे ही प्रचण्ड ने एकता ‘इशारा’ किया और दोनों पार्टियो के बीच वार्ता होने लगी तो किरण की पार्टी ने एकता को निरपेक्ष तरीके से ग्रहण किया और प्रचण्ड की पार्टी की राजनीति से जनता को परिचित करवाने की कोशिश को तिलांजलि दे दी।
तीसरी चूक पार्टी की दो लाईन संघर्ष के दर्शन को समझने में हुई। पार्टी के अंदर दो लाईन का संघर्ष हमेशा चलता है। फर्क बस इनता होता है कि अलग अलग परिस्थितियों में इसका स्वरूप अलग अलग होता है। कभी यह संघर्ष शत्रुतापूर्ण होता है और कभी गैर-शत्रुतापूर्ण होता है। एक क्रांतिकारी पार्टी को दो लाईन संघर्ष के इन दोनों स्वरूपों को पहचानना आना चाहिए। कामरेड बादल ने जब ‘राष्ट्रीय जनवाद’ की खुश्रचेव और देंग की लाईन को पार्टी की केन्द्रीय समिति की बैठक में पूरक प्रस्ताव के रूप में पेश किया ठीक उसी वक्त पार्टी को यह समझ जाना चाहिए था कि यह लाईन जिसका विरोध लगभग हर दौर की क्रांतिकारी पार्टियों ने किया है उस लाईन को फिर से प्रस्तुत करना प्रस्तुत करने वाले पक्ष की ’मामूली भूल’ का परिणाम नहीं है। ऐसे वक्त में पार्टी को इस संघर्ष को तेजी से जनता और निचले स्तर के पार्टी सदस्यों के पास ले जाना चाहिए था। लेकिन अपनी कमजोरियों के चलते पार्टी के मूल नेतृत्व ने संघर्ष के इस रूप को अंत तक आम जनता और समर्थकों से दूर रखा।
अब जबकि पार्टी का विभाजन हो गया है तो आशा है कामरेड किरण के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी एक बार अपनी कमजोरियों की गंभीर समीक्षा करेगी। क्रांति कोई फाटफूड नहीं है कि ऑडर करते ही हाथ में आ जाए। यह एक गंभीर मसला है। अन्य देशों की तरह ही नेपाल में भी क्रांति का वस्तुगत आधार अभी भी बना हुआ है लेकिन इंकलाब जल्दबाजी में नहीं होगा यह बात तय है।
नेकपा (क्रांतिकारी माओवादी) के अंदर चले दो लाइन संघर्ष और पार्टी के विभाजन पर vishnu sharma का यह लेख हिन्दी पत्रिका ‘देश-विदेश’ में प्रकाशित हो चुका है. विष्णु शर्मा से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.