रामकृष्ण परमहंस को मरने के पहले गले का कैंसर हो गया। तो बड़ा कष्ट था। और बड़ा कष्ट था भोजन करने में, पानी भी पीना मुश्किल हो गया था। गले से कोई भी चीज ले जाना कष्ट था। घाव था। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा, कि इतनी पीड़ा शरीर को हो रही है। आप जरा मां को क्यों नहीं कह देते? जगत जननी को जरा कह दो। तुम्हारा वह सदा से सुनती रही है। इतना ही कह दो, कि गले को इतना कष्ट क्यों दे रही हो? फिर भोजन की असुविधा हो गई है।
रामकृष्ण ने कहा, तू कहता है तो कह दूंगा। मुझे खयाल ही न आया।
घड़ी भर बाद आंख खोली और खूब हंसने लगे और मां ने कहा, पागल! कब तक इसी कंठ से बंधा रहेगा? सभी कंठों से भोजन कर। बात समझ में आ गई। रामकृष्ण ने कहा, यह कंठ अवरुद्ध ही इसलिए हुआ था कि सभी कंठ मेरे हो जाए। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन करूंगा।
एक कंठ अवरुद्ध होता है, सभी कंठों के द्वार खुल जाते हैं। यहां एक अस्मिता बुझती है और सारे अस्तित्व की अस्मिता, सारे अस्तित्व का मैं भाव–वही तो परमात्मा है। वही अस्तित्व अस्मिता तो कृष्ण से बोली है, सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण आ। यह कौन बोला है? यह कौन है मेरी शरण? यह कोई कृष्ण नहीं हैं, जो सामने खड़े हैं। यह सारे अस्तित्व की अस्मिता, यह सारे अस्तित्व का मैं बोला है। तुम्हारा मैं बाधा है क्योंकि उसके कारण तुम सारे अस्तित्व के मैं के साथ एकता न साध पाओगे।
कहे कबीर दीवाना, प्रवचन-१०, ओशो
(Pravin Choughule द्वारा ओशो-दर्शन एफबी पेज में प्रकाशित)