अब मैं उन बातों की भी जानकारी देने की कोशिश करूंगा जो अखबार के पन्नों तक नहीं पहुंचती हैं या जिन खबरों के कत्ल के कई कारण होते हैं। जैसे आपने कभी किसी अखबार में नहीं पढ़ा होगा कि एक वेज बोर्ड की अनुशंसाएं संसद स्वीकृत कर चुकी है, सुप्रीम कोर्ट लागू करने का आदेश दे चुका है लेकिन 11 नवंबर 2011 से वे ही अखबार इसे मानने से इंकार कर रहे हैं जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा करते थकते नहीं हैं। भास्कर से लेकर जागरण और पत्रिका समूह तक सभी दिग्गजों के यही हाल हैं। वेज बोर्ड की अनुशंसानुसार कर्मचारियों को पैसा न देना पड़े इसके लिए अखबार किस हद तक नीच हरकतों पर उतर आए हैं, नीच शब्द पर शुरुआती आपत्ति हो सकती है लेकिन यदि तथ्य निकाले जाएं तो शायद आप इससे भी बुरे शब्द इन अखबारों की शान में कहें।
सुप्रीम कोर्ट न सिर्फ आदेश दे चुका है बल्कि आदेश न मानने पर अवमानना के मामलों की सुनवाई में भी कड़ा रुख अपना चुका है लेकिन अखबार मालिक अपने रसूख के चलते बेफिक्र हैं। चलिए शुरु से ही शुरु करें…अखबारों में आपके हक की खबरें जुटाने वाले पत्रकार सालों से अपना शोषण करा रहे हैं और कुछ मामलों में तो शायद न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम कर रहे हैं। पहले भी पत्रकारों का वेतन तय करने के लिए वेज बोर्ड बने, उनकी सिफारिशें आईं और अखबारों पर इनका कोई असर नहीं दिखा।
इस बार मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं को संसद ने नियम की तरह मान लिया और इसे लागू न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने अखबारों को फटकार भी लगाई। अखबार मालिक अपने रसूख के दम पर ठेंगा दिखाते रहे तो कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का केस दर्ज कराया। इसकी सुनवाई में जमकर फटकार पड़ी और तय हुआ कि यह वेतनमान लागू हुआ या नहीं इस बात की पूरी रिपोर्ट पांच पांच राज्य पेश करेंगे ताकि यह साफ हो सके कि इस वेतन के हिसाब से पत्रकारों (और गैर पत्रकार भी) को पैसा मिल रहा है।
11 नवंबर 2011 से अब तक का बकाया भी दिया जाना है। जाहिर है पत्रकारों की लेनदारी का आंकड़ा करोड़ों में है और यही वजह है कि इस रकम का हिसाब लगाते ही सारे अखबार मालिक या कह लें लालाजी गश खा रहे हैं। जब तलवार गर्दन के करीब आने लगी कि सुप्रीम कोर्ट सुब्रत राय सहारा जैसा हाल न कर दे तो सभी लालाजी मिले और अपने वकील अभिषेक मनु सिंघवी, कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसे वकीलों से कहा कि आप करोड़ों की फीस भले ले लो लेकिन कुछ ऐसा कर दो कि कर्मचारियों को पैसा न देना पड़े। वकीलों ने सुझाव देने शुरु किए और अखबार वाले उन पर आंख बंद करके अमल करते गए।
पहला सुझाव था कि सभी कर्मचारियों से एक फॉर्म भरवाया जाए जिसमें कहा गया हो कि हम बढ़ा हुआ वेतन नहीं चाहते यानी हमें कम पैसे पर ही काम करना है। सारे अखबारों के सारे कर्मचारियों से डरा धमकाकर साइन लिए गए और जो सीना चौडा़कर खुद को दबंग पत्रकार बताते हैं उन्होंने भी बिना नानुकुर ऐसा पत्र दे दिया। जिन चंद लोगों ने नानुकुर की उन्हें धड़ाधड़ उन जगहों पर ट्रांसफर कर दिया गया जहां वे बेचारे कभी जा ही नहीं सकते थे। जिन्हें बआसानी हटाया जा सकता था उन्हें तो खैर तुरंत और तत्काल प्रभाव से निकाल दिया गया।
तरह तरह के बहाने सामने ला लाकर लोगों को हटाया गया। इसके बावजूद कर्मचारी बचे रहे क्योंकि अखबार मालिक सभी को एकदम तो हटा नहीं सकते वरना अरबों खरबों का बजट गड़बड़ा जाता। इसलिए एक और सुझाव पर अमल किया गया कि अखबार ने खुद ही एक प्लेसमेंट एजेंसी बना ली। सारे कर्मचारियों से इस्तीफा ले लिया गया और उन्हें पुराने वेतनमान पर ही नई कंपनी का कर्मचारी बता दिया गया।
बड़ी बड़ी बातें करने वाले नेशनल एडिटर तक से उस फॉर्म पर साइन कराया गया है जिसमें कहा गया है कि मुझे बढ़ी हुई तनख्वाह नहीं चाहिए और बड़े बड़े संपादक भी अब भास्कर या नईदुनिया या पत्रिका के कर्मचारी न होकर इन्हीं की डमी प्लेसमेंट संस्थाओं के दिहाड़ी मजदूर हैं जिनके पास पत्रकार जैसा कोई हक नहीं है। मैं इन चंद अखबारों के नाम इसलिए ले रहा हूं कि इनकी आज की हकीकत मुझे पता है लेकिन सच यह है कि देशभर में सभी अखबारों (दो चार अंग्रेजी अखबार छोड़कर) की यही हालत है। ऊपर से एक दूसरे से लड़ते दिखने वाले सारे अखबार एकजुट होकर कर्मचारियों पर ज्यादतियां कर रहे हैं। सबसे ज्यादा बुरा हाल तो उन पत्रकारों का किया जा रहा है जिन्होंने श्रम विभाग के माध्यम से यह आवेदन दे रखा है कि उन्हें मजीठिया के हिसाब से वेतन और बकाया चाहिए। संस्थानों ने उनके गेट पर निर्देश दे दिए हैं कि ऐसे किसी कर्मचारी को अंदर न आने दिया जाए ताकि अनुपस्थिति का बहाना बनाकर उसे निकाला जा सके। यहां तक कि जिन पर दूसरे साथियों को हक के लिए ‘भड़काने’ की शंका है उनके पीछे गुंडे तक लगे हुए हैं।
अब जरा इस तथ्य पर भी नजर करें
ये अखबार जो न सुप्रीम कोर्ट की सुन रहे हैं और न सरकार की, यहां तक कि संसद और संविधान को भी जो कुछ नहीं समझ रहे हैं उनका गणित भी समझ लें। अखबार वालों को अखबार चलाने की जमीन तो लगभग मुफ्त ही मिलती है या दो चार पांच रुपए की लीज पर। इनकी मशीनें लोन पर होती हैं जो इन्हें चुकाने को कहा तक नहीं जाता। इन्हें दिया जाने वाला कागज इतनी सस्ती दरों पर मिलता है कि यदि इन्हें एक साल ही अखबार का कागज पूरी कीमत पर खरीदना पड़ जाए तो देश में चार छह अखबार ही बच पाएं। इन्हें सरकारी विज्ञापन मिलते हैं जो काफी ज्यादा कीमत देकर छपाए जाते हैं ताकि इन्हें फायदा मिल सके। इतना सब अखबार के नाम पर लेकर ये अखबार वाले खुश हो जाते हों ऐसा भी नहीं है।
इसके बाद शुरू होती है अतिरिक्त की मांग, दूसरे दूसरे प्रोजेक्ट्स बनाकर या किसी न किसी नाम पर इन्हें ज्यादा से ज्यादा जमीन चाहिए होती है। अधिकांश बड़े अखबार वाले ग्रुप 20 से ज्यादा अलग अलग धंधों में हैं और सभी में अखबार के नाम पर दादागिरी से सरकारी पैसा हजम किया जाता है। खुद को सबसे बड़ा ग्रुप बताने वाला एक अखबार तो बिल्डर के तौर पर इतनी सरकार जमीन हथिया चुका है कि यदि सिर्फ उससे सरकारी जमीन ही छीन ली जाए तो करोड़ों का हिसाब हो जाए।
भास्कर की रायपुर में बनाई गई बिल्डिंग यदि एनजीटी की जमीन पर है तो जबलपुर में भी इसकी जमीन विवादित है। राजधानी भोपाल में ही डीबी मॉल की जमीन पर इतने वाद विवाद रहे हैं कि अखबार का दबाव नहीं होता तो न जाने कब से इसे तोड़ा जा चुका होता। सरकार पैसे की इस अंधी लूट के बाद भ्ज्ञ ीइनका पेट नहीं भरता तो ये विज्ञापनों के लिए दादागिरी करते हैं और यकीन मानिए बड़ी बड़ी कंपनियां इनसे डरकर इन्हें मुंहमांगी कीमत देकर पिंड छुड़ाती हैं। जो इस दादागिरी के खिलाफ खड़ा होता है उसे बदनाम करने के लिए बाकायदा सुपारी ली और दी जाती हैं।
पिछले दिनों तो एक संपादक महोदय ने सरकारी कागजों में खुद ही हेरफेर कर लिया और इस फर्जीवाड़े से पांच करोड़ का मकान भी तान लिया। पकड़े जाने पर पूरा अखबार प्रबंधन उनके पक्ष में दबाव बनाने लगा क्योंकि ये संपादक जी लिखने पढ़ने का भले क ख ग भी न जानते हों लेकिन मार्केट से वसूलीबाजी में माहिर हैं। प्रबंधन के सामने सवाल यह था कि यदि इन्हें हटाया तो न सिर्फ नेशनल एडिटर महोदय के पन्ने खुलेंगे बल्कि अखबार की भी दो नंबरी कमाई के खुलासे होने की संभावना बन जाएगी। यह एक उदाहरण सिर्फ समझने समझाने के लिहाज से है वरना भांग पूरे कुएं में घुली है।
… पिक्चर अभी बाकी है
आदित्य पांडेय
9424539609
Pawan joshi,journalist
October 3, 2016 at 2:16 pm
Sir adiytya jis
You have written everything as it is but one thing is depress that media group is stronger than constitution than where to go for grievances.
vikas rathi
October 3, 2016 at 6:32 pm
Sir
ye akhbhar , regulatory departments , neta all are made for each other , every one just want to sell “NO Negative news ” for the sake of maintaining positivity in society
Rajesh Saxena
October 4, 2016 at 1:08 am
aapne baki sab sahi likha hai bus itna bata dijiye ki akhbaar chapne ke liye kagaz kaise sasti rate par milta hai. meri jaankari main to 15 saal pahle hi kagaz par subsidy khatam ho chuki hai. ab to market se kagaz lo aur akhbaar print karo.