“आने वाले वर्षों में अखबार बहुत सुंदर होंगे, लेटेस्ट कवरेज होगी, अच्छी छपाई होगी, पर किसी संपादक की हिम्मत नहीं होगी कि वह मालिक की आंख में आंख मिलाकर बात कर सके”।
-बाबूराव विष्णुराव पराड़कर
संपादक हिंदी दैनिक आज
(एक कार्यक्रम के दौरान उनका वक्तव्य)
आज कितने संपादक / स्थानीय संपादक / समूह संपादक होंगे जो मालिक से मिलाकर बात कर सकें। इन संपादकों की जाने दें। किसी समय सहारा मीडिया के एडिटर इन चीफ को ही ले लें। एक समारोह (15 अगस्त या 26 जनवरी) में सुब्रतो राय नोएडा परिसर में आये थे। वे सालों बाद यहां के कार्यक्रम में शिरकत की थी ऐसा अपने संबोधन में कहा था। इसी कार्यक्रम में एडिटर इन चीफ (पद कुछ ऐसा ही था) उपेंद्र राय की जुबान सर सर कहते-कहते थकी नहीं। यही हाल कभी लखनऊ संस्करण के एक संपादक का था। सहारा इंडिया के एक अति बड़े अधिकारी की पत्नी के मैरिज एनवरसरी में जब उनको माइक दिया गया तो उन्होंने फरमाया कि यहां इतने बड़े-बड़े अधिकारी मौजूद हैं कि बोलते हुए पैर कांप रहा है।
एडिटर इन चीफ के बयान का गवाह उस समय का वीडियो फुटेज है तो लखनऊ के संपादक के वक्तव्य की ताकीद रिकार्डिंग से की जा सकती है। वैसे यह इन दोनों को अपमानित करने के लिए नहीं मात्र उदाहरण के लिए है। अब हर संपादक दिलीप पटगांवकर तो होता नहीं। सुना है कि जब नेल्सन मंडेला भारत आये थे तब वे टाइम्स ग्रुप के मालिक से नहीं पटगांवकर जी से मिले थे।
बात मुद्दे की। संपादक शोभा की वस्तु क्यों बनता जा रहा है। इस पद को सुशोभित कर रहे कितने संपादक हैं जो अपनी काबलियत से वहां पहुंचे हैं ? कितने संपादक / स्थानीय संपादक हैं जो संपादकीय लिखते हैं। माना कि आज पत्रकारिता मिशन नहीं, व्यवसाय है, फिर भी अखबार तो अखबार है, और जब अखबार है तो अखबार की तरह निकलेगा। जिस तरह अखबार के मुख्यालयों में स्थापित “सेंट्रल डेस्क” अन्य संस्करणों के संपादकीय विभाग को निगलता जा रहा है उसी तरह समूह संपादक स्थानीय संपादकों को। कुछ अखबारों में स्थानीय संपादक का पद ही नहीं है, जहां है वहां वह शोभा की वस्तु बना है।
शोभा की वस्तु ही बना रहता तो भी गनीमत थी। शोभा की वस्तु वह तब तक था जब अखबारों के एक-दो संस्करण ही निकला करते थे। आज से लगभग 30-35 साल पहले एक ही दो साल पहले एक अखबार एक-दो शहर से ही निकलते थे। या यूं कहें कि शहर का अखबार हुआ करता था। मसलन बनारस का आज, इलाहाबाद का भारत, कानपुर का दैनिक जागरण, लखनऊ का स्वतंत्र भारत और बरेली का अमर उजाला। यही नही अखबार तब संपादक के नाम से जाने जाते थे। पराड़कर जी का ‘आज’ अखबार था तो मालवीय जी का ‘लीडर’। यह परंपरा राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी तक चली।
कमलेश्वर जी ने भी अपनी पहचान छोड़ी। ध्यान देने वाली बात यह है कि कमलेश्वर से शुरू हुआ राष्ट्रीय सहारा 10-12 साल तक रणविजय सिंह के कंधों पर टिका रहा। सहारा के पहले कमलेश्वर दैनिक जागरण में थे तो सहारा के बाद मुजफ्फरनगर से निकलने वाले छोटे से अखबार शाह टाइम्स (जो खबरे छुपाता नहीं छापता है गोया बाकी सब पिछवाड़े डाल लेते हैं) में। कहने का मतलब यह कि आज अखबार को , अखबार मालिकों को कमलेश्वरों की जरूरत नहीं है। रणविजय सिंह जैसे लोग ही काफी हैं। दिल्ली के एक बड़े अखबार के वरिष्ठ स्थानीय संपादक 1991 में इलाहाबाद से शाम को छपने वाले जनमोर्चा अखबार में रिपोर्टर थे तो उसी अखबार में उन्हीं के साथ उसी पद पर काम करने वाले व्यक्ति की उप संपादक पद से नौकरी छूटी।
बात फिर मुद्दे कि, इसलिए कि अक्सर मैं मुद्दे से दांये-बांये चला जाता हूं। संपादक शोभा की वस्तु क्यों बनता जा रहा है। अखबारों का दायरा बढ़ता जा रहा है, तहसील दर तहसील संस्करण निकलते जा रहे हैं लेकिन पाठकों की संख्या/पढ़ने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। अखबारों और खबरों के स्वरूप बदलने के साथ ही संपादकों का महत्व भी कम होता जा रहा है। पराड़कर जी का कहा सच साबित हो रहा है। अखबार सुंदर निकल रहे हैं लेटेस्ट कवरेज हो रही पर किस संपादक/समूह संपादक की औकात है कि वह शोभना भरतिया, संजय मोहन, सुब्रतो राय, शार्दुल विक्रम गुप्त या राजुल महेश्वरी (हालांकि राजुल जी हैं बहुत सज्जन) से आंख में आंख डालकर बात कर सके। बावजूद इसके ” सभी नदियां बंगाल की खाड़ी में नहीं गिरतीं।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून।
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कुमार नवनीत
January 2, 2017 at 6:55 pm
Yashwant ji उक्त लेख पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ । अब सभी नौकरी करते है भावना , संवेदना और सादगी का आभाव हो चला है । साधन संम्पन्नता और उपभोक्तावादी सोंच ने लोगों को शोभा बढ़ाने की ओर बढ़ा दिया । बड़े अखवारों में सिर्फ मानदेय पर काम करने के बाद कई बार मैंने इंचार्ज को मना कर दिया की जो लिखना है वो मैं लिखूंगा आप की मर्जी से नहीं । ऐसा नहीं था कि हर बार मैं सही होता लेकिन इंचार्ज घर तक मनाने आते मानदेय बढ़वाने को संपादक से लड़ जाते और संपादक जी मालिक से तब कहीं साल में 3 से 4 सौ बढ़ते । आज कितने रिपोटर की हिम्मत है कि वो इंचार्ज से और इंचार्ज संपादक से और संपादक जी मालिक से लड़ जाए । जुगाड़ और तिकड़म से आने वाले नौकरी न करे तो क्या करे । सब एक दूसरे की शोभा बढ़ाते है । योग्यता अब दम तोड़ती है या फिर रूठ कर घर । जिसकी जुगाड़ उसको पगार बाकी सब बेकार । ख़ुशी हुई की जैसा भी हो दूसरों की आलोचना करने वालो ने अपने घर को भी आइना दिखाया । कुमार नवनीत
कुमार कल्पित
January 4, 2017 at 3:41 am
कुमार नवनीत जी, आपने एक पक्ष मानदेय की तरफ ध्यान आकर्षित किया है फिर भी बधाई। अपवाद उदाहरण नहीं हो सकता। जहां तक मुझे याद आ रहा है । लखनऊ में अपने प्रकाशन (1992) के दौरान राष्ट्रीय सहारा ने संवादाताओं को पांच सौ रुपये देना शुरू किया था। इसके पहले शायद किसी अखबार में मानदेय की व्यवस्था नहीं थी। मानदेय कोई अच्छी चीज नहीं है। सहारा सहित कितने अखबार हैं जो स्ट्रिंगर से लेते हैं अपने कर्मचारी की तरह काम लेकिन देते ” मानदेय ” है।
आपने लिखा कि मानदेय बढ़ाने के लिए फलां संपादक मालिक से भिड़ गये, उन्हें साधुवाद। आज संपादक अपनी नौकरी बचाने के लिए न जाने कितनों की खा जाता है।
एक बार फिर आपको बधाई।