रंगनाथ सिंह-
‘सभ्यताओं का टकराव और विश्व व्यवस्था का पुनर्संयोजन’ पढ़ने के बाद… सैमुएल हंटिंगटन ने 1992 में इस विषय पर एक लेक्चर दिया। 1993 में फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में इस विषय पर एक निबन्ध लिखा। उस निबन्ध की अकादमिया में चर्चा हुई तो इसी विषय पर नीचे दिख रही किताब लिखी जो 1996 में छपकर आयी और आते ही वैश्विक अकादमिया में बहस का वायस बन गयी।
हंटिंगटन को विश्व व्यवस्था का पुनर्संयोजन पर विचार करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि सोवियत रूस के विघटन के बाद दो ध्रुवीय विश्व व्यवस्था समाप्त मान ली गयी। पहले विश्व युद्ध के बाद रूस में कम्युनिस्ट विचारधारा सत्ता में आयी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद कैपिटलिस्ट विचारधारा की कमान ब्रिटेन से अमेरिका के हाथों में आ गयी। कैपिटलिस्ट और कम्युनिस्ट दोनों ही विचारधाराएँ मूलतः ब्रिटेन-फ्रांस-जर्मनी तीन देशों के चिन्तकों की जहन की उपज थीं।
14वीं-15वीं सदी से यूरोप की सर्वप्रमुख विचारधारा साम्राज्यवाद थी। यूरोप ने सबसे पहले समझा कि असली ताकत तलवार में नहीं, विचार में है। बहुत बाद में एक यूरोपीय विद्वान ने यह जुमला विश्वप्रसिद्ध कर दिया कि नॉलेज इज पॉवर। भारत में कई लोग नॉलेज का मतलब वेदों या कुरान की तरफ लौटना समझते हैं, यही कारण है कि वेद और कुरान देने वालों देशों को यूरोप ने महज सौ दो सौ साल में धूल चटा दी।
भारत में भी कई शक्तिशाली राजा हुए लेकिन उन्होंने अपने भूगोल की प्राकृतिक सीमाओं को ही अपनी राजसी महत्वाकाँक्षाओं की सीमा माना। भारतीय राजाओं के लिए भारतीय उपमहाद्वीप ही चक्रवर्ती का फील देने के लिए काफी रहा। रोम के सिकंदर की तरह कभी किसी भारतीय राजा को ऐसी सनक नहीं हुई कि जहाँ तक धरती जाती है वहाँ तक मेरा कब्जा होना चाहिए क्योंकि मेरे पास शक्तिशाली सेना है। भारत में स्टेट (राज्य) और सब्जेक्ट (प्रजा) की आइडियोलॉजी का एक होना ज्यादातर समय जरूरी नहीं रहा है।
हंटिंगटन ने किताब में माना है कि हिन्दू सभ्यता स्वभावतः इस मामले में ‘सेकुलर’ है। यहाँ किंग और उसकी इंटेलीजेंसिया की विचारधारा ही प्रजा की विचारधारा भी हो, यह बाध्यता ज्यादातर नहीं रही। ईसाइयत ने यह बीमारी दुनिया में फैलायी कि राजा की धार्मिक विचारधारा ही प्रजा की धार्मिक विचारधारा होनी चाहिए। आज के हालात देखकर लगता है कि मॉस कंट्रोल के लिए यह एक कारगर बौद्धिक औजार था। पहली पीढ़ी में यह जबरदस्ती लगता है, दूसरी पीढ़ी में मजबूरी या लाचारी और शायद तीसरी या चौथी पीढ़ी आते-आते धर्मांतरित व्यक्ति उस राजा की विचारधारा का प्रबल हिमायती बन जाता है जिसने मूलतः उसके पूर्वजों की सदियों से चली आ रही विरासत जबरदस्ती छीन ली थी। ईसाइयत ने जिस तरह राजा और धार्मिक विचारधारा को एकजुट करने का जो सिलसिला शुरू किया वह इस्लाम से होते हुए कैपिटलिज्म, कम्युनिज्म और फासीज्म तक चला आया। ईसाइयत के उदय के पहले ज्यादा धार्मिक विचारधाराओं की यही मान्यता थी कि धर्म आदमी को जन्म के साथ मिलता है। पैतृक विरासत की तरह वह वैचारिक या सांस्कारिक विरासत होता है जिसे रातोंरात नहीं बदला जा सकता। न बदला जा सका है। फिर भी ऊपरी आवरण भर एक समान हो जाए तो भी साम्राज्यवादी मंसूबों में उससे काफी सहूलियत होती है।
हंटिंगटन की किताब ईसाई और इस्लामी सामरिक ताकतों के बीच कई सौ सालों तक चले धार्मिक युद्ध क्रूसेड की छाया में बैठकर लिखी गयी लगती है। इसलिए यूरोप के तीन नए साम्राज्यवादी विचारधाराओं का समझने के लिए उनसे पहले की साम्राज्यवादी विचारधाराओं का ध्यान रखना जरूरी है।
हंटिंगटन इस किताब में दिखाते हैं कि निकट इतिहास में यूरोप की कोख से तीन ऐसी विचारधाराएँ निकलीं जो साम्राज्यवादी थीं- कैपिटलिज्म, कम्युनिज्म और फासीज्म। दूसरे विश्व युद्ध में कैपिटलिस्ट और कम्युनिस्ट ने मिलकर फासिस्ट विचारधारा वाली ताकतों को हराया। उसके बाद दुनिया में दो बड़े सामरिक वैचारिक गुट रह गये, कैपिटलिज्म और कम्युनिज्म। फासीवाद के रास्ते से हट जाने के बाद इन दोनों साम्राज्यवादी विचारधाराओं के बीच बाकी दुनिया पर कब्जे को लेकर गरम और ठण्डी दोनों तरह की जंग शुरू हो गयी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत रूस और अमेरिका के बीच भले ही कभी सीधे युद्ध न हुआ है लेकिन अन्य कई युद्ध इन दोनों की बेलगाम महत्वाकांक्षाओं की वजह से ही हुए। 1990-91 में सोवियत रूस के विघटन के बाद दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं दिख रही थी जो अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस-जर्मनी इत्यादि के गुट का सामना कर सके। इस गुट को हंटिंगटन पूरी किताब में पश्चिम कहते हैं।
सोवियत रूस के विघटन के बाद अमेरिकी फॉरेन पॉलिसी से जुड़े थिंकटैंक को यह सोचना था कि वह अगला कौन देश कौन होगा जो अमेरिकानीत पश्चिम को निकट भविष्य में चुनौती देगा। हंटिंगटन की थिसिस थी कि सोवियत रूस के पतन के बाद दुनिया दो ध्रुवीय नहीं रहेगी बल्कि बहुध्रुवीय हो जाएगी और कम से पाँच-छह देश नई वैश्विक व्यवस्था के ध्रुव के तौर पर काम करेंगे। हंटिंगटन की पूरी किताब इसके पहले अध्याय में उद्धृत हेनरी किसिंजर की धारणा की पिष्टपेषण करती है कि 21वीं सदी में वैश्विक व्यवस्था अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान, रूस और शायद भारत के ईर्दगिर्द लामबन्द होगी। हंटिंगटन इनमें दो दूरस्थ सम्भावित नाम लातिनी अमेरिका और अफ्रीका को भी जोड़ते हैं लेकिन मूलतः वह भी छह ध्रुवीय व्यवस्था और विस्तारित तौर पर आठ ध्रुवीय व्यस्था को 21सदी की होनी मानते हैं।
गणित के विद्यार्थी जानते हैं कि कई बार हम गलत पद्धति का प्रयोग करते हुए भी सही अंतिम नतीजा पा लेते है। हंटिंगटन की किताब पढ़कर यही लगता है। हंटिंगटन की इस बात के लिए दाद देनी होगी कि 21वीं सदी की पहली चौथाई की ग्लोबल पॉलिटिक्स बारे में उनका अनुमान आज की वास्तविकता से मिलता है। हंटिंगटन ने 1992 में जिस आगामी विश्व व्यवस्था को अनुमान लगाया था, 2022 में लगभग वही व्यवस्था दुनिया में उभर चुकी है। समस्या यह है कि हंटिंगटन ने इन नतीजों तक पहुँचने के लिए जो विधि अपनायी है, वह तथ्य और तर्क से मेल नहीं खाती।
इस किताब से जाहिर है कि हंटिंगटन को सभ्यता और रिलीजन के बारे में ज्यादा समझ नहीं है। उनकी बुनियादी अवधारणा ही तथ्यविरोधी है कि हर सभ्यता रिलीजन (कोई एक धार्मिक विचारधारा) आधारित होती है। चीन और भारत जैसे बड़े देश उनकी इस थीसिस के सबसे बड़े एंटी-थीसिस हैं। बड़ी सभ्यताओं में एक से ज्यादा धार्मिक विचारधाराएँ एक साथ मौजूद रहती हैं। इसीलिए किसी एक धर्म को किसी सभ्यता का प्रतिनिधि मान लेना साम्प्रदायिक या ईसाई दृष्टिकोण है। सच यह है कि एक यूनिवर्सल रिलीजन का झूठ भी मूलतः दूसरों से बोला जाता है। अन्दर की हकीकत यही है कि जिन देशों को हंटिंगटन ने रिलीजन-आधारित-सभ्यता के नाम पर एक दिखाया है उनमें भी यह वर्गीकरण सुविधानुसार किया गया है। अमेरिका, यूरोप, रूस में एक ही रिलीजन का अलग-अलग फिरके बहुमत में हैं। चीन और जापान के रिलीजन भी काफी हद तक समान हैं। उसी तरह दुनिया में जितने इस्लामी मुल्क नहीं हैं, इस्लाम के उससे ज्यादा फिरके दुनिया में मौजूद हैं।
दुनिया का कोई भी देश हो, मजहबी फिरकों के एक होने का उदाहरण शायद ही मिलता है, हर फिरके में से नया फिरका निकलने का ही इतिहास रहा है। मूल बात यह है कि कोई भी मौलिक चिन्तक अपने से पहले की विचारधारओं को 100 प्रतिशत स्वीकार नहीं कर पाता। वह किसी न किसी बहाने उसमें कुछ न कुछ जोड़ता-घटाता जरूरी है। आम्बेडकर ने तो आजीवन बुद्ध की प्रशंसा करने के बावजूद बगैर किसी ठोस तथ्य और तर्क के बुद्ध के ‘चार आर्य सत्य’ को प्रक्षिप्त बता दिया! अब सवाल यह है कि अगर हंटिंगटन ने सही अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी में दुनिया के सम्भावित छह या आठ ध्रुव कौन से होंगे तो फिर उसपर रिलीजन की चादर चढ़ाने की जरूरत क्या थी?
हंटिंगटन ने सही माना है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में किसी भूमि और आबादी पर स्वामित्व का प्रतिनिधित्व नेशन-स्टेट करता है। अब चूँकि दुनिया में जिन देशों के उभरने की सम्भावना हंटिंगटन देख रहे थे उनमें कई देश यूरोपीय ढंग के नेशन-स्टेट नहीं थे तो उन्होंने सबको एक धागे में पिरोने के लिए जबरदस्ती रिलीजन को चुना गया। हंटिंगटन को यह मानने में शायद दिक्कत हुई होगी कि सभी साम्राज्यवादी मंसूबों के केंद्र में रिलीजन नहीं बल्कि भौतिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधन पर कब्जे की भावना होती है। लोकशाही ही नहीं राजशाही और तानाशाही में भी शासक किसी भौगौलिक क्षेत्र की भौतिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा करना चाहता है। आज भी दुनिया के बीच जो टकराव चल रहा है उसके केन्द्र में भी किसी न किसी भौगोलिक क्षेत्र की भौतिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधन पर कब्जे करने की नियत ही है।
हंटिंगटन ने 21वीं सदी की चौथाई में चीन और अमेरिका के बीच वर्चस्व के टकराव का अनुमान सही लगाया है। उनका यह अनुमान भी सही है कि बहुत से इस्लामी देश चीन के साथ लामबन्द होंगे। उनका यह अनुमान भी सही है कि इस्लामी देशों में भी ईरानी, तुर्की, अरब, अफ्रीकी और मलय नस्लों के बीच इस्लामी जगत का नेता बनने की होड़ होगी। उनका यह अनुमान भी आज सही हो रहा है कि तुर्की तेजी से यूरोपीय सेकुलरइज्म छोड़कर इस्लाीकरण की तरफ बढ़ रहा है और सोवियत रूस से अलग हुए तुर्की भाषी देश तुर्की के साथ ग्रेटर तुर्कीस्तान के लिए लामबन्दी कर सकते हैं। हंटिंगटन का यह अनुमान भी सही है कि रूस यूक्रेन के करीब आधे हिस्से पर दावा कर सकता है क्योंकि यूक्रेन का पूर्वी हिस्सा रूसी संस्कृति के प्रभाव में रहा है और पश्चिमी यूरोपीय संस्कृति के प्रभाव में।
उनका यह अनुमान भी सही है कि चीन पूर्वी एशिया के देशों को धीरे-धीरे अपने आर्थिक और सामरिक गिरफ्त में ले सकता है। चीन द्वारा पाकिस्तान को अपने कंट्रोल में लेने का अनुमान भी सटीक है। किताब में हंटिंगटन ने दिखाया है कि चीन के आर्थिक विकास में अमेरिका, हॉन्गकान्ग, ताइवान और सिंगापुर का कितना हाथ रहा है। आज हॉन्गकॉन्ग और ताइवान अपनी स्वायत्तता के लिए चीन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। जाहिर है कि यहाँ भी साझी सभ्यता के भाईचारा वाली थीसिस खण्डित होती है।
हंटिगटन की किताब में भारत केवल वहीं आया है जहाँ उसकी फौरी जरूरत पड़ी है। यह पूरी किताब मूलतः अमेरिका-यूरोप, चीन और इस्लामी देशों के भावी गुटबन्दी के ईर्दगिर्द घूमती है। उन्होंने भारत के बारे में सही अनुमान लगाया है कि वह रूस और अमेरिका के बीच सन्तुलन बनाकर चलेगा। उनका यह आकलन भी आज सही दिख रहा है कि एशिया में चीन को बैलेंस करने के लिए अमेरिका को भारत की जरूरत पड़ेगी। किताब में अपरोक्ष रूप से हंटिंगटन ने माना है कि अमेरिका-यूरोप भारत जैसे देशों के अन्दरूनी जातीय, नस्ली, धार्मिक, वर्गीय, विचारधारात्मक टकरावों को बढ़ाने के लिए एनजीओ और मॉस मीडिया का इस्तेमाल करते रहे हैं। हंटिंगटन ने यह भी माना है कि अमेरिका-ब्रिटेन की मदद से तेल निकालने की आधुनिक तकनीक सीखने के बाद उससे आए पैसे का एक हिस्सा खाड़ी देश जकात के तौर पर दुनिया भर में इस्लामी कट्टरपंथ के प्रचार-प्रसार के लिए भेजते रहे हैं।
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि हेनरी किसिंजर और हंटिंगटन ने छठवी शक्ति के रूप में भारत को ‘शायद’ उम्मीदवार माना है। इस शायद पर सोचते हुए शायद आपको यह ध्यान आए के भारत को जर्मनी-फ्रांस-ब्रिटेन जैसा नेशन-स्टेट बनने देने से रोकने के लिए पिछले 75 सालों में कितने बड़े आन्तरिक टकराव झेलने पड़े हैं। बाबा मार्क्स ने दुनिया को सिखाया है कि राजनीति को समझना हो तो उसे अर्थनीति से मिलाकर देखो। इस किताब को पढ़ने के बाद आपको भी शायद यह सोचना पड़े कि कश्मीरी अलगाववाद, पूर्वोत्तर, नक्सलवाद, माओवाद, खालिस्तान, भाषाई अलगाववादियों, कट्टर मजहबी तंजीमों इत्यादि की फंडिंग कौन करता रहा है! आखिर वो कौन ताकतें जो भारत को यूरोपीय ढंग का लोकतांत्रिक नेशन-स्टेट बनने से रोक रही हैं! और क्यों?
किसी नेशन-स्टेट को आन्तरिक रूप से अस्थिर रखने के लिए विचारधाराओं का इस्तेमाल मनोवैज्ञानिक औजार की तरह किया जाता है। हो सकता है कि इसी कारण, हंटिंगटन ने रिलीजन को टकराव का केंद्र दिखाने का प्रयास किया हो क्योंकि रिलीजन के आधार पर टकराव अमेरिका में सबसे कम है, और भारत जैसे देशों में बहुत ज्यादा है। रिलीजन के टकराव की इस चूड़ी को अमेरिका जितना टाइट करेगा ऐसे देश आन्तरिक रूप से उतने ज्यादा डिस्टर्ब होंगे। ज्ञात विश्व इतिहास में राज्यों की सरहद भूगोल से ही तय होती रही हैं, विचारधारा या रिलीजन से नहीं लेकिन हंटिंगटन जैसे लोग नहीं चाहते कि भौगोलिकता और साझा इतिहास के आधार पर दुनिया अलाइन हो। इस लिहाज से भारत का स्वाभाविक भौगोलिक और इतिहास-प्रदत्त अलाइनमेंट पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया, म्यानमार इत्यादि से होना चाहिए लेकिन वह रूस और अमेरिका के साथ तालमेल बैठाने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है, इसपर भारत समेत सभी देशों को सोचना चाहिए।
एक प्रसिद्ध चीनी विद्वान ने युद्ध नीति पर ज्ञान देते हुए कहा था कि किसी देश पर कब्जा करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि वहाँ की प्रजा पर मानसिक रूप से कब्जा कर लो! आज अमेरिका, चीन, जापान, रूस और यूरोप में जो राष्ट्रीयता की भावना उन्हे एक सूत्र में बाँधती है, भारत में वह भारतीयता कम से कम बौद्धिक इलीट तबके से ज्यादातर गायब दिखती है। हंटिंगटन ने किताब में इशारा किया है कि किसी भी देश के पोलिटिकल पॉवर को अपने पक्ष में करने के लिए वहाँ के बौद्धिक इलीट की सोच का अपने हिसाब से ढालना जरूरी है। क्या ही गजब संयोग रहा है कि आजादी के बाद ज्यादातर भारत-विरोधियों को रूस या चीन में नहीं, अमेरिका-ब्रिटेन-यूरोप में पनाह मिलती रही है।
इस किताब में दिए हुए आँकड़े अब करीब 26 साल पुराने पड़ गए हैं। अतः यह आंकड़ों के स्तर पर बासी लग सकती है लेकिन अवधारणा के स्तर पर यह आज भी विचारोत्तेजक पठन है।