Girish Pankaj
यह कितनी दुखदाई स्थिति है कि एक बड़े अखबार के समूह संपादक को खुदकुशी करनी पड़ जाए। दरअसल जबसे अखबारों को कारपोरेट घरानों में तब्दील कर दिया गया है, तबसे संपादक नाम की संस्था नष्ट हो गई है। संपादक को सेठ का बंधुआ मजदूर बना दिया गया है। उस पर न जाने कितने किस्म के गलत सलत दबाव लाद दिए जाते हैं।
नतीजा सामने है। अब या तो संपादक आत्महत्या करेगा यह हृदयाघात से मरेगा। हालांकि आत्महत्या ठीक नहीं। मैं भी एक बड़े अखबार में सिटी चीफ रहा हूं, फिर भिलाई संस्करण का संपादक भी बना कर भेजा गया। मुझे से आग्रह किया गया लेकिन मैंने साफ-साफ कह दिया कि 4 महीने बाद वापस आ जाऊंगा और जैसे ही चार महीने खत्म हुए, मैं वापस आ गया।
अपनी शर्तों पर मैंने काम किया। झुकने का तो सवाल ही नहीं। सेठों की आंखों में आंखें डाल कर बात की। अनेक मित्रों को यह सब पता है। एक अन्य अखबार में भी इसी तेवर के साथ मैंने काम किया। मरे सेठ!! हम क्यों अपनी जान दें? छोड़ दे संस्था। भाड़ में जाए ऐसी पत्रकारिता जो हमें मरने पर विवश करे।
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार गिरीश पंकज की एफबी वॉल से.
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https://www.youtube.com/watch?v=dJmltVPwMuM
Vikas
July 14, 2018 at 4:18 pm
पत्रकारों की इस बदहाली के जिम्मेदार भी दलाल रूपी पत्रकार ही हैं, जिन्होंने ऊपर चढ़ने के लिए दूसरे की बली चढ़ाने में भी गलत नहीं समझा। पत्रकारिता ऐसी फील्ड बन गयी है, जहां टैलेंट की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ चाटुकारिता आनी चाहिए।