Gurdeep Singh Sappal-
मैंने जीवन में हमेशा क्षमा को और विश्वास को सर्वोपरि माना है।जिन्होंने शत्रुता निभायी, उन्हें भी कभी तंग नहीं किया, बस माफ़ कर भुला दिया। क्योंकि हमेशा यही समझा है कि ये दुनिया सज्जन लोगों के दम पर ही इतनी खूबसूरत है और रहने लायक़ है। इसलिए ये कभी भी नहीं सोचा था कि किसी मित्र के ख़िलाफ़ FIR करनी पड़ेगी। लेकिन वाक़ई जीवन में कभी कभी ऐसे पल आ जाते हैं जब श्री कृष्ण के अर्जुन को दिये संदेश का मतलब समझ आने लगता है।

संजय के ख़िलाफ़ आज थाने में FIR की है। मान और हानि की बात तो अलग है। उन्हें ये अब साबित करना है कि स्वराज एक्सप्रेस काले धन को सफ़ेद करने का खेल था।
ये ज़रूरी था क्योंकि ये सिर्फ़ आरोप भर नहीं है। उनके ये शब्द सत्य, जन सरोकार और सामाजिक मूल्यों में यक़ीन करने वालों का विश्वास कमजोर करते हैं। ये आरोप ये संकेत देते हैं कि हमाम में सब नंगे हैं। ये दूसरे लोगों की संघर्ष शक्ति को कमजोर करते है, ये विचारों को खोखला साबित करने की कोशिश करते हैं।
अच्छे लोगों का अच्छाई में विश्वास क़ायम रहे, इसलिये मैंने ये निर्णय लिया। संजय अंदरूनी जानकारी को ब्रह्मास्त्र मान कर क़ानूनी परिणामों का भय दिखा रहे हैं। इसलिये खुद ही क़ानूनी प्रक्रिया के हवाले अपने को कर दिया है। अब जो भी अंदरूनी जानकरियाँ हैं, वे उसे सहर्ष पुलिस को सौंप दें और सिद्ध कर दें कि हम अच्छी पत्रकारिता की आड़ में काले धन का खेल खेल रहे थे।
बाक़ी दो बातें और।
एक कि मैंने अपने चैनल के कुछ कर्मचारियों को पहले भी मानहानि के लीगल नोटिस भेजे थे। लेकिन उन पर अमल नहीं किया। इसलिए नहीं कि कुछ उजागर होने का डर था। उन नोटिस पर इसलिए अमल नहीं किया क्योंकि उन कर्मचारियों ने नोटिस के बाद बेबुनियाद आरोप लगाने बंद कर दिए थे और उन आरोपों के बावजूद मेरी सहानुभूति उन कर्मचारियों के साथ थी, क्योंकि नौकरी जाने के दर्द और उससे उपजने वाली खिन्नता के साथ मैं खुद को भी सम्बद्ध कर पाता हूँ। इसीलिए न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया, बल्कि जब वो आंदोलन कर रहे थे, उनसे लगातार मिलता भी रहा, उन्हें आंदोलन के दौरान बैठने के लिए ऑफ़िस का एक हिस्सा भी खुद ही उपलब्ध करवा दिया। पर इन सांकेतिक संवेदनाओं का महत्व स्थूल बुद्धि में कभी नहीं समाता है।
‘फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर,
मर्दे-नादां को कलामे- नर्मो –नाजुक बेअसर।’
दूसरी बात। ये सच है कि मैं अब कम्पनी का director नहीं हूँ, शेयर होल्डर भी नहीं हूँ। लेकिन मैंने कल भी लिखा था कि तकनीकी रूप से तो नहीं, नैतिक रूप से आज भी अपने स्टाफ़ के हर सवाल से जुड़ा हूँ। लेकिन शायद संजय अपने ही आरोप के विरोधाभास को देखने में विफल हैं, क्योंकि झूठे आरोपों की आड़ कर दरअसल उन्होंने अपने को हर फ़ैसले से असम्बद्ध करने का प्रयास किया है। सच तो यही है कि चैनल के पहले दिन से अंतिम दिन तक वे न सिर्फ़ सर्वाधिक शक्तिशाली थे, बल्कि हर बात के और हर फ़ैसले की जानकारी उन्हें रहती थी। पर तब की बात और थी।
‘जब बहार थी तो शाख़ों पर इतराते हुए खिले बैठे थे,
ख़िज़ाँ आयी तो ये फ़ूल टूट कर अलग हो चले।’
वैसे एक स्वीकारोक्ति भी। वर्षों से राज्यसभा टीवी और स्वराज के लोग मुझे कहते थे कि संजय बदतमीज़ और ख़ुदगर्ज़ हैं। मैं उन्हें समझाता था कि नहीं वो सिर्फ़ ज़ुबान के ख़राब हैं, लेकिन दिल के अच्छे हैं और उनके सामाजिक सरोकार खरे हैं। तब तो वे सब सामने चुप हो जाते थे, लेकिन आज अपनी बात साबित होने पर मुस्कुरा रहे हैं।
बहरहाल, अब ये संजय पर है कि पुलिस में और कोर्ट में साबित कर दें कि हम कालेधन के खेल में थे। बाक़ी सब तो बातें हैं, बातों का क्या!
और हाँ, प्रेस क्लब की दारू को प्लीज़ वे पत्रकारिता का सम्पूर्ण पर्याय न मान बैठें।
‘रगों में उबाल है तो उतर चल तूफ़ान में,
अभी कश्ती को बहुत हाथों की दरकार है’
जाइये किसानों में और कुछ पत्रकारिता का क़र्ज़ उतार लीजिये, कि तनख़्वाह से इतर भी तो कलम की औक़ात है!
पूरे प्रकरण को समझने के लिए इन्हें भी पढ़ें-