समरेंद्र सिंह-
इस दौर में इंसान बने रहने की गुंजाइश खत्म हो रही है – हरिवंश जी इस बात के प्रमाण हैं!
आज से करीब 12 साल पहले हरिवंश जी पर मैंने जनतंत्र पर कुछ लेख छापे थे। तथागत ने लिखा था। उन लेखों पर लंबी बहस चली थी। बाद में प्रभात खबर से जवाब भी आया था। कुछ और पत्रकार साथियों ने हरिवंश जी के बचाव में लिखा था। उसके कुछ समय बाद मैंने बिहार की विज्ञापन नीति पर एक लंबा लेख लिखा था। बिहार की गुलाम पत्रकारिता। यह दो-तीन भागों में छापा गया। कथादेश के मीडिया विशेषांक में भी उसे जगह मिली। इन लेखों की वजह से हरिवंश जी और बिहार के मेरे कई पत्रकार मित्र बहुत नाराज थे।
हरिवंश जी दूध के धुले नहीं हैं। वो दूध के धुले तब भी नहीं थे जब उन्होंने बिहार के बंटवारे के बाद झारखंड से बाहर निकल कर बिहार में प्रभात खबर लॉन्च किया था। वहां प्रभात खबर का स्लोगन “अखबार नहीं, आंदोलन” से बदल कर “बिहार जागे, देश आगे” हो गया था। इस स्लोगन पर भी हम लोगों ने काफी कुछ लिखा था। जब सत्ता पक्ष का स्लोगन किसी मीडिया संस्थान का स्लोगन बन जाए तो उस मीडिया संस्थान के संपादक और मालिक की मंशा समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। हरिवंश जी के बारे में हम लोगों की राय शुरू से स्पष्ट थी।
दरअसल पत्रकार सियासी इंसान होता है। मैं भी सियासी हूं। और मेरे जितने साथी हैं वो सब सियासी हैं। सबकी अपनी सोच है। और बहुत से मामले पर हमारी सोच जुदा होती है। हम सब वोट भी डालते हैं। सियासी सोच-समझ और किसी विचारधारा से जुड़ाव रखना कोई अपराध नहीं है। यह सहज मानवीय प्रक्रिया है। इंसान होने का सुबूत है। तो फिर दिक्कत कहां है? हरिवंश जी ने आखिर ऐसा क्या किया है जिसकी वजह से लोग आहत हैं और अपना विरोध जता रहे हैं? और आहत होने वाले कौन लोग हैं?
आपने ब्रूस ली की फिल्म “Enter the dragon” देखी होगी। नहीं देखी है तो देख लीजिए। उसमें ब्रूस ली के साथ एक और हीरो हैं जॉन सैक्सन और विलेन हैं शिह केन। शिह केन एक बार जॉन सेक्सन को अपनी मांद में बुलाता है। शिह केन के हाथ में एक बिल्ली होती है। वो बिल्ली को एक चॉपिंग मशीन के नीचे रख देता है। वो उसकी मशीन की रस्सी खींच देगा तो बिल्ली का सिर धड़ से अलग हो जाएगा। वो रस्सी खींचने वाला होता है कि जॉन सेक्सन झुक कर बिल्ली को उठा लेता है। बचा लेता है। शिन कहता है कि तुम्हारे बारे में मेरी राय ठीक थी। तुम एक सीमा से आगे नहीं जाओगे। ये सीमा क्या है? ये सीमा है जिसे पार करने के बाद इंसान… इंसान नहीं रहता।
आहत होने वाले लोग हरिवंश जी को हीरो समझते थे। हीरो नहीं भी समझते थे तो भी उन्हें लगता था कि वो एक हद से आगे नहीं जाएंगे। संविधान, संवैधानिक मर्याया और संवैधानिक अधिकारों की हत्या नहीं करेंगे। संविधान, संवैधानिक मर्यादा और संवैधानिक अधिकार – सिर्फ शब्द नहीं हैं। ये इस लोकतांत्रिक देश की प्राणवायु है। इन लोगों के मुताबिक हरिवंश जी अपने एक कदम से उछल कर उस जमात में शामिल हो गए हैं जो इस देश की प्राणवायु सोखना चाहता है। जो लोगों से उसके संवैधानिक अधिकार छीनना चाहता है। और जब संसद में ही और सांसदों के ही संवैधानिक अधिकार छीन लिए जाएं तो फिर शेष क्या रह जाता है?
यह बहुत जरूरी बात है जो हम सभी को समझनी चाहिए। हमारी विचारधारा कितनी भी विपरीत क्यों नहीं हो, कुछ मूल्यों पर सहमति हो सकती है। महाभारत के युद्ध में भी कुछ समझौते थे जो तोड़े नहीं गए। राम और रावण के युद्ध में भी कुछ समझौते बने रहे। वैसे समझौतों का आधार कुछ भी हो सकता है। मानवीय, व्यावहारिक, कानूनी – कुछ भी आधार हो सकता है। ऐसे समझौते हमारे इंसान होने का प्रमाण होते हैं। उम्मीद की वो दहलीज होती है जहां लगता है कि घनघोर दुश्मनी और नफरत के बाद भी थोड़ा सा ही सही कुछ है जो हमें इंसान बनाए रखेगा।
ये वो गुंजाइश है जिसका जिक्र मशहूर शायर बशीर बद्र साहब ने अपने एक लाजवाब शेर में किया है:
दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों
20 सितंबर को हरिवंश ने वो गुंजाइश खत्म कर दी। समझौता तोड़ दिया। मर्यादाओं और मूल्यों की वह दहलीज लांघ गए, जहां से उन्होंने अपने सभी चाहने वालों को नाउम्मीद कर दिया। इसलिए वो आहत होकर उनके खिलाफ लिख रहे हैं। बोल रहे हैं। वो कह रहे हैं कि हरिवंश के कंधों पर संसदीय परंपरा को बचाने का जिम्मेदारी थी। हरिवंश उस जिम्मेदारी में फेल हो गए।
लेकिन ऐसा उनके चाहने वालों को लग रहा है। मुझे या मेरे जैसे लोगों को ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा। मुझे तो यह बहुत कुछ योजनाबद्ध लग रहा है। मुझे व्यक्ति की क्षमता पर कोई संदेह नहीं है। और अगर कोई व्यक्ति नेता बन गया हो, तो वह कुछ भी कर सकता है। उसमें अपार संभावनाएं होती हैं। मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा। मेरे भी कुछ मित्र और परिचित नेता हैं। वो अच्छे हैं। वो कितने दिन अपनी अच्छाई बचा कर रख सकेंगे ये एक चुनौती है।
खैर, हमारे देश का नेता ऐसा क्यों होता है – इस पर किसी और दिन लिखूंगा। अभी बस इतना समझिए कि कुछ अपवादों को छोड़ कर हमारे यहां का नेता जरूरत पड़ने पर आस-पास मौजूद लोगों को दांव पर लगा सकता है। गुरू, माता-पिता, भाई-बहन सभी के सिर पर पैर रख कर आगे बढ़ सकता है। और ऐसा करने के बाद भी मस्त रह सकता है। सिग्मंड फ्रायड का कोई सुपर इगो उसका पीछा नहीं करता है।
मेरे एक बहुत महत्वाकांक्षी परिचित थे। वो नेता नहीं थे। मगर उनकी एक बात कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी नेताओं पर फिट बैठती है। एक दिन उन्होंने कहा कि समरेंद्र, मुझ में आगे बढ़ने की भूख है। अगर मुझे दस लोगों के सिर पर पैर रख कर आगे जाने का अवसर मिले तो मैं आगे बढ़ जाऊंगा। यह सुन कर मैं घबरा गया। मैंने उनसे दूरी बना ली। अब भी मिलता हूं। बात भी करता हूं। मगर दूर रहता हूं।
हरिवंश जी जैसे लोग उसी जमात के लोग हैं। वो अपने मातहत काम करने वालों के सिर पर पैर रख कर ही आगे बढ़े हैं। और आगे बढ़ने के लिए, जो बचा है उसे भी दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटेंगे। इसलिए मुझे इस प्रकरण से कोई हैरानी नहीं हुई।