Vikas Mishra : संत समीर को आप जानते होंगे या शायद नहीं भी जानते होंगे। सामान्य सा दिखने वाला, साधारण आदमी की तरह रहने वाला इंसान, लेकिन संत समीर कितने असाधारण हैं, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। दुबले-पतले इस हाड़-मांस के पुतले के भीतर कितना फौलाद भरा हुआ है, आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में समीर और मैं दोनों सहपाठी रहे हैं। हम लोगों पर परंपरा के साथ आधुनिकता का रंग भी चढ़ा था, लेकिन समीर सबसे अलग थे। सामान्य सा व्यवहार, सामान्य सी बातें, लेकिन जब पहली बार समीर के कमरे पर गया तो चौंक उठा। वहां तो किताबों का अंबार लगा था। कोर्स की किताबें नहीं। तमाम उपन्यास, कहानी संग्रह, रीडर डाइजेस्ट, होमियोपैथी, आयुर्वेद की किताबें। फिर एकाध बार दोस्तों में किसी बात पर बहस हुई, समीर यूं तो बहस में जल्दी शामिल नहीं हुए, अगर हुए तो बाजी उन्हीं के हाथ में रही। हम सभी दोस्त जान गए थे कि गुरु ये तो कुछ अलग ही चीज है।
हम लोग तो इलाहाबाद आईएएस-पीसीएस ही बनने गए थे, लेकिन समीर की मंजिल कुछ और थी। बीए के बाद ही समीर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ इलाहाबाद से चले ‘आजादी बचाओ आंदोलन’ में शामिल हो गए। कुछ ही दिन में बेहद सक्रिय। आंदोलन के प्रणेता डॉ. बनवारी लाल शर्मा और राजीव दीक्षित के साथ संत समीर का भी नाम इलाहाबाद में फैल गया। हम लोग भी आंदोलन के साथ जुड़ गए। मुहल्ले-मुहल्ले जाकर सभाएं होने लगीं, नुक्कड़ नाटक होने लगे, घर-घर जाकर लोगों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामान न खरीदने की सलाह दी जाने लगी।
समीर ने आंदोलन में खुद को खपा दिया। वहां के तमाम साहित्य समीर ने तैयार किए। स्वदेशी संवाद सेवा की स्थापना की। उनके बनाए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामान और उसके बरअक्स देशी कंपनियों के सामान की लंबी चौड़ी सूची के मुरीद पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रवि रे और जॉर्ज फर्नांडीज भी हुए। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने तो पूरे साहित्य को ही कॉपी कर डाला।
90 के दशक में अरसे से इलाहाबाद से एक पत्रिका छपती थी-प्ले ब्वॉय। करीब करीब पोर्न मैग्जीन। संत समीर ने एक लेख लिखा-‘साहित्यकारों के तीर्थ में साहित्य का चकलाघर’। ये आक्रामक लेख नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर ऊपर छपा। फिर देश भर के दो दर्जन अखबारों ने भी इसे छापा। अंजाम ये हुआ कि प्ले ब्वॉय के कर्ता धर्ता सलाखों के पीछे गए, उनका ही नहीं, अश्लील साहित्य के तमाम माफिया का बोरिया बिस्तर इलाहाबाद से उठ गया।
समीर की सादगी में जो हठ है, वो भी अनूठा है। अगर आप कोई चीज खाने को कहें, जवाब में अगर समीर बस इतना कहें कि अब इसे क्या खाएं..? तो यकीन जानिए कि इस चराचर ब्रह्मांड में कोई ताकत नहीं है जो संत समीर को वो चीज खिलवा सके। समीर ने कभी कोल्ड ड्रिंक नहीं पी। कभी बड़े रेस्टोरेंट में जाकर खाना नहीं खाया। स्वदेशी के पक्षधर, अधिकतम कोशिश की कि जिस चीज का इस्तेमाल करें वो स्वदेशी ही हो। हम दोनों घनिष्ठ मित्र हैं, लेकिन मैं समीर की इज्जत ही नहीं करता, थोड़ा डरता भी हूं, क्योंकि वो ईमानदारी, सादगी और सच्चाई की पराकाष्ठा पर है, मैं बस उसके रास्ते में हूं।
संत समीर बहरहाल कादंबिनी पत्रिका में कार्यरत हैं। हिंदी की वर्तनी और भाषा पर देश की मेरी नजर में दो श्रेष्ठ किताबों के लेखक हैं, जिन्हें प्रभात प्रकाशन ने छापा है, कई और पुस्तकें भी हैं। देश के करीब-करीब सारे आंदोलनकारी उन्हें जानते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के कई बुलावे के बावजूद समीर उनसे मिलने नहीं गए। तो बाबा रामदेव ने कई बार समीर से वक्त मांगा, समीर ने मुश्किल से एक दो बार वक्त दिया। एक दो बार तो बाबा को झड़िया भी चुके हैं। समीर फक्कड़ आदमी, उन्हें भला किस बात की फिक्र, किस बात का लालच। आज भी जब समीर का मूड होता है, झोला उठाते हैं, देश भ्रमण पर निकल जाते हैं, आंदोलनकारियों से मिलते हैं, सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
समीर आयुर्वेद और होमियोपैथी में खूब दखल रखते हैं, कई बरस भीलवाड़ा में लोगों का मुफ्त इलाज भी किया है, तो वहां स्वदेशी वस्तुओं की समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी करवा दी। 2005-06 में रामबहादुर राय के कहने पर समीर दिल्ली आ गए, प्रथम प्रवक्ता पत्रिका से जुड़े। बाद में कादंबिनी से जुड़ गए। दोनों जगह बुलाकर नौकरी दी गई पूरे सम्मान के साथ, वरना समीर किसी से अपने लिए कुछ कहने वाले तो नहीं ही थे।
समीर के बारे में लिखने को तो महाभारत जितनी सामग्री है, जाने कितनी यादें हैं, क्लासरूम से लेकर मुहब्बत तक की, चिट्ठियों की, तरानों की.. लेकिन आइए बात करते हैं समीर की शादी की। 20 जून 1999 को समीर की शादी थी।
शादी का कार्ड लेकर समीर खुद लखनऊ मेरे पास आए थे। शादी के कार्ड में मजमून लिखा था-अगर आप शादी में आकर वर वधू को आशीर्वाद देना चाहते हैं तो स्वागत है, वैसे जहां हैं, वहीं से आशीर्वाद दें तो भी बहुत प्रसन्नता होगी। दरअसल समीर चाहते थे कि उनकी शादी में ज्यादा लोग न आएं, ताकि शादी बेहद सादगी से संपन्न हो जाए और वधू पक्ष पर खर्चे का जरा सा भी बोझ न पड़े।
समीर अपनी शादी में सादगी की हद तक चले गए थे, जो उस दौर में नामुमकिन था। पहले तो ससुराल बिना शादी के चले गए थे। भाभी जी से मिले और कहा कि तुम शादी से इनकार कर दो, मेरे साथ चल नहीं पाओगी। भाभीजी इसी सादगी की मुरीद हो गईं, बोलीं, चलो कहां चलना है। खैर शादी तय हुई। समीर ने साफ कह दिया कि एक भी पैसा दहेज में नहीं आना चाहिए। ये हुआ कि बेटी को गहना तो देंगे ही। समीर ने चांदी के एक पतले से मंगलसूत्र की इजाजत दी।
शादी से दो-चार दिन पहले पता चला कि समीर के परिवार में किसी ने ससुराल वालों से कुछ पैसे बरात के इंतजाम के नाम पर ले लिए हैं, समीर को जैसे ही पता लगा, फौरन पैसे वापस करवा दिए, बोले कि अगर ऐसी कोई हरकत की तो ठीक नहीं होगा। शादी हुई तो पॉयनियर अखबार ने छापा-नो मोर संत। यानी समीर अब संत नहीं रह गए।
शादी के बाद भाभीजी समीर के साथ आ गईं। उस साथ के आज 20 साल पूरे हो गए हैं। क्या रिश्ता है दोनों का, बिल्कुल दूध और चीनी की तरह। हमारी इंद्रेशा भाभी ही हैं, जो इस आसान किंतु बेहद क्लिष्ट व्यक्ति के साथ निभा पाईं। और समीर जैसा निर्बंध व्यक्ति शादी के बंधन में बंध गया, बंधा ही नहीं, इतनी अच्छी तरह से निभाया भी। ऐसे में समीर और भाभी दोनों को सालगिरह की ढेर सारी बधाइयां तो बनती ही हैं।
आजतक न्यूज चैनल में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र की एफबी वॉल से.
Ramlal Upadhyay
July 1, 2019 at 6:42 pm
साधुवाद ‘आधुनिक पत्रकारिता’ के स्तम्भ को
Teerth Gorani
July 2, 2019 at 12:14 pm
संत समीर को देखकर समझ में आता है कि महात्मा गांधी आज भी इतने असरदार क्यों हैं कि मोदी चाहकर भी उनकी खिलाफत नहीं कर सकते !
जयराम तिवारी
July 2, 2019 at 9:15 pm
पत्रकारिता एवं समाज के कर्मठ,कर्तव्यपरायण,जनुनी संत समीर एवं उनकी अर्ध्दांगिनी इंद्रेश जी को प्रणाम।
इससे अधिक कहना मेरे जैसे छोटे आदमी के अधिकारक्षेत्र से बाहर की बात है।
जयराम तिवारी
02/07/2019