Vineet Kumar : जो बोरोप्लस के लिए आपकी परंपरा का रंग बदल सकता है, वो कुछ भी कर सकता है… बहुमत की सरकार के दो साल पूरे होने पर अमिताभ बच्चन ने जिस तरह के कसीदे पढ़े, सत्ता के आगे लोटते नजर आए, आप आहत हो सकते हैं क्योंकि अभी भी आप उनके लिए इस्तेमाल किए जानेवाले मेटाफर सदी का महानायक से बाहर नहीं निकल पाए हैं. लेकिन उदारवादी अर्थव्यवस्था के शुरुआती दौर से ही जो आदमी बीपीएल इलेक्ट्रॉनिक्स का विज्ञापन ये कहते हुए कर रहा है कि देश की कंपनी है, इसमे भारतीयता है और दूसरी तरफ आगे चलकर आइसीआइसीआई जैसे बैंक का तो मुझे समझने में रत्तीभर परेशानी नहीं हुई कि एलपीजी प्रोजेक्ट (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) के तहत आपको जितना ग्लोबल होना होता है, उतना ही नेशनल और लोकल भी.
आप जितने आक्रामक तरीके से अपने को देशी, भारतीय, राष्ट्रीय बनाते-बताते हैं, वैश्विक बाजार में आपकी संभावना उतनी अधिक बढ़ती है. नब्बे के दशक में अमिताभ बच्चन यदि बीपीएल और सिनेमा के जरिए भारतीय हो रहे थे तो ये उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा रहा है जो अब अन्तर्रा्त्मा से भारतीय और राष्ट्रभक्त की शक्ल में पेश किया जा रहा है.
पहली बात तो ये कि यदि आप उनकी बंडी को लेकर किसी तरह के वैचारिक सवाल में उलझते हैं तो वक्त की बर्बादी है. वो डिटॉल के विज्ञापन में हरे रंग की ब्लेजर पहन लेंगे बल्कि पहनना होगा..देखा नहीं बोरोप्लस में स्टोल का रंग कैसा हुआ करता है ? न्यूज चैनल अपने ब्रांड का रंग भले ही चाहे जो रखे लेकिन टॉप टेन खबरों के वक्त रंग अचानक से आइडिया, एसबीआइ, अंबुजा जैसे ब्रांड के रंगों में जाकर बिला जाते हैं. तो बंडी के रंग से विचारधारा को कोई संबंध नहीं है बल्कि ब्रांड पोजिशनिंग के व्याकरण का पालन भर है.
अब रही बात संस्कृति रक्षक, राष्ट्रभक्त और तरक्कीपसंद (विकास के पापा वाली सरकार) के पक्ष में खड़े होने, बच्चों से बातचीत करने और राष्ट्रीय शिक्षक के तौर पर अपने को पेश करने की..मैं आपसे सीधा सा सवाल करता हूं, चाहे इस बात में आपकी आस्था न हो. आपने अपने जीवन में बच्चे को किसी की नजर न लग जाए, काले की जगह कितनी बार सफेद टीका लगाते देखा है ? अव्वल तो काले टीके का संबंध सिर्फ पाखंड से है नहीं. वो बच्चे के नहाने-तैयार होने की अवधि का सूचक है. माथे का वो काटा टीका बिखर जाए, मिट जाते तो इसका मतलब है अब फिर से तैयार करने, कपड़े बदलने की जरूरत है. दूसरा कि ये काला टीवी अपने भदेस, देशज सामाजिक जीवन के बीच से निकलकर आता है जिसमे बड़े-बुजुर्गों की दर्जनों नसीहतें घुल-मिल जाती हैं.
बोरोप्लस जैसे उत्पाद के लिए आपका ये सदी का महानायक काले की जगह सफेद टीका लगाने को तर्क की शक्ल में पेश कर सकता है तो लोकतंत्र के इस विकास के दावे के साथ आई सरकार के पक्ष में कसीदे पढ़ने में उसे भला क्या दिक्कत हो सकती है? किसी भी उत्पाद के जब विज्ञापन तैयार किए जाते हैं तो उसके व्याकरण में अपील शामिल होती है. अपील मतलब आइडिया और कॉन्सेप्ट. यानी प्रोडक्ट का जो टार्गेट कन्ज्यूमर है, उसके बीच किस एक आधार के साथ मैंदान में उतरा जाए. आमतौर पर एफएमसीजी के प्रोडक्ट लॉजिकल अपील के साथ बनाए जाते हैं. सात दिनों में गोरापन, दो रूपये की महाबचत, ये क्यों ले, वो क्यों न लें आदि-आदि. उसी तरह लग्जरी, विलासिता की चीजें इमोशनल अपील पर बेची जाती हैं. दो लाख की घड़ी आप किस तर्क से बेचेंगे. इमोशनल अपील भिड़ा दें.. गर्लफ्रेंड की पेंच फंसा दें और फिर आगे स्टेटस में कन्वर्ट कर दें.
तो इस लिहाज से दो साल की बहुमत की ये सरकार जानती है कि वो एफएमसीजी यानी रोजमर्रा की उत्पाद नहीं है. उसे जनतंत्र के बाजार में आगे तीन साल और रहना है. इसके लिए जरूरी है कि दो साल जो बीत गए, उन तर्कों के साथ मैरिज एनिवर्सरी से हजारों गुणा भव्य उत्सव नहीं मनाए जा सकते और न ही इस अपील के साथ विज्ञापन किए जा सकते हैं. ऐसे में जरूरी है कि इसे इमोशनल अपील में ठेल दिया जाए.
अब अमिताभ बच्चन ने जो कहा, उस पर गौर करें… सबकुछ हायपर इमोशनल, विज्ञापन की लेआउट के अनुरूप. बेटी बचाओ का ध्यान है लेकिन आए दिन होनेवाली हत्या और बलात्कार पर क्या कार्रवाई हुई, कोई चर्चा नहीं. डिजिटल इंडिया बातचीत में शामिल है सोशल मीडिया पर देशभक्तों की ट्रोल पर कोई बात नहीं. स्किल इंडिया है लेकिन सालों से स्थापित यूनिवर्सिटी और पढ़ने-लिखने की दुनिया के रौंद दिए जाने पर कोई बात नहीं. स्वाभाविक है कि विज्ञापन अपने उत्पाद के खिलाफ नहीं जा सकता.
ये सच है कि जिन बच्चों को इस महानायक से बातचीत करने का मौका मिला होगा, उनके लिए ऐतिहासिक क्षण बनकर यादों में हमेशा के लिए कैद हो जाएगी..लेकिन सीधा सवाल है कि जो आपके काले टीके को एक स्किन क्रीम बेचने के लिए सफेद करने की भौंड़ी कोशिश करे, एक तेल बेचने के लिए टेंशन जाएगा पेंशन लेने (पेंशन का प्रावधान खत्म होने के बावजूद) जैसे वाक्य दोहरा सकता है, वो किसी भी चीज को, किसी भी सरकार को विज्ञापन की लेआउट के हिसाब से पेश कर सकता है.
नहीं तो इसी महानायक के लिए कभी इंदिरा गांधी की हत्या, उनकी मां, देश की मां की हत्या हो गई थी और दूरदर्शन पर खुलेआम कहा था- इसके खून के छींटे उन पर भी पड़ेंगे जिन्होंने ऐसा किया है. जाहिर है, ये कोई फिल्मी डायलॉग नहीं थी और न ही न्यायपालिका की तरफ से फैसले की बात. सीधे-सीधे अपने हाथ में कानून लेकर फैसला करने की बर्बरता. इस मामले में केस की सुनवाई की खबर हाल-हाल तक आती रही है..वो तब आपको बर्बर हो जाने की सलाह दे रहे थे और अब बर्बरता के खिलाफ की आवाज को गुलाबी कागज में लपेटकर राष्ट्रभक्त हो जाने की..
युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.
sanjib
May 30, 2016 at 8:00 pm
Vineet ji, to aap kya chahte hain, Bachchan sab Congress ke taluwe chatein? Satta ke aagey kaun nahin jhuk raha. Yadi aap Media se judey hain, to sabse Jyada to Ye “Media Malik” hi hain, jo Har Sattadhari ke aagey apna sabkuchh Rakh dete hain… Iss par to aap bolenge nahin.